दुनियां की भलाई का ठेका लिया
अपना नहीं कोई ठिकाना है।
बेईमानों से जंग में
हों नहीं पर ईमानदार दिखाना है।
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कभी दूर कभी पास
रिश्तों का यही अफसाना है।
कभी गम कभी आस
ज़िंदगी किश्तों में जाना है।
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इंसानों के अरमानों की
कदम कदम पर गिरी लाश है।
फिर भी सभी को
ख्वाबी जन्नत की तलाश है।
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शहर की भीड़ में
अपनों की तलाश करते हैं।
रोज मिलती पीड़ में
सपनों की तलाश करते हैं।
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बस्तियां उजाड कर बड़े शहर बसाये,
हवा पानी की धारा में पत्थर फंसाये।
‘दीपकबापू’ पेड़ों की जगह महल देखते
लोहद्वारों पर बिछा सन्नाटा पांव पसराये।
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सिक्कों में बिके अच्छा हो या गंदा है।
धन मिले खरा वरना इंसान मंदा है।।
‘दीपकबापू’ भलाई का काम मिल जाये
या कत्ल का सब यहां धंधा है।।
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आओ उनके गले मिलने पर
जल्दी जल्दी जश्न मना लें।
पता नहीं फिर कब वह
अपने हाथों को तलवारें थमा दें।
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