आकाश से गिरे बड़ी चोट का डर है, पाप बढ़ाये चिंता भले पक्का घर है।
‘दीपकबापू’ भीड़ में जाकर एकांत खोते, इंसानी दिल वहां नफरत से तर हैं।।
----
मिट्टी का इंसान लोहे का यंत्र है बना बिजली की तारों से चरित्र है तना।
‘दीपकबापू’ अपना सच स्वयं से छिपाता, सबकी छवि पर कुहरा छाया है घना।।
---
विज्ञापन से भद्दे चरित्र भी चमकाये जाते, श्रृगार रस से ग्राहक धमकाये जाते।
‘दीपकबापू’ सौदागरों के मायाजाल में फंसे, रुदन से भी हंसते कमाये जाते।।
----
क्या दोष दें जो सड़क से हुए महलवासी, वेशभूषा चमकी पर नीयत रही बासी।
‘दीपकबापू’ जुबानी यकीन उन पर दिखाते, झूठ बेच कमाते जो दौलत खासी।।
---
चंदन जैसी सुंगध किसी इत्र में नहीं है, सुग्रीव जैसा जैसा कोई मित्र नहीं है।
शरीर में भर जाते ढेर विकार, ‘दीपकबापू’ पावन हृदय जैसा केई चित्र नहीं है।।
-------
कोई ठेले कोई दुकान से करता कमाई, देखना यह किसके साथ है सच्चाई।
‘दीपकबापू’ किसी को छोटा बड़ा न समझें, सबके हाथ ने भाग्य रेखा पाई।।
---