Thursday, November 10, 2016

कोटा से लौटकर बुद्धु घर को आये-लघु हिन्दी व्यंग्य (Kota se lautkar buddhu Ghar ko aaye-Hindi Short Satire)

                                              कोटा से घर आते ही हमने मुख्य दरवाजा खोलकर जैसे ही आंगन में पड़ा अखबार उठाया तो उसमें बड़े बड़े अक्षरों में छपा मुख्य समाचार देखा कि पांच सौ तथा एक हजार के नोट बंद हो गये हैं। कोटा में एक दिन पहले ही हम रात्रि नौ बजे छावनी के बस अड्डे पर जब खड़े बस का इंतजार कर रहे थे तो एक लड़की को कहते सुना था कि ‘जो नोट बंद हुए हुए हैं उनकी सीरिज देखनी पड़ेगी।’ यह सुनकर अजीब लगा। हमने सोचा शायद किसी सीरिज के नोट बंद हुए होंगे या फिर कोई ऐसी बात है जो हमारी समझ में नहीं आयी । 
                               सारी रात बस में सोते हुए चलते रहे। इसका बिल्कुल अंदाज नहीं था कि जिन एक हजार और पांच सौ का नोट हम चोर जेब में दबाये हुए हैं वह कागज हो गये हैं और पर्स में सौ तथा दस का नोट ही हमारा एकमात्र सहारा है। 
                           हम एक शादी में शािमल होने कोटा गये थे। शादी के बाद वहां तलवंडी में एक होटल में ही रहे। सुबह पास एक एटीएम में गये वहां से तीन हजार रुपये निकाले-हालांकि तब हमारी जेब में एक हजार का नोट था। हमने यह सोचकर पैसे निकाले कि पांच और सौ के नोट मिलेंगे-पर हजार के नोट हाथ आये जिससे निराशा हुई। क्या पता था कि अगले चौबीस घंटे मेें आपातकाल के लिये निकाले गये रुपये हमारे लिये परेशानी का कारण बनने वाले थे। अब जेब में सौ के चार नोट और दस दस रुपये के आठ नोट हैं। अभी तत्काल कुछ खरीदना नहीं है पर हम हजार पांच सौ का नोट होते हुए भी कोई चीज खरीद नहीं सकते यह बात ज्यादा परेशान कर रही है। 
                   कोटा में एक हजार के नोट खुले करवाये तो पांच सौ के मिले। फिर पांच सौ के खुले करवाये। अगर हम एक दिन कोटा में रह जाते तो यकीनन हमें उधार लेकर घर वापस आना पड़ता। एक हजार के नोट से हमने एक दो सौ रुपये की एक चप्पल खरीदी और सात सौ रुपये की टिकट ली। कुछ अन्य खरीददारी का सोचा पर समयाभाव के कारण कार्यक्रम स्थगित कर दिया। हम सोच रहे हैं कि काश! हजार का एक दो नोट ठिकाने लगा दिया होता। अब तो तीन चार दिन बाद ही बैंक जाकर देखेंगे कि नोट बदल पाते हैं कि नही। वैसे कल एटीएम खुल जायेगा इसलिये पैसा तो निकालने की कोशिश करेंगे। तसल्ली है कि अपने ही शहर और घर में हैं। अब अपने शहर में बैठे हम कोटा की यात्रा का सुख तो भूल गये यह सोचकर खुश हो गये कि ‘अच्छा हुआ, लौट कर बुद्धु घर आये।
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गरीब या गरीबी की रेखा वालों के पास बड़े नोट इतने नहीं होंगे जितना प्रचार हो रहा है
                 जिसके पास पांच सौ या हजार का नोट है वह गरीब या उसके नीचे की रेखा के नीचे रहने वाला हो ही नहीं सकता। अब यह मत कभी न कहना कि हमने गरीबी या गरीब नहीं देखे। न ही यह कहना कि मजदूरी करना नहीं जानते। अपने बेरोजगारी काल में वाणिज्य स्नातक होने के बावजूद जूतों की दुकान पर नौकरी करते हुए ठेला चलाया। सत्तर रु. वेतन था और तब भी सौ का नोट प्रचलन में होने के बावजूद हाथ नहीं आया था। यह जनवादी पता नहीं कौनसे गरीबों का रोना रोते हैं जिनके पास पांच सौ का नोट हो सकता है। बेबस को शक्तिमान और गरीबों को अमीर बनाने का यह सपना बेच सकते हैं साकार करना उनके बूते का नहीं। हम सोच नहीं पा रहे कि डोनाल्ड ट्रम्प की जीत पर लिखें या कालेधन पर सर्जीकल स्ट्राइक पर। इस पर सोचते हैं तो उस तरफ ध्यान जाता है और उस पर ध्यान देते हैं तो इस तरफ आता है। संभव है राष्ट्रवादी भी ऐसे ही उलझन में फंसें हों। पर अब तो हम सोचते थक गये सो शुभरात्रि।

Wednesday, October 26, 2016

दीपावली हिन्दुत्व और परिवारवाद पर कुछ संदेश (Sum Message on Internet with Deepawali, Hindutva And Parivwar Vad)

                      फेसबुक पर हमने एक राष्ट्रवादी मित्र के संदेश पर बहस देखी। बहुत सारी टिप्पणियों में  कोई सहमत तो कोई असहमत था। कुछ लेखक से नाराज थे कि राष्ट्रवादी होने के बावजूद उन्होंने ऐसी बात क्यों लिखी। कुछ हास्य तो कुछ व्यंग्य से भरी टिप्पणियों को पढ़ते हुए हमने अपने अंतर्मन में झांका तो पाया कि पिछले अट्ठारह वर्ष से हमने योग साधना के बाद किसी त्यौहार को अधिक महत्व नहीं दिया।  प्रतिदिन सुबह ताजी सांसों से मन इतना भर जाता है कि फिर उसे भटकाने के लिये कहां ले जायें-यही सोचते हैं।  वर्षाकाल में उमस में इतना पसीना आता है कि होली में रंग भरा पानी भी आनंद नहीं दे पाता।  जब कपाल भाति करते हैे तो पटाखों की आवाज आती है।  योग साधना के बाद कुछ भी खायें वह मिठाई से ज्यादा मिठास देता है-मतलब रोज दिवाली जैसा आनंद आता है। सीधी कहें तो योग साधक के लिये प्रतिदिन होली, दीपावली और बसंत है।  दशहरा भी कह सकते हैं क्योंकि देह, मन और विचारों के विकारों का दहन आखिर क्या कहा जा सकता है?
                        हिन्दुत्व पर न्यायालयीन निर्णय के बाद आशा बंधी थी कि राष्ट्रवादी नये तर्क या शैली से बहसों में आयेंगे पर निराशा ही हाथ लगी। टीवी चैनलों पर राष्ट्रवादी विचारक हिन्दुत्व पर पुराने ही विचार व्यक्त करते रहे। उसे देखकर तो नहीं लगता कि हिन्दुत्व का सही अर्थ जानते हैं।  अब यह तय लगने लगा है कि प्रगतिशील, जनवाद और राष्ट्रवाद तीनों ही विचाराधारायें देश के जनमानस को बांधे रखने के लिये हैं ताकि एक तरफ राजपदों पर उनके लोग बने रहने के साथ ही राज्यप्रबंध में यथावत स्थिति रहे। जनता बोर न हो इसलिये विचाराधाराओं का द्वंद्व बनाकर रखा जाये ताकि अकुशल राज्य प्रबंध से उसका ध्यान बंटा रहे।
                          इस दीपावली पर मध्यम और निम्न वर्ग के व्यापारी अपनी आय में बढ़ोतरी नहीं देख पा रहे हैं। हम पहले भी कह चुके हैं कि भारत में चीनी सामानों की बिक्री के पीछे एक कारण यह भी है कि भारत में मध्यम और निम्न वर्ग की आय में निरंतर कमी आ रही है-इस कारण दीपावली जैसे पर्व हर वर्ष फीके होते गये हैं-जिस कारण लोग खर्च कम कर रहे हैं या फिर उन्हें लगता है कि उनकी नियमित आवश्यकताओं की पूर्ति पहले होना चाहिये। किसी खास अवसर पर पैसा खर्च करना उसके लिये असुविधाजनक हो गया है।
एक परिवार पर इतन समय बर्बाद कर भारतीय चैनल अपना नकारापन बता रहे है।
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                 भारत के हिन्दी तथा अंग्रेजी चैनल उस उस परिवार के आपसी क्लेश व समझौते के समाचारों के साथ बहसों पर विज्ञापनों का बहुत समय पास कर चुके हैं।  हम कभी इस तो कभी चैनल पर जाते हैं पर समाज के उद्धार कर उस परिवार के बारे में एक शब्द देखकर ही उबकाई आने लगती है। सच यह है कि अगले चुनाव में इस परिवार की कथित दुकान परिणामों में चौथे नंबर पर रहेगी।  समाजवाद के पीछे अब परिवारवाद अधिक नहीं चलने वाला। समाचार चैनलों के इस प्रसारण पर विश्व में अन्य देशों के लोग ही नहीं भारत के दर्शक भी हैरान हैं। यह प्रचार कर्मियों की अक्षमता का परिणाम हैं।

Tuesday, October 11, 2016

दिल्ली की बजाय लखनऊ की रामलीला चर्चा का केंद्र बनी-हिंदी संपादकीय (Now First time Delhi not center for Ramlila And Rawan Dahan,Lacknow-Hindi Editorial)

                  विश्व पटल पर यह पहली बार यह पता लगा होगा कि दिल्ली के बाहर भी रामलीला और रावण दहन होता है। राजपद पर बैठे लोग किस तरह देश की सांस्कृतिक तथा अध्यात्मिक दर्शन को व्यापक परिदृश्य में स्थापित कर सकते हैं-यह अब राज्यप्रबंध में कार्य करने के इच्छुक लोगों को सीखना चाहिये।
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                  इस बार भारतीय प्रचार माध्यमों में नईदिल्ली की बजाय लखनऊ की रामलील क्यों छायी रही है? इसका उत्तर देने की आवश्यकता नहीं है। नईदिल्ली के रामलीला आयोजकों ने पिछले वर्ष प्रधानमंत्री को आमंत्रण न भेजकर राजनीति की थी।  उसका यह जवाब है कि उनके लखनऊ जाने से नईदिल्ली की रामलील प्रचार माध्यमों में उसी तरह चर्चित होगी जैसे अन्य शहरों में होती है। इसे आंतरिक सर्जिकल स्ट्राइक कहना तो ठीक नहीं होगा पर कहें भी तो क्या? राजपुरुषों को अपने प्रतिकूल कृत्यों पर दंडात्मक कार्यवाही करना ही चाहिये-आजकल मुंह फेरना बदला लेने का सबसे श्रेष्ठ उपाय है। हम अध्यात्मिक ज्ञान साधक इस प्रकरण को ऐसे ही देखते हैं। पहले बड़े लोग दिल्ली में इसलिये उपस्थित रहते थे क्योंकि वहां की रामलीला प्रसिद्ध है। जबकि अब यह स्पष्ट हो गया है कि बड़े लोग चाहें तो समाज के दृष्टिकोण में बदलाव ला सकते हैं।  वह चाहें तो छोटी जगह को भी बड़ी खबर का हिस्सा बना सकते है।
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                 एक ने कहा-‘दिन खराब हों तो कंप्यूटर भी खराब क्यों होता है? मोबाईल भी बंद हो जाता है। टीवी का डिस्क संपर्क भी गायब हो जाता है।
    दूसरे ने जवाब दिया कि ‘यह बताने के लिये कि अच्छे दिन क्या होते हैं।
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नोट-हमारे साथ कंप्यूटर का संकट चल रहा है इसका इस सवाल या जवाब से कोई संबंध नहीं है। हालांकि इस संकट के निवारण के तत्काल बाद यह पहला संदेश है। आज  जब में अपने लिये कह रहा था तब वह सब काम रहा था।


Sunday, September 25, 2016

समंदर जैसी चौड़ी सड़क पर कारों का झुंड खड़ा है-दीपकबापूवाणी (Samandar jaise chodi Sadak pa karon ka jhund khada hai-DeepakBapuwani)

जाने पहचाने कहें या दोस्त कुछ पल तो दिल बहला देते हैं।
लिख बोल कर क्या कहें, कैसे हमारे धाव वह सहला देते हैं।
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दिल से चाहते तो हर बंदे के नखरे भी उठा लेते हम।
मुश्किल यह रही वह जुबां से हक मांग कर देते हैं गम।
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जमा कर ली धन संपति, प्रेम का खाता कभी कहीं खोला नहीं।
चाटुकारों की फौज बनाई, जंग में हथियार कोई खोला नहीं।
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समंदर जैसी चौड़ी सड़क पर कारों का झुंड खड़ा है।
गोया विकास के रथ में विनाश का पहिया जड़ा है।
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सड़क स्मार्टफोन और इश्क-हिन्दी हास्य कविता

प्रेमिका ने कहा प्रेमी से
संभलकर कर मोटरसाइकिल चलाना
अपने शहर में
सड़क में कहीं गड्ढे
कहीं गड़्ढों में सड़क है।

प्रेमी ने कहा
‘प्रियतमे! तुम भी बैठे बैठे
स्मार्टफोन पर अपने
चेहरे पर मेकअप करते हुए
सेल्फी मत लेना
हिलने में खतरे बहुत
गिरे तो टीवी पर सनसनी
समाचार बन जायेंगे
अस्पताल पहुंचे तो ठीक
श्मशान में शोकाकुल
मुझे बहुत शर्मांयेंगे
कहेंगे इश्क ने
किया इसका बेड़ा गर्क है।
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Wednesday, September 21, 2016

मिट गये दिल से सपनों के निशान फिर भी उम्मीद रौशन कर रखी है-दीपकबापूवाणी (Mil gaye sapane fir bhe ummid roshan ka rakhi hai-Deepakbapuwani)


दौलत चंद हाथों ने जमा की है, बहुतेरों को गरीबी थमा दी है।
‘दीपकबापू’ सच से छिपाया मुंह, धोखे की खबर जमा कर ली है।
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धन से छल का प्रमाणपत्र मिल जाता है, पद से नकली गुलाब खिल जाता है।
कौन पूछता खाने की महफिल में हिसाब, हर कोई रोटी पर पिल जाता है।।
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राजपद मे मोह में सभी फंसे, धर्म का नाम लेकर पाप में पूरे धंसे।
‘दीपकबापू’ आप जुटाते पद पैसा, अपने कांड छिपायें दूसरे पर हंसे।।
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बंदिशों से उकताये लोग बदहाली में आजादी ढूंढते है।
होश में खौफजदा हैं, मदहोशी में चैन की चांदी ढूंढते हैं।
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आरोपों के दौर चलते, सबूत के बिना सिद्ध होना नहीं है।
बिना लक्ष्य चलते शब्दतीर, किसी को कुछ खोना नही है।
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नर्तक गवैये मोहक अदाओं से लोगों में हवस की आग जलाते।
बहका मन बंधक हुआ सौदागर आजादी के राग से बहलाते।
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कौन भला या बुरा पता न चले, वही मशहूर जो दाम में फले।
‘दीपकबापू’ गरीब के मालिक बने, चालाक खिलाड़ी दिखते भले।।
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शहर में तनाव के हाल बनते हैं, अमन पसंदों के तंबू भी तनते हैं।
‘दीपकबापू’ हमेशा खतरों से घिरे हैं, खौफनाकों के भी महल बनते हैं।
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खूनखराबे की जोरदार खबर होती है, बुद्धि वीभत्स रस में खुश होती है।
‘दीपकबापू’ तमाशे में मसाले डालते, दिमाग की धारा हर स्वाद ढोती है।।
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मिट गये दिल से सपनों के निशान फिर भी उम्मीद रौशन कर रखी है।
जिंदगी से क्या शिकायत करना कभी चुपड़ी कभी सूखी रोटी चखी है।
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कातिलो पर फिदा होते कलमकार, स्याही बन जाती खूनी की मददगार।
सम्मान की चाहत में अंधे मानवता के रक्षक हो जाते समाज के गद्दार।।
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अपने मतलब से कायदे बदलें, अमीर के नाम गरीब के फायदे बदलें।
‘दीपकबापू’ लफ्फाज बने मुखिया, शोर के साथ शांति के नारे बदलें।।
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अपनी स्वच्छ छवि सिर्फ सम्मान पाने के लिये ही नहीं बनाते हैं।
कालिख न ले जाये काली कोठरी, सेवाघर यूं ही नहीं बनाते हैं।
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सपने में भोजन की थाली सजाते, रोटी नाम सुनकर भूखे ताली बजाते।
‘दीपकबापू’ फंसे महंगाई के जाल में, लाचारं मौन शब्द भी गाली सजाते।।
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शब्द कुछ बोलने होते घमंड में कुछ और बोल जाते हैं।
गनीमत है गलती से ही दिल के राज खोल जाते हैं।
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Saturday, September 17, 2016

दिल्ली की दम से आगे बढ़ते हुए सत्ता के शिखर की तरफ अन्ना के चेले-हिन्दी संपादकीय (Aam Admi Party & Election in Goa And panjab-Edtorial

अन्ना के भूतपूर्व चेलों को चाहे दिल्ली के मसलों को लेकर कितना भी बदनाम कर लें उनको पंजाब तथा गोवा में सफलता जरूर मिल सकती है। सच यह है कि अन्ना के चेलों सत्ता प्राप्ति के लिये लक्ष्य की तरफ बढ़ रहे हैं उसमें दिल्ली एक बार की सत्ता से अधिक अब कुछ नहीं दे सकती। दिल्ली के बजट की दम पर पूरे देश के प्रचार जारी रखकर अपना नाम जीवंत रखा है। दिल्ली के विषयों पर उन्हें बदनाम कर पंजाब में रोका जा सकता है-इसमें संदेह होना स्वाभाविक है।
इसकी वजह भी साफ कर दें। गोवा और पंजाब में वर्तमानकाल के पक्ष तथा विपक्ष दोनों के प्रति जनता में नकारात्मक भाव होने की स्थिति दिख रही है। वहां दिल्ली के ढोल सुहावने बने हुए हैं इसलिये कुछ प्रचार माध्यमों ने वहां अन्ना के चेलों की भारी जीत की संभावना जताई थी। इन दोनों राज्यों में राजनीतिक रूप से असमंजस की स्थिति नहीं रहती अगर अन्ना के चेलों ने अपनी ताकत नहीं दिखाई देती। अन्ना के चेले इस बात को जानते हैं कि दिल्ली की बदनामी इन दोनों राज्यों में राजनीतिक मैदान पर खाली पड़ी उम्मीदों की जमीन पर उतरने से उनको नहीं रोक सकती। इसलिये तमाम तरह के वादे किये जा रहे हैें। इतनी राजनीति तो इन्होंने सीख ली है कि वादे करते और सपने दिखाते जाओ। बाद में क्या होगा इसकी परवाह नहीं करनी है। बाद में वादे पूरे नहीं किये तो भी क्या पांच साल तो प्रशासन-पुलिस महकमे सहित-उनके पास रहना है। संभव है कि दोनों प्रदेशों की जनता भी यह सोच ले कि हमें क्या? आजमा लो इनको शायद अच्छा काम कर लें! यह वादे पूरे नहीं करते तो क्या दूसरे भी तो नहीं करते।
अन्ना के इन चेलों ने चुनाव लड़ने व जीतने तक लक्ष्य रखा है। वह इसलिये दिल्ली में काम व वादे पूरे करने जैसे आरोपों की चिंता नहीं कर रहे। उनके प्रतिद्वंद्वियां को भी यह नहीं सोचना चाहिये दिल्ली की बदनामी से इनको गोवा या पंजाब में रोक लेंगे। उन्हें कोई ठोस उपाय करने होंगे। हमारा किसी दल से कोई संबंध नहीं है पर एक बात मानते हैं कि दिल्ली में अन्ना के चेले दोबारा शायद ही जीत पायें? इसकी उन्हें अब संभवतः परवाह भी नहीं है। कम से कम अन्ना के चेले तो यही मानते हैं कि अब वह सत्ता के शिखर की तरफ बढ़ रहे हैं-इसमें कितने सफल होंगे यह तो भविष्य ही बतायेगा।

Tuesday, August 16, 2016

मौसम और मन के मिजाज-हिन्दी कविता (mausa aur man ki Mijaj-HindiPoem)


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साथ चलते इंसान
परिंदों की तरह उड़ गये।
उनकी यादों ने
कुछ देर परेशान किया
फिर नये राही जुड़़ गये।
कहें दीपकबापू हम भी
खड़े देखते रहे
मौसम और मन के मिजाज
धूप से लड़ने की ठानी
कभी छांव की तरफ भी मुड़ गये।
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जीवन पथ परसहयात्री की खोजआंखे करती हैं।बहुत नरमुंड मिलतेउनकी इच्छायें ही साथीहमेशा आहें भरती हैं।कहें दीपकबापू याद मेंकिसे बसाकर अपना दिल बहलातेहृदय की भावनायेंनयी चाहत पर मरती है।--------------

भिखारी और राजा-हिन्दी कविता (King and begger-Hindi Poem)


वह भिखारी मंदिर के बाहर
चप्पल के सिंहासन पर बैठा
पुण्य क्रेता ग्राहक की
प्रतीक्षा में बैठा
आनंदमय दिखता है।

वह बादशाह महल में
सोने के सिंहासन पर
प्रजा की चिंता में लीन
असुरक्षा के भय से दीन
चिंतामय दिखता है।

कहें दीपकबापू मन से
बनता संसार पर नजरिया
आंखों से केवल दृश्य दिखता है।
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धरती पर स्वर्ग-हिन्दी कविता
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मतलब की बात
जल्दी सुनते
वरना बहरे हो जाते हैं।

डराते जो ज़माने को
खौफ में जीते वह भी
उनके घर खड़े पहरे हो जाते हैं।

कहें दीपकबापू सरलता से
जीवन बिताने की आदत
बना देती धरती पर स्वर्ग
चालाक अंदाज से
दुश्मन गहरे हो जाते हैं।
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Thursday, July 28, 2016

सोच और कदम-हिन्दी शायरी (Soch aur Kadam-HindiShayri)

अपनी जिंदगी हंसीन
बनाने के लिये
कवायद करनी पड़ती है।

यकीन करो 
वही आता आंखों के सामने
अपनी नज़रे जो गढ़ती हैं।

कहें दीपकबापू नजरिये से
दोस्त या दुश्मन बनते
उस मंजिल की तरफ जाते
इंसान के कदम
सोच जहां बढ़ती है।
‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘

Sunday, July 17, 2016

अपने घर के असुर को भी देव माने-दीपकबापूवाणी (Apane Ghar ke Asur ko Bhi Dev Mane-DeepakBapuwani)

दिन भर करें आदर्श की बात, शराब के जाम टकराते पूरी रात।
‘दीपकबापू’ चरित्र के वकील, सही दाम मिले तो देते हैं लात।।
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बदलने निकले समाज की तस्वीर, चंदे बटोरते हुए शब्दों के वीर।
‘दीपकबापू’ हिसाब देने से सदा बचते, तख्तों पर जाकर बैठते पीर।।
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दिन में हमदर्दी के नारे सेवक बांटते, रात आपस में जाम टकराते हैं।
‘दीपकबापू’ सेवा बना दी बड़ी कला, चंदे की चाल से लोग चकराते हैं।
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सड़क पर घूम रहा हादसे का डर, अक्ल के अंधे छोड़ चुके घर।
‘दीपकबापू’ अक्ल चौपाये जैसी हुई, चौपाये पर सवार हुए निडर।।
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दिखाने की कर रहे सभी भक्ति, संसार के सामानों में फंसी आसक्ति।
‘दीपकबापू’ बिखरा मन लिये फिरते, खाली बाहें नचाकर दिखाते शक्ति।।
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अपने घर के असुर को भी देव माने, बाहर भले मानस पर कसते ताने।
‘दीपकबापू’ अपराध से फेरें आंख, जब तक आते अपने भंडार में दाने।।
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हर कोई अपने ही काम में लगा है, काम के लिये ही हर कोई सगा है।
‘दीपकबापू’ स्वार्थ में बिताते जीवन, हर कोई पाखंड में सोता जगा है।।
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Thursday, June 30, 2016

स्वयं पर अपना अत्याचार-हिन्दी व्यंग्य कविता (Swyan par apna Atyachar-Hindi Satire Poem)


इंसान के दिल में
हर पल भय का
भूत समाया रहता।

बेचैनी का दरिया
देह की रक्त शिराओं में
हर पल बहता।

कहें दीपकबापू ज्ञान से
भागता पूरा ज़माना
स्वयं पर अपना अत्याचार
हर पल सहता।
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Wednesday, June 15, 2016

यही शर्त होती है-हिन्दी व्यंग्य कविता(Yahi Shart Hoti hai-HindiSatirePoem)


मुश्किल सवाल न करना
महफिल में आने की
यही शर्त होती है।

अपने गिले शिकवे दूर रखना
सद्भाव दिखाने के लिए दिल से
यही शर्त होती है।

कहें दीपकबापू अक्ल से
चला रहे जमाना
डरपोक लोग
बात करते जंग की
छिपने के लिये महल मिले
यही शर्त होती है।
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Wednesday, June 1, 2016

किताबी कीड़े चेतना लाने में लगे हैं-दीपकबापूवाणी (Kitabi kide chetan lane lage-DeepakBapuWani)

बुद्धि से अपढ़ भी मशहूर हो जाते, ज्ञानहीन शिक्षित अक्षर में चूर हो जाते।
‘दीपकबापू’ अपने लिये सब पा लिया, वही घमंड के सवार सबसे दूर हो जाते।।
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दंगल में कभी पहलवान जीते कभी हारे, वहां खड़े दर्शक मनोरंजन के मारे।
‘दीपकबापू’ खरीद लेते हैं कभी जीत भी, जश्न मनाते वह भी जो कुश्ती हारे।।
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किताबी कीड़े चेतना लाने में लगे हैं, धरती पर स्वर्ग लाने के लिये जगे है।
‘दीपकबापू’ सारी सुविधायें लपक ली, मददगार बेबसों से चंदा बटोर ठगे हैं।।
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मदहोशी में सभी लोग होते बदहाल, होश में भी चल जाते टेड़ी चाल।
‘दीपकबापू’ कर्म की चिंता नहीं करते, नाकामी पर बनायें भाग्य की ढाल।।
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हृदय की पीड़ा सभी स्वयं जाने, भीड़ में ढूंढे नहीं मिलते कभी सयाने।
बुद्धिमान छोड़ देते वह जगह, ‘दीपकबापू’ जहां पत्थर जैसे तर्क ताने।।
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उगते सूरज से उठती हृदय में आशा, डूबते हुए आये अंधेरे से निराशा।
सब्र से पाया मन में आंनद का हीरा, ‘दीपकबापू’ जब परिश्रम से तराशा।।
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अनेक रूप रचते आत्मप्रचार के लिये, छद्म चरित्रवान हर रस पिये।
‘दीपकबापू’ मन में पाले धन का लालच, हाथ में त्याग का झंडा लिये।।
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झूलते चंवरों के बीच देखे कई सिर, इतिहास ने जब दबोचा नहीं दिखे फिर।
‘दीपकबापू’ इतराते रहे सिंहासन पर, दुश्मनों की नज़रों से वही ताज गये घिर।।
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इश्क की कहानी से बाज़ार भरा है, कहीं माशुका कहीं आशिक मरा है।
‘दीपकबापू’ सपने के पांव नहीं होते, आखों के सामने खड़ा सच डरा है।।
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हर पग पर मिलते विषय के व्यापारी, दाम के हिसाब से निभाते यारी।
‘दीपकबापू’ कभी निभाते नहीं स्वयं, दूसरे से मुफ्त चाहें वफादारी।।
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लोगों की भीड़ रोजरोग की शिकार, सुख के नाम लील रहे विकार।
‘दीपकबापू’ चेहरे पर पोत लेते सफेदी, बुद्धि में कभी लाते नहीं निखार।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का  चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

Wednesday, May 18, 2016

चमत्कार के सौदागर-हिन्दी कविता(Chamatkar ke Saudagar-HindiPoem)

अपनी ही तारीफ से
ज़माने की तारीख
बनाये जाते हैं।

अकर्मण्य फल जुटाकर
अनुयायियों के लिये सीख
बनाये जाते हैं।

कहें दीपकाबापू सत्य से
पाखंड का मार्ग सरल है
चमत्कार के सौदागर
कुदरत का खेल
अपना बताये जाते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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Wednesday, May 4, 2016

अंधेरा बुझा देते हैं-हिन्दी कविता (Andhera Bujha dete hain-Hindi poem)

आशा का प्रकाशपुंज
प्रतिदिन रखें
फिर बुझा देते हैं।

गर्मी में उगते सूरज का
अभिवादन करते
सुख की चाहत दोपहर में
फिर बुझा देते हैं।

कहें दीपकबापू भरोसे से
प्रतिदिन हारते 
जिंदगी में यही एक सहारा
यही सोच निराशा का अंधेरा 
फिर बुझा देते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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Friday, April 29, 2016

इंसान बंदर है-हिन्दी कविता(Insan Bandar Hai-Hindi Poem)

चाहत है तैरने की
घर से बहुत दूर
बह रहा समंदर।

दिल में सपनों के
पानी का  खाली घड़ा
तड़प रहा अंदर।

कहें दीपकबापू मन के खेल में
फंसा इंसान
बेचैनी पालकर
ढूंढता अमन
चाल से लगे एक बंदर।
------------

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Monday, April 18, 2016

संगीनों का साया-हिन्दी कविता(Sanginon ka Saya-HindiKavita)


बारातों के जश्न पर
संगीनों का साया है।

घर की गोली से
अपने ज्यादा मरते
आंकड़ों ने बताया है।

कहें दीपकबापू सोच से
हथियार का वास्ता
कभी नहीं रहता
पानी जैसा मन
आग की बात कहता
बने निशाना वह मौन हुए
चलाने वाला पछताया है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Friday, April 8, 2016

चरित्र व्यक्तित्व-हिन्दी कविता (Charitra Vyaktitva-Hindi Poem)

चरित्र पर दाग
व्यक्तित्व की छवि 
तबाह कर देते हैं।

पीते नहीं शराब
जिंदगी में इतनी
अपनों के मन में 
जितनी आह भर देते हैं।

कहें दीपकबापू डूबतों से
बचने के लिये तिनका
मिलना आसान नहीं
मजबूत इरादे हों तो
पार लगने की
चाह भर देते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Monday, March 21, 2016

कागजी क्रांतिकारी-हिन्दी कविता(kagzi Krantikari-Hindi Poem)

हाथ हिलाते नारे लगाते
हाड़मांस के बुत
अब क्रांतिकारी कहलाते।

जहान के दर्द का बयान
करते आकर्षक शब्दों में
दवा के लिये बहलाते।

कहें दीपकबापू जीवन में
संघर्ष पथ पर चलते हुए
बरसों बीत गये
कागजी नायक पर्दे पर
आये गये
अपने दिल देह के घाव
लोग दिखे स्वयं ही सहलाते।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Friday, March 11, 2016

हंसना मना-हिन्दी कविता (Hansana mana-Hindi Kavita)

दौलत के दम पर
लगता है यहां
हर रोज नया मेला।

सुरों की महफिलों में
बेसुरे भी चमक जाते
रात में सजे दिन की बेला।

कहें दीपकबापू हंसना मना
लिख दो दिल पर
शब्दों पर सिक्के भारी
हास्य रस में
फूहड़ता का बहुत विष झेला।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Tuesday, March 1, 2016

बुद्धि का खेल-हिन्दी कविता(Buddhi Ka Khel-Hindi Kavita)

संस्कार संस्कृति में
समाज के आपसी
संघर्ष भी शामिल हैं।

ऊंचे आदर्श से भरी
किताबों के पाठों में
पतन के किस्से भी शामिल हैं।

कहें दीपकबापू बुद्धि से
नाता रखने वाले
चुन लेते फूल जैसे शब्द
हीन ढूंढते उसमें
कांटे जैसे जो अर्थ शामिल हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Friday, February 19, 2016

आसन और वायुयान-हिन्दी कविता (Asan aur Vayuyan-Hindi Kavita)

रंगीन पर्दे पर चेहरा
धवल पत्र पर नाम
देखने की चाहत
अल्पबुद्धि इंसान को भी
विद्वान बना देती है।

अंगरक्षको का पहरा
ताकत से रिश्ता गहरा
कमतर इंसान को
काली नीयत भी
महान बना देती है।

कहें दीपकबापू आओ लगायें
अपना योग दरबार
साधना जमीन के आसन को भी
वायुयान बना देती है।
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Tuesday, February 2, 2016

श्रृंगार रस विरह का घाव-हिन्दी कविता(Shrigar Ras Virah ka Bhave-Hindi Kavita)

भद्र शब्द से अधिक
अभद्र शब्द का
समझते अधिक प्रभाव।

सरल वाणी से कम
नादान मानते
कर्णकटु शब्द का अधिक भाव।

कहें दीपकबापू भाषा पर
कर रहे अनुसंधान
लगा रहे रचना का पान
श्रृंगार रस के साथ
लगाते विरह का भी घाव।
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Saturday, January 16, 2016

संवेदनाओं के पंख-हिन्दी कविता(Sanwednaon ke pankh-HindiKavita)

 पुराने परिचित
छोटी मुलाकातों से
अजनबी जैसे लगते हैं।

पुरानी स्मृतियां
ताजा करना चाहे मन
भुलाने वाले
डराने लगते हैं।

कहें दीपकबापू दिल से
जिंदगी बढ़ती जाती आगे
विकास में कभी संवेदनाओं के
पंख नहीं लगते हैं।
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