दिन भर करें आदर्श की बात, शराब के जाम टकराते पूरी रात।
‘दीपकबापू’ चरित्र के वकील, सही दाम मिले तो देते हैं लात।।
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बदलने निकले समाज की तस्वीर, चंदे बटोरते हुए शब्दों के वीर।
‘दीपकबापू’ हिसाब देने से सदा बचते, तख्तों पर जाकर बैठते पीर।।
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दिन में हमदर्दी के नारे सेवक बांटते, रात आपस में जाम टकराते हैं।
‘दीपकबापू’ सेवा बना दी बड़ी कला, चंदे की चाल से लोग चकराते हैं।
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सड़क पर घूम रहा हादसे का डर, अक्ल के अंधे छोड़ चुके घर।
‘दीपकबापू’ अक्ल चौपाये जैसी हुई, चौपाये पर सवार हुए निडर।।
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दिखाने की कर रहे सभी भक्ति, संसार के सामानों में फंसी आसक्ति।
‘दीपकबापू’ बिखरा मन लिये फिरते, खाली बाहें नचाकर दिखाते शक्ति।।
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अपने घर के असुर को भी देव माने, बाहर भले मानस पर कसते ताने।
‘दीपकबापू’ अपराध से फेरें आंख, जब तक आते अपने भंडार में दाने।।
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हर कोई अपने ही काम में लगा है, काम के लिये ही हर कोई सगा है।
‘दीपकबापू’ स्वार्थ में बिताते जीवन, हर कोई पाखंड में सोता जगा है।।
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