Sunday, February 28, 2010

ब्लाग जगत पर होली व्यंग्य-हिन्दी लेख (hindi satire wrote on holi-hindi article)

नई दुनियां से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने होली के अवसर पर हिन्दी ब्लाग जगत पर व्यंग्य बाण छोड़कर सक्रिय ब्लाग लेखकों को लगभग स्तब्ध कर दिया है। उनके उस व्यंग्य आलेख की जानकारी इंटरनेट के ब्लाग लेखकों ने ही जारी की। जिन लोगों ने यह आलेख प्रस्तुत किये उनकी भाषा भी सहमी हुई लग रही थी। रखने वालों को यह भय था कि पता नहीं ब्लाग लेखकों पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी और कहीं यहां उसे प्रकाशित करने के कारण ही कहीं कोपभाजन तो नहीं होना पड़ेगा। हमारे मित्र ब्लाग लेखकों इसे प्रस्तुत करते हुए अपनी भाषा इस तरह लिखी जैसे कि उनका तो इससे कोई लेना देना नहीं है बल्कि गुस्सा हैं।
हैरानी इस बात की है कि कुछ ब्लाग लेखक इस पर उत्तेजित हो गये और उन्हें लगा कि उन पर गंभीरता से प्रहार किया गया है-उन्होंने इस जवाबी तर्क भी प्रस्तुत कर दिये जैसे कि कोई गंभीर आलेख हो। दरअसल ब्लाग लेखक स्वयं ही आपस में होली स्वांग में रचाने में इतने व्यस्त हैं कि उनको यह अनुमान नहीं रहा कि कोई बाहर बैठा व्यक्ति भी इस होली पर उनके साथ बाहरी पिचकारी से ही रंग फैंकेगा।
श्री आलोक मेहता का यह आलेख सुबह एक ब्लाग पर देखा था और इंतजार था कि देखें इस प्रतिक्रियायें क्या आती हैं? कुछ ब्लाग लेखकों ने इस व्यंग्य का मंतव्य समझ लिया और अपनी टिप्पणियों में इस बात का उल्लेख किया कि यह एक व्यंग्य है।
प्रारंभ में जब हमने इस लेख को देखा तो ब्लाग लेखकों की तरह हम भी हैरान रह गये। जब व्यंग्य पूरा पढ़ा तब समझ में आया कि वास्तव में दूसरों पर कटाक्ष और प्रहार करने वाला हिन्दी ब्लाग जगत आज खुद भी निशाना बन गया। ब्लाग लेखकों को कुंठित, मठाधीश, भडासी और जाने कौन कौन सी व्यंग्य संज्ञााओं से नवाजा गया है।
उसमें यहां तक लिखा गया है कि ‘इन ब्लाग लेखकोें का लिखा एक शब्द भी अमेरिका और चीन का राष्ट्रपति तक नहीं मिटवा सकता। खासतौर से हिन्दी ब्लाग जगत के लेखकों का।’
इस व्यंग्यात्मक प्रहार को एक प्रशंसा भी समझा जा सकता है और गंभीर आलोचना भी।
उसमें ढेर सारी बातें हैं, उन प्रतिवाद रूप से गंभीरता से लिखा जा सकता था अगर वह एक निबंध होता तो? व्यंग्य के लिखे का प्रतिवाद तो यह कहकर ही हो सकता है कि इसमें अति प्रदर्शन किया गया है-वह भी तब जब किसी पर व्यक्तिगत रूप से आक्षेप हो जो कि इसमें नहीं है।
वैसे देखा जाये तो हिन्दी ब्लाग जगत पर किया गया यह व्यंग्यात्मक प्रहार पढ़ने वाले पाठकों की दिलचस्पी निश्चित रूप से हिन्दी ब्लाग लेखन में बढ़ेगी। ब्लाग लेखकों को एक बात समझना चाहिये कि हम जो इस समय प्रचार तंत्र देख रहे हैं वह नायक-खलनायक और समर्थक-विरोधी दोनों को साथ लेकर चल रहा है। दूसरा यह कि अनेक लोग तो प्रचार पाने के लिये अपने पर लिखवाते हैं। श्री आलोक मेहता ने व्यंग्य लिखकर खलनायक या विरोधी की भूमिका अदा नहीं की बल्कि यह बताया है कि हिन्दी ब्लाग जगत अब आकार ले रहा है और उस पर व्यंग्य लिखा जा सकता है। अस्तित्वहीन या लधु आकार के विषय व्यंग्य के लिये उपयुक्त नहीं होते। वैसे जिन ब्लाग लेखकों को लगता है कि यह मजाक गंभीर है तो भी उन्हें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिये कि बैठे ठाले उनका विरोध कर उन्हें प्रसिद्धि दिलाने का काम एक प्रतिष्ठत लेखक ने मुफ्त में किया है नहीं तो अनेक बड़े लोगों को अपना विरोध कराने के लिये पैसे खर्च करने पड़ते हैं। श्रीआलोक मेहता ने किसी ब्लाग लेखक का नाम नहीं लिया और जिनका लिया वह काल्पनिक हैं-ताज्जुब है कि कुछ ब्लाग लेखक उनको सर्च इंजिनों में ढूंढने गये। वह जानते हैं कि अधिकतर ब्लाग लेखक मध्यमवर्गीय हैं और सार्वजनिक रूप से किसी का नाम लिखकर उनके लिये परेशानी पैदा न की जाये।
श्री आलोक मेहता को हम जानते हैं पर वह हमसे अपरिचित हैं। अलबत्ता उनको एक आम पाठक के रूप में पढ़ने के अलावा एक आम दर्शक के रूप में छोटे पर्दे पर भी देखते हैं। व्यंग्य तो केवल व्यंग्य है। अगर उसमें गंभीरता होती तो कोई तर्क देते। अच्छा व्यंग्य पढ़ने को मिला। जिन ब्लाग लेखकों ने इसे रखा उनकी प्रशंसा की जानी चाहिये। अप्रत्यक्ष रूप से इस व्यंग्य में ब्लाग लेखन की शक्ति का भी बखान किया गया है जिसे पढ़कर पाठकों की दिलचस्पी बढ़ेगी। वह इस बात को समझेंगे कि हिन्दी ब्लाग जगत ताकतवर हैं भले ही उसमें मसखरे भरे पड़े हों। अलबत्ता धीरे धीरे सभी जान जायेंगे कि यहां हर तरह के ब्लाग लेखक हैं। संभव है यहां लिखना शुरु करने वाले कुंठित लोग हों पर लिखते लिखते उनकी कुंठायें उनसे दूर चली जाती हैं और ब्लागिंग का नशा बाकी सारे नशों से भारी सिद्ध होता है। श्री आलोक मेहता को हम पढ़ते हैं पर वह हमें नहीं पढ़ते। वरना अपने ब्लाग पर उनके लिये होली के अवसर पर नाम लेकर बधाई संदेश देते। अलबत्ता ब्लाग लेखकों और पाठकों को इस होली पर हार्दिक बधाई। इस व्यंग्य पर जितना दुःख था उसे बाहर निकाल फैंके और स्वयं भी ऐसे ही व्यंग्य लिखें जिससे किसी को दुःख न पहुंचे और जिस पर लिखा जाये वह स्वयं भी प्रसन्न हो। हमें यह व्यंग्य अच्छा लगा।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Thursday, February 25, 2010

वाद प्रतिवाद तो चलते रहेंगे-आलेख (disscution -hindi article)

हिन्दी ब्लाग जगत पर जब इस लेखक ने लिखना शुरु किया तो उसका केवल एक ही उद्देश्य था कि अपनी अभिव्यक्ति के लिये इस सुविधा का अधिक से अधिक उपयोग करना। एक आम लेखक के लिये सबसे बड़ी उपलब्धि इस बात में ही होती है कि उसकी रचना भीड़ में पहुंच जाकर पाठक जुटाये। समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपने पर अनेक पाठक मिलते हैं पर एक सामान्य लेखक के लिये नियमित रूप से वहां छपना आसान नहीं है। अंतर्जाल का एक यह दोष है कि किसी भी पाठ के पाठक तत्काल नहीं मिलते पर इसका एक गुण है कि आपने लिख दिया तो वह पढ़ा ही जाता रहेगा। उसके संप्रेक्षण के लिये आपको दोबारा प्रयास की आवश्यकता नहीं है। समाचार पत्र पत्रिकाओं में जगह न मिल पाने की मजबूरी एक आम लेखक के साथ होती है इससे यह लेखक भी ग्रसित रहा है पर किसी विषय पर लिखने या न लिखने की मजबूरी इससे नहीं जुड़ी। कम से कम कोई इस लेखक को इस बात के लिये बाध्य कोई नहीं करता कि इस पर लिखो या न लिखो। यह जवाब है उस मित्र जनवादी लेखक का जिसने इस लेखक के एक ब्लाग पर लिखे गये लेख पर प्रतिवाद रूप में पाठ लिखते हुए यह बात लिखी थी कि ‘उनकी शायद कोई मजबूरी रही होगी।’
‘हैती के भूकंप का ज्योतिष, साम्यवाद और पूंजीवाद से क्या संबंध? इस विषय पर लिखे गये लेख के जवाब में उन उस जनवादी लेखक ने अपने समर्थन में वही बातें दोहराई जिससे पढ़कर वह पाठ लिखा गया था। उसने इस लेखक की मजबूरी बताते हुए इशारा किया पर आगे वही लेखक उस पाठ की बातों से सहमति भी जताता रहा, मगर वहां उसने इस ब्लाग लेखक की तरफ इशारा नहीं किया। उस लेखक द्वारा लिखे गये पाठ का आशय यह था कि हैती के भूकंप के लिये वहां की जमीन का पूंजीवादियों द्वारा किया गया दोहन जिम्मेदारी है। साथ ही यह भी अगर वहां साम्यवाद होता तो इतनी बड़ी जनहानि नहीं होती। जनहानि होती तो तत्काल सहायता पहुंच जाती, आदि आदि।
उसकी सहमति एक पैराग्राफ में थी। इस ब्लाग के लेखक ने लिखा था कि विश्व भर में भूकंप आने का कारण यह भी है कि अनेक तरह के परमाणु विस्फोट किेये गये हैं जिससे पृथ्वी का क्षति पहुंची है पर यह अकेला कारण नहीं है। हमारे लिखने का आशय यह था इसके लिये साम्यवादी देश ही अधिक जिम्मेदारी है जो आये दिन अमेरिका की होड़ में लग कर ऐसे विस्फोट करते हैं-चीन और सोवियत संघ इसके उदाहरण हैं। प्रतिवाद करते हुए पाठ पर इस विषय पर सहमत होने के बावजूद वह लेखक दोनों देशों का नाम लेने से बचते रहे। साथ ही पहले मूल पाठ फिर प्रतिवाद में लिखे गये पाठ में वह साम्यवाद का गुणगान करते रहे। विस्फोटों से पहुंची पृथ्वी को पहुंची क्षति को स्वीकार किया, इसके लिये वह बधाई के पात्र हैं, क्योंकि यह उनकी श्रेष्ठता का प्रमाण है वरना यहां तो लोग केवल असहमति वाले विषय पर ही लिखकर इतिश्री करते हैं पर उनका पाठ पढ़कर एक बात मन में आयी कि आखिर वह किसलिये साम्यवादी विचारधारा मानने वाले देशों को दूध का धुला समझते हैं। पृथ्वी के साथ मनुष्य की छेड़छाड़ इतना छोटा मुद्दा नहीं है जितना हमारे मित्र समझते हैं।
दूसरी बात यह लेखक जनवादी विचाराधारा के लेखकों को साफ बताना चाहता है कि हम उनके साथ बहस करने की योग्यता नहीं रखते। इतिहास की बात करें तो यहां स्थिति यह है कि हर कोई अपने हिसाब से इतिहास सुनाता है और उस यकीन होने के दबाव डालता है। हम जैसे आम लेखक के लिये यह संभव नहीं है कि वह उनका विरोध कर अपनी जान सांसत में डाले। जिन लोगों ने हमारे ब्लाग देखें हैं उनको यह पता है कि कहीं कुछ योजनाबद्ध ढंग से नहीं लिखा। जो मन में आया लिख दिया। कभी अध्यात्मिक लेख तो कभी हास्य कविता! कभी आलेख तो कभी व्यंग्य! मुख्य लक्ष्य है कि आम लेखक की अभिव्यक्ति की धारा तीव्र गति से प्रवाहित हो। इस देश में ढेर सारे लेखक हैं पर सभी विशिष्ट हैं। आम आदमी की अभिव्यक्ति उनके लेखों में नहीं दिखती क्योंकि वह उसके पढ़ने कें लिये नहीं लिखते बल्कि उसके लिये लिखा यह दिखाकर विशिष्ट वर्ग में अपनी इज्जत बढ़ाते हैं। वह अपने विषय आम पाठकों से चुनने की बजाय उन पर थोपते हैं।
विचारधाराओं के आधार लिखने वाले लेखकों से हमारा कोई तारतम्य नहीं है और उनकी आपसी बहसों में हम केवल उसी विषय को छूते हैं जिसमें आम आदमी के लिखने पढ़ने लायक कुछ हो। विचाराधाराओं के पीछे संगठन है और वह लिखने वाले को हर कदम पर सहायता करते हैं पर एक आम स्वतंत्र और मौलिक लेखक के लिये तो अकेले चलने का अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। एक आदमी का दर्द क्या होता है, यह बात हर लेखक जानता है जो स्वयं लिखता है। उस जनवादी विचारक लेखक की प्रशंसा करने का मन करता है जिसने अपने हाथों से कंप्यूटर पर टाईप कर अपना पाठ प्रकाशित किया। उसने नाम न लिखकर मर्यादा का पालन किया जो कि इस बात का प्रमाण है कि विचारक भिन्नता के बावजूद वह श्रेष्ठ व्यक्ति हैं।
दूसरी बात यह कि इस लेखक ने अपने जीवन की शुरुआत नवयुवावस्था एक मजदूर के रूप में ही की थी। जूतों की दुकान पर पेटी ठोकने और ठेले चलाने का काम किया। पेन के कारखाने में हाथ से चलने वाली मशीन पर भी पसीना बहाया। अनेक बार कीलें पैर में लगी। जब इस लेखक के अमीर परिवारों के मित्र मजे करते थे तब यह पसीना बहाता था। तब भी अपनी हालातों पर रोना नहीं आया क्योंकि आत्म अभिव्यक्ति के लिये कलम जो पकड़ी थी। यकीन था कि अपना समय आयेगा। नहंी आया। मध्यमवर्ग से आगे नहीं बढ़ पाये पर कभी अफसोस नहीं रहा। अलबत्ता शिक्षा और लेखन क्षमता की वजह से कुछ समय पत्रकारिता में बिताया। हिन्दी टंकण के कारण अपने जीवन की शुरुआत एक समाचार पत्र में कंप्युटर आपरेटर के रूप में ही हुई।
इस छोटी सी कहानी में बहुत बड़ा अनुभव छिपा है। जीवन में कभी किसी का मुंह नहीं ताका। परिश्रमी व्यक्ति हैं इसलिये यहां लिख रहे हैं। यहां लिखने का पैसा नहीं मिलता। जब लोग टीवी देखने में व्यस्त होते हैं तब हम यहां लिखते हैं। आज भी साइकिल का पंचर जुड़वाने स्वयं ही जाते हैं। आर्थिक रूप से अधिक संपन्न नहीं हैं पर इंटरनेट का खर्च उठाने का सामथ्र्य है। ऐसे में किसी भी विचाराधारा के लेखक का कुछ पढ़ते हैं तो हम भी लिखने लगते हैं। यह प्रतिक्रियात्मक लेखन तभी करते हैं जब लिखने लायक साहित्यक विचार हमारे मन में नहीं आता। अलबत्ता दर्द की अभिव्यक्ति कभी व्यंग्य के रूप में हो जाये तो उसे रोकना कठिन है। अपने संघर्ष के दिनों में हमारे दो ही शौक थे लिखना और किताबें पढ़ना। इसी कारण हर विचारधारा के उद्गम स्तोत्रों को जानते हैं। उनके शीर्ष पुरुषों की जीवनी को पढ़ा है। किसी विषय पर बिना अधिकार के नहीं लिखते। यही कारण है कि जनवादी लेखक अगर हमारे प्रतिवाद पर पाठ लिखता है तो उसमें हमारे साथ कहीं न कहीं सहमति भी जताता है। यह उनकी श्रेष्ठता के साथ ही हमारे चिंतन की मौलिकता का प्रमाण भी है। यह पाठ हमने एक तरह से सूचनार्थ लिखा है क्योंकि आगे कुछ ऐसे चिंतन आने वाले हैं जो विचाराधाराओं में बहने वाले लोगों में असहमति पैदा कर सकते हैं तब यह आक्षेप लगाना उनके लिये कठिन होगा कि हम किसी विचाराधारा या संगठन के लिये काम कर रहे हैं। इस लेखक का पूरा जीवन एक आम आदमी के रूप में ही बीता है और हिन्दी ब्लाग जगत में स्वतंत्र और मौलिक रूप से लिखने वालों से मित्रता करने की इसकी दिली इच्छा है। वाद प्रतिवाद तो चलते ही रहेंगे उनसे मन मैला नहीं करना चाहिये। न नाम लेकर किसी पर आक्षेप करना चाहिये क्योंकि हम ऐसा कर अपने जैसे आम आदमी को तनाव में डालते हैं। इस मर्यादा पालन के लिये जनवादी लेखक को एक बार फिर साधुवाद।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Sunday, February 21, 2010

प्यार और तोहफा-हिंदी व्यंग्य शायरी (ishq aur tohfa-hinci satire poem)

अब प्यार जताने का सिलसिला
तोहफों से चलने लगा है,
इसलिये आदमी तोहफे देकर
हर इंसान प्यार खरीदने लगा है।

तोहफों की कीमत जितनी बढ़ेगी,
प्यार की ऊंचाई भी उतनी लगेगी,
नजरों का दोष है कि दिल का
प्यार जाहिर करने की ख्वाहिशों के आगे
हर तोहफा सस्ता लगने लगा है,
मगर मजबूरी है
बिना तोहफे के प्यार खाली लगने लगा है।

मुश्किल यह है कि
प्यार दिखाने के लिये तोहफा खरीदने वास्ते
कब तक पतंग की तरह
इधर उधर उड़ते रहें,
कीमत चुकाने के लिये
कमाने के दर्द कब तक सहें,
सरलता से किया जाने वाला प्यार
तोहफों के जाल में फंसने लगा है।


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खूबसूरती की दौड़ में-हिन्दी हास्य कवितायें (hindi comic poem)

क्रीम पाउडर से सजे चेहरे
सौंदर्य का पर्याय बन गये हैं,
भयानक चेहरे भी
खूबसूरती की दौड़ में भागने के लिये बनठन गये हैं।
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न राई थी, न पहाड़ था,
न तिल था, न ताड़ था,
फिर भी वह ख्वाब बेचकर
सौदागरों ने पैसा कमाया।
इसतर बड़े ठग ने
छोटे पर रुआब जमाया।
कौन करेगा फरियाद,
सभी दे रहे एक दूसरे को दाद,
न अच्छे रास्ते पैसा मिला
न अच्छी जगह गंवाया।
-----------
अब यह प्रश्न न पूछना कि
हर शाख पर उल्लू बैठा है
अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा।
उजड़े चमन में
बिगड़े लोगों के वतन में
बरबादी का मंजर चारों तरफ है
अब तो प्रश्न यह है उल्लूओं का क्या होगा?

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वहम-हिन्दी क्षणिकाऐं (vaham-hinci comic poem)

विदुषकों के विद्वान और
नर्तकों के देवता होने का वहम
पूरे ज़माने को हो गया है,
झूठ के सहारे खड़ा है दौलत का महल,
इज्जत पाने के लिये, होने लगी सौदे की पहल,
ईमान सभी का सो गया है।
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सर्वशक्तिमान ने दाने दाने पर लिखा है
खाने वाले का नाम
न मिलने पर उसका क्या दोष
अगर बंद हो गोदाम।

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अपने बताये रस्ते पर चलें,ऐसे लोग कम हैं-हिंदी व्यंग्य कविता (few men in world-hindi comic poem)

सभी को बताये रास्ते पर खुद चलें, ऐसे लोग कम हैं।
दूसरे को सिखायें दांवपैंच, जो अजमाने में खुद बेदम हैं।।
हवा के झौंके से कांपने लगता है पूरा उनका बदन,
जमाने को डरपोक बतायें, अपनी बहादुरी के उनको वहम हैं।।
दूसरों की रौशनी में चले हैं पूरी जिंदगी का रास्ता,
दीपक और मशाल जलायें रोज, ऐसे लोग कम हैं।।
सह नहीं पाते दूसरे की खुशी, दुखी हो जाते हैं,
अपने मतलब की राह चले हैं वह, जहां ढेरों गम हैं।
तलवारें और ढाल थामें हैं चारों ओर लोग
कलम से शब्द लिखकर अमन लायें, ऐसे लोग कम हैं।
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Sunday, February 7, 2010

ज्ञानी और ईमानदारी-हिन्दी व्यंग्य कवितायें



दिन भर वह दोनों ज्ञानी

अपने शब्दों की प्रेरणा से

लोगों को लड़ाने के लिये

झुंडों में बांट रहे थे,

रात को ईमानदारी से

लूट में मिले सामान में

अपना अपना हिस्सा

ईमानदारी से छांट रहे थे।

-------

शब्द रट लेते हैं किताबों से,

सुनाते हैं उनको हादसों के हिसाबों से,

पर अक्लमंद कभी खुद जंग नहीं लड़ते।

नतीजों पर पहुंचना

उनका मकसद नहीं

पर महफिलों में शोरशराबा करते हुए

अमन की राह में उनके कदम

बहुत  मजबूती से बढ़ते।


कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चिल्लाने की बारी -हिन्दी व्यंग्य कविता (hindi comic satire poem)

भ्रष्टाचार,

अत्याचार

और व्याभिचार को भी

जाति, भाषा और धर्म के नाम पर

बांटने की कोशिश जारी है,

अक्लमंद दिखाते हैं बहादुरी

अपने अपने हिस्से की शिकायतें उठाने में

शब्द खर्च करते

दूसरे की कमियां गिनाने में

हर हादसे पर देखते हैं बस यही कि

किसके चिल्लाने की बारी है।

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कला, मनोरंजन, शायरी, शेर, समाज, हिन्दी साहित्य

Friday, February 5, 2010

दूसरे की लोकप्रियता भुनाने का प्रयास अंतर्जाल पर न करें-हिन्दी आलेख (lokpriyata aur internet-hindi lekh)

तीन वर्ष से जारी हमारी निजी ‘चिट्ठाचर्चा’ में पहली बार दो ऐसे शब्दों से सामना हुआ जिनके अर्थ और भाव से हम आज तक परिचित नहीं थे। वह हैं ‘साइबर स्कवैटिंग’ और ‘टाइपो स्क्वैटिंग’। मुश्किल तो यही है कि भाई लोग अंग्रेजी हिज्जे नहीं लिखते जिससे उनका शुद्ध उच्चारण और हिन्दी अर्थ कहीं से पता करें। बहरहाल ‘साइबर स्कवैटिंग’ और ‘टाइपो स्क्वैटिंग’ को दूसरे के नाम की लोकप्रियता का उपयोग अपने हित में भुनाने के प्रयास को कह सकते हैं। ‘साइबर स्कवैटिंग’ का मतलब यह है कि किसी लोकप्रिय नाम या संस्था के आधार पर अपनी वेबसाईट या ब्लाग का पता और नाम तय करना। ‘टाईपो स्क्वैटिंग’ का मतलब है कि किसी लोकप्रिय नाम या संस्था के नाम से मिलता जुलता नाम रखना ताकि लोग भ्रमित होकर वहां आयें।
अंतर्जाल पर जब हमने लिखना शुरु किया तब ऐसा प्रयास किया था कि जिससे दूसरे मशहूर नामों का लाभ हमें मिले। तब इस बात का आभास नहीं था कि जिनको सामान्य जीवन को हम गलत समझते आये हैं वही हम करने जा रहे हैं। वैसे इस विषय पर हिन्दी ब्लाग जगत में विवाद भी चल रहा है पर इस पाठ का उससे कोई लेना देना नहीं है क्योंकि यह विषय अत्यंत व्यापक है और इस बारे में नये लेखकों के साथ आम लोगों तक भी यह संदेश पहुंचाना जरूरी है कि इस तरह लोकप्रियता का उपयोग विवाद पैदा कर सकता है।
आपने देखा होगा कि अनेक बार बाजारों में ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं जहां एक ही वस्तु की दुकाने होती हैं। जिनमें एक नाम ‘अमुक’ होता है तो दूसरा ‘न्यू अमुक’ कर लिखता है। अनेक शहरों में चाट, गजक, नमकीन तथा मिठाई की प्रसिद्ध दुकानें होती हैं और उसका उपयोग अन्य लोग ‘न्यू’ या अन्य शब्द जोड़कर करते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि किसी शहर की कोई दुकान अपनी चीज के कारण प्रसिद्ध है तो ठीक उसी नाम से दूसरे शहर में खुल जाती है। अनेक बार उपभोक्ता वहां जाते भी हैं और पूछने पर मालिक लोग उसी की शाखा होने का दावा करते हैं। अब यह अलग बात है कि दूसरे शहर जाने पर जब उस मशहूर दुकान वाले से पूछा जाता है तो इसका खंडन हो जाता है। कोटा की प्याज कचौड़ी मशहूर है और उसे बनाने वाले की दूसरे शहर में कोई दुकान नहीं है पर दूसरे शहरों के कुछ दुकानदार ऐसा दावा करते हैं।
दूसरे की लोकप्रियता भुनाने का यह प्रयास कोई नया नहीं है पर सचाई यह है कि यह कानूनी या नैतिक रूप से गलत न भी हो पर इससे स्वयं की छबि प्रभावित जरूर होती है-कई लोग तो नकलची तक कह देते हैं। ऐसा करते समय अगर हम यह न सोचें कि दूसरा क्या कहेगा पर यह तो देखें कि हम ऐसा करते हुए दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं? ऐसे में हमारी मेहनत ईमानदार होती है पर फिर भी उसमें नेकनीयती की कमी से हमारी छबि प्रभावित होती है।
जब हम अंतर्जाल पर लोकप्रिय नामों से जुड़ने का प्रयास कर रहे थे तब अपनी गलती का पता नहीं था, और एक वर्ष पहले तक ही यह आभासा हो पाया कि यहां ब्लाग के पते और नाम से अधिक ताकतवर तो उसमें लिखी गयी सामग्री है। पहले कुछ ब्लागों में नाम उपयोग किये तो कहीं पते भी लोकप्रिय नामों से लिये गये। बाद में उनमें से अनेक हटा लिये। इस लेखक के ब्लाग स्पाट और वर्डप्रेस पर बीस ब्लाग हैं जिनमें अब एक ब्लाग ऐसा बचा है भले ही वह एक लोकप्रिय नाम से मिलता है पर उसकी लोकप्रियता अब भी कम है। प्रसंगवश इसी लेखक ने अपने दो छद्म ब्लाग भी बनाये थे पर यह संयोग ही था कि वह उत्तरप्रदेश के एक प्रसिद्ध लेखक से उसके नाम और पते मेल खा गये। दरअसल वह नाम भी ऐसा ही था जिसे लेकर इस लेखक की नानी उसे बचपन में बुलाती थी। उन पर दो वर्ष से कुछ नहीं लिखा पर आठ दस पाठक उन पर आ ही जाते हैं-उन ब्लाग को लेकर मन में कोई गलती अनुभव भी नहीं होती। अलबत्ता अब तो यह सोच रहे हैं कि उस अपने एक ब्लाग स्पाट के ब्लाग का पता भी बदल दें क्योंकि आगे चलकर लोग यही कहेंगे कि देखो यह दूसरे की लोकप्रियता भुना रहा है।
मुख्य बात यह है कि अंतर्जाल पर अगर तात्कालिक उद्देश्य पूरे करना हों तो यह ठीक हो सकता है पर कालांतर में इसका कोई लाभ नहीं होता। जिनको लंबे समय तक टिकना है उन्हें तो इससे दूर ही रहना चाहिए। अगर आपने वेबसाईट या ब्लाग का नाम किसी दूसरे की लोकप्रियता को बनाया तो वह आपकी छबि को भी प्रभावित कर सकता है। दूसरी बात यह है कि हम जहां अपने शब्द लिखते हैं उनकी शक्ति का समझना जरूरी है। उस क्षेत्र को एच.टी.एम.एल कहा जाता है। हम जो शीर्षक, सामग्री या लेबल टैग लगाते हैं वह हमारे ब्लाग को सच इंजिनों में ले जाते हैं-एक तरह से शब्द ही चालक हैं अगर आपको किसी की लोकप्रियता का लाभ उठाना है तो बस अपने शीर्षक में ही उसका उपयोग करें कि दूसरे को यह न लगे कि आपने उसके नाम का उपयोग किया है। अगर वह आपका मित्र या जानपहचान वाला हो तो उसकी प्रशंसा में एक दो पाठ लिख दें-उसका नाम शीर्षक के साथ दें। याद रहे यहां किसी की निंदा या आलोचना करते हुए नाम लेने से बचें। ब्लाग का पता या नाम अगर किसी लोकप्रिय नाम पर लिखेंगे तो उससे अपना छबि को स्वतंत्र रूप से नहीं स्थापित कर पायेंगे। फिर उससे आप स्वयं ही संकीर्ण दायरे में यह सोचकर सिमट जायेंगे कि आप तो वैसे ही हिट हैं और नवीन प्रयोग और रचना नहीं कर पायेंगे।
आगरा का पेठा मशहूर है तो भारत की हिन्दी-अभिप्राय है कि सार्वज्निक महत्व के नामों को लेकर झगड़ा नहीं होता। इतना तो चल जाता है पर निजी लोकप्रिय नामों के उपयोग को लेकर अनेक जगह झगड़ा भी होता है। दूसरी बात यह भी है कि व्यक्ति की निजी लोकप्रियता को तभी भुनाने का प्रयास करें जब आपके पास हूबहू उस नाम के प्रयोग का पुख्ता आधार हो। अगर राजनीति, साहित्य, कला, फिल्म या अन्य किसी क्षेत्र में कोई प्रसिद्ध नाम है और उसका आप इस्तेमाल करते हैं तो वह कानून का मामला बन सकता है। अभी अंतर्जाल पर ऐसा कोई कानून है कि पता नहीं पर इसका आशय यह नहीं है कि चाहे किसी का नाम भी उपयेाग किया जा सकता है। ब्लाग या वेबसाईट का पता भले ही आसानी से मिल जाये पर किसी मामले पर अदालतें संज्ञान ले सकती हैं। एक बात याद रखिये संस्थान पंजीकृत होते हैं पर निजी लोकप्रियता नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि किसी भी लोकप्रिय व्यक्ति का नाम कोई उपयोग करने लगे-लोगों की निजी लोकप्रियता की रक्षा न्याय के दायरे में है भले ही उसके लिये कोई कानून न बना हो। संभवतः अदालतों में आत्मुग्धता का तर्क नहीं चले कि ‘यह तो हमें मिल गया, हमने हड़पा नहीं है’। एक प्रसिद्ध नेता के नाम पर बनी वेबसाईट को गलत ठहराया जा चुका है-ऐसा उसी लेख में पढ़ने को मिला जिसमें ‘साइबर स्कवैटिंग’ और ‘टाइपो स्क्वैटिंग’ मिले।
कहने का अभिप्राय यह है कि जितना हो सके अपनी लोकप्रियता अपने पाठों से जुटाने का प्रयास करें। अपने ब्लाग और वेबसाईटों के पतों में लोकप्रिय नामों का उपयोग करने से क्या लाभ? यह काम तो एक पाठ से किया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि अधिक से अधिक सकारात्मक लेखन करें तो स्वतः ही अंतर्जाल पर आपकी लोकप्रियता बढ़ेगी। दुकानों का बोर्ड तो लोग इसलिये बनाते हैं ताकि ग्राहक उसे देखकर आयें। इस प्रयास में होता यह है कि अच्छी चीज बनायें या बेचें पर फिर भी उनकी छबि नकलची की ही होती है। लोग कमाने के लिये झेलते हैं क्योंकि वह रोज बोर्ड बदल नहीं सकते जबकि ब्लाग या वेबसाईट पर तो एक नहीं हजारों बोर्ड शीर्षक बनाकर लगाये जा सकते हैं। इसलिये यहां दूसरे की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास कर अपनी छबि न बिगाड़े तो ही अच्छा! कानून यह नैतिकता के प्रश्न से बड़ी बात यह है कि हम अपनी छबि वैसे ही बनायें जैसी कि दूसरों से अपेक्षा करते हैं।
संदर्भ के लिये यह दिलचस्प पाठ अवश्य पढ़ें।
http://nilofer73.blogspot.com/2010/02/blog-post.html


कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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