राजपद का मोह अंधा बना देता है, लाचार अब गद्दारी धंधा बना लेता है।
‘दीपकबापू’ ईमानदारी कांच में सजा ली, बेईमान लूट को चंदा बना लेता है।।
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भलाई का झंडा वह हाथ में लिये हैं, जिन्होंने कभी कोई काम नहीं किये हैं।
‘दीपकबापू’ स्वयंभू उदारमना बन गये, पूरी जिंदगी जो स्वार्थी बनकर जिये हैं।।
मन बहलाकर जेब खाली कर जाते, संगीत के साथ कटु स्वर चलाते।
‘दीपकबापू’ प्रणय कहानी के नायक, असुर का भी अभिनय कर जाते।।
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सेवक बनकर सामान ले जाते हैं, हिसाब पूछो स्वामीपन दिखाते हैं।
‘दीपकबापू’ मुखौटे के पीछे छिपते, हर बार नयी पहचान लिखाते हैं।।
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कभी प्रेम कभी मित्र दिवस मनायें, चलो कुछ बाज़ार भी सजायें।
‘दीपकबापू’ दिल को बना दिया नादान, कैसे दुनियांदारी समझायें।।
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समय स्वतः घाव भर देता है, समंदर लहरों से स्वतः पार नाव कर देता है।
‘दीपकबापू’ स्वांग रचने के आदी, इंसानों में भ्रम घमंड का भाव भर देता है।।
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बंदर की तरह उछलकूद किये जाते, पहले बारदाना फाड़ते फिर सिये जाते।
‘दीपकबापू’ भय का किया विनिवेश, अब अपनी ही पूजा का रस पिये जाते।।
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प्रेम शब्द बाचें सभी करे कोई नहीं,
हृदय के स्पंदन में बना ली
ताजा मांस की चाहत ने जगह कहीं।।
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