Wednesday, June 1, 2016

किताबी कीड़े चेतना लाने में लगे हैं-दीपकबापूवाणी (Kitabi kide chetan lane lage-DeepakBapuWani)

बुद्धि से अपढ़ भी मशहूर हो जाते, ज्ञानहीन शिक्षित अक्षर में चूर हो जाते।
‘दीपकबापू’ अपने लिये सब पा लिया, वही घमंड के सवार सबसे दूर हो जाते।।
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दंगल में कभी पहलवान जीते कभी हारे, वहां खड़े दर्शक मनोरंजन के मारे।
‘दीपकबापू’ खरीद लेते हैं कभी जीत भी, जश्न मनाते वह भी जो कुश्ती हारे।।
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किताबी कीड़े चेतना लाने में लगे हैं, धरती पर स्वर्ग लाने के लिये जगे है।
‘दीपकबापू’ सारी सुविधायें लपक ली, मददगार बेबसों से चंदा बटोर ठगे हैं।।
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मदहोशी में सभी लोग होते बदहाल, होश में भी चल जाते टेड़ी चाल।
‘दीपकबापू’ कर्म की चिंता नहीं करते, नाकामी पर बनायें भाग्य की ढाल।।
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हृदय की पीड़ा सभी स्वयं जाने, भीड़ में ढूंढे नहीं मिलते कभी सयाने।
बुद्धिमान छोड़ देते वह जगह, ‘दीपकबापू’ जहां पत्थर जैसे तर्क ताने।।
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उगते सूरज से उठती हृदय में आशा, डूबते हुए आये अंधेरे से निराशा।
सब्र से पाया मन में आंनद का हीरा, ‘दीपकबापू’ जब परिश्रम से तराशा।।
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अनेक रूप रचते आत्मप्रचार के लिये, छद्म चरित्रवान हर रस पिये।
‘दीपकबापू’ मन में पाले धन का लालच, हाथ में त्याग का झंडा लिये।।
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झूलते चंवरों के बीच देखे कई सिर, इतिहास ने जब दबोचा नहीं दिखे फिर।
‘दीपकबापू’ इतराते रहे सिंहासन पर, दुश्मनों की नज़रों से वही ताज गये घिर।।
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इश्क की कहानी से बाज़ार भरा है, कहीं माशुका कहीं आशिक मरा है।
‘दीपकबापू’ सपने के पांव नहीं होते, आखों के सामने खड़ा सच डरा है।।
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हर पग पर मिलते विषय के व्यापारी, दाम के हिसाब से निभाते यारी।
‘दीपकबापू’ कभी निभाते नहीं स्वयं, दूसरे से मुफ्त चाहें वफादारी।।
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लोगों की भीड़ रोजरोग की शिकार, सुख के नाम लील रहे विकार।
‘दीपकबापू’ चेहरे पर पोत लेते सफेदी, बुद्धि में कभी लाते नहीं निखार।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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