मन के गुलाम पर स्वामित्व का बोध करें, लाचारी में फंसे पराये दर्द पर शोध करें।
‘दीपकबापू’ दरियादिली का रचाते स्वांग, अक्ल के दावेदार चुनौती पर क्रोध करें।।
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बाज़ार के सामान में दिल कहीं खो गये, संपन्न अर्थी पर प्रेम के भाव सो गये।
‘दीपकबापू’ ढूंढे नहीं मिले जज़्बाती रिश्ते, लालची ख्याल चिंता के बीज बो गये।।
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सफेदपोशों की पूंछ कातिलों ने पकड़ी है, चेहरे सजे सामने नीयत पाप ने पकड़ी है।
‘दीपकबापू’ नहीं जानते शब्दों का सौंदर्य, जुबान खड़ी ऐसी जैसे बांस की लकड़ी है।।
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घडी की सुई के साथ हाल बदलते,
दरबारी नर्तक आम मंच पर ताल बदलते।
‘दीपकबापू’ चौराहे पर खड़े देखें
राहों के साथ लोग कदम चाल बदलते।
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प्रचार के पर्द पर दिखने की
बीमारी ज़माने में छा गयी है।
पैसे से प्रसिद्धि का खेल जारी है
शब्दों में चीखें छा गयी हैं।
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नाटकीय खेल में न जीत न हार
फिर भी नतीजा पहले से तय है।
‘दीपकबापू’ ईमानदार भूमिकाओं में
अभिनेताओं की गजब बेईमान लय है।
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