Saturday, October 25, 2014

अक्ल की रौशनी-हिन्दी कविता(akla ki roshani-hindi poem)




अंधेरी राह पर
रोशनी के बिना
चल सकते हैं हम।

मुश्किल है अंधेरे ख्यालों से
जिंदगी का निभना
जब लोग अपनी दिल की सोच में
 पालते महंगे सपने
अक्ल की रौशनी कर देते कम।

कहें दीपक बापू मतलब की
चुकाओ कीमत
वफादार बहुत मिल जाते हैं,
सिक्के बांटो तो
लोग समूह में प्रशस्ति गान गाते हैं,
जिंदगी के आनंददायक क्षण
बीत जाते भीड़ में हंसते हुए
आपत्तियों बनती जब मेहमान
अकेले में आखें हो जाती नम,
जिंदगी में जीतने की चाहत
जिनको होती है
वह किसी की तरफ
आंर्त भाव से नहीं निहारते
लक्ष्य की तरफ बढ़ाते
अकेले ही अपने कदम।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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Tuesday, October 21, 2014

धन तेरस पर मन में रस बनायें-दीपावली पर हिन्दी चिंत्तन लेख(dhane teras pa mein ras banaen-hindu thought article on dipawali,diwali new post)



            आज पूरे देश में धनतेरस का पर्व मनाया जा रहा है। भारतीय धर्मों को मानने वाले लोग आज के दिन  दीपावली की पूजा के लिये सामान आदि खरीदते हैं।  इस दिन बाज़ार में भीड़ रहती है तो यह भी सच है कि स्टील, पीतल, सोने तथा अन्य धातुओं से निर्मित सामान भी अन्य दिनों की अपेक्षा अत्यंत महंगे हो जाते है। यही  कारण  है कि वर्ष के किसी भी दिन की अपेक्षा धनतेरस के दिन सामान्य व्यापार में सर्वाधिक आय वाला दिन होता है।  खेरिज व्यापार में सामान्य दिनों की अपेक्षा चार से दस गुना का विक्रय होता है। यह अलग बात है कि दिपावली गुजरते हुए तत्काल मंदी भी आ जाती है।
            समय के साथ महंगाई बढ़ी तो धीमे धीमे धनतेरस के दिन खरीददारी एक औपचारिकता बन कर रह गयी है।  अर्थशास्त्र की दृष्टि से भारत में धन का असमान वितरण एक बहुत भारी समस्या है, यह हमने आज से तीस बरस पहले पढ़ा था।  अर्थशास्त्र के विद्यार्थी को समाज का भी ज्ञान रखना चाहिये और इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भले ही हम शहरी क्षेत्रों में धनी लोगों की संख्या बढ़ने का दृश्य देखकर प्रसन्न हों पर सच यह है कि उसके अनुपात में अल्प धनियों की संख्या बढ़ी है।  जहां धातुओं के बड़े सामानों को खरीदने वाले दिखते हैं वहां उनका दाम पूछकर उनसे मुंह फेरने वालों की संख्या ज्यादा होती है। अनेक लोग तो स्टील की टंकी का दाम पूछकर एक चम्मच खरीद कर ही धनतेरस मना लेते हैं। जहां कथित आर्थिक विकास ने अनेक ऐसे लोगों को धनवान बना दिया कि जिनके पास स्टील की कटोरी खरीदने की ताकत नहीं थी अपनी वर्तमान भारी भरकम आये के सामने सोने का कड़ा भी सस्ता लगता है तो वहीं अनेक लोग जो मध्यम वर्ग के थे अब स्वयं को निम्न वर्ग का अनुभव करने लगे हैं। जिनके लिये धनतेरस का दिन औपचारिकता से ही बीतता है।
            इस तरह की चर्चा राजसी विषय है मगर हम  सात्विक दृष्टि से विचार करें तो  इस संसार में सहज जीवन के लिये हृदय में प्रसन्नता होना ही सच्चा सुख है।  धन कितना है, यह महत्वपूर्ण नहीं है हम उसका उपयोग कितना करते हैं यह बात विचारणीय है।  तिजोरियों में पड़ा या बैंक खातों में दर्ज धन मन को प्रसन्न कर सकता है पर उसका उपयोग न करने से वह एक कूड़े के समान है।  दूसरी बात यह कि धन अपने उपयोग के लिये खर्च करने से क्षणिक आनंद मिलता है पर जरूरतमंद की सहायता निष्काम भाव से करने से हृदय में जो उच्च भाव आता है उसका कोई मोल नहीं है।  दूसरी बात यह कि कि धन और पानी एक समान है।  रुके रहे तो सड़ जाते हैं या फिर निकलने का मार्ग बनाते हैं।  धन आता है तो उसके जाने का मार्ग भी बनाते रहना चाहिये वरना वह सड़े हुए पानी की तरह स्वयं के लिये भी कष्टदायक हो जाता है। इंसान जब स्वेच्छा से धन नहीं निकालता तो प्रकृतिक कारण उसे इसके लिये विवश करते हैं कि वह अपनी जेब खोले।
            अपने धन का उपयोग का स्वयं की आवश्यकताओं के लिये सभी करते हैं पर जो दूसरे की आवश्यकता पर उसे देते हैं वह दान या सहायता कहलाता है।  जिन लोगों को धनतेरस के दिन कमाई होती है वह स्वयं के लिये कोई खरीददारी नहीं कर पाते।  मिट्टी के दीपक, फटाखे तथा पूजा का सामान बेचने के लिये फेरी लगाने वाले तो इस प्रयास में रहते हैं कि सामान्य दिनों की अपेंक्षा उनको अधिक मजदूरी मिल जाये तो शायद अपनी अतिरिक्त आवश्यकतायें पूरी हों जायें।  उनकी अपेक्षायें कितनी पूरी होती हैं यह अलग बात है पर निजी क्षेत्र में मजदूरी करने वालों के लिये भी दीपावली का पर्व आशा लेकर आता है।  इस तरह धनतेरस और दीपावली सभी वर्गों के लिये खरीद और बेचने का अवसर समान रूप से ले आता है।
            इस समय मौसम समशीतोष्ण हो जाता है जिससे शीतल हवायें बहते हुए देह और हृदय को प्रसन्न करती हैं। यही तत्व दीपावली को अधिक आनंददायक बना देता है।  हम अपने सभी मित्र ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठकों हार्दिक बधाई। जय श्रीराम, जय श्रीकृष्ण।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Wednesday, October 8, 2014

काले धंधे धवल छवि-हिन्दी कविता(kale dhandhe dhawal chhawi-hindi kavita)




समाज के कल्याण का
काम इतना सरल है
सभी उसमें चले जाते हैं।

इसमें ढेर सारा मिलता दाम
साथ में मुफ्त सम्मान
विरोधियों के दिल
गले जाते हैं।

कहें दीपक बापू घर में
जिनके नहीं थे दाने,
उन्होंने ही बड़े बड़े होटल
और अस्पताल ताने,
प्रचार में बनाई काले धंधे के
व्यापारियों ने धवल छवि,
कथाकार लिखते उनकी
महान जीवन गाथा
छंद रच रहे कवि,
अज्ञानी उसमें फंसते हैं,
ज्ञानी मौन होकर हंसते हैं,
खाली थी जिनकी जेब
जुगाड़ से ताकतवर बने
सोने के सिक्के उनके
घर की तरफ चले आते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Thursday, October 2, 2014

इंसानी मन के अंतर्द्वंद्व-हिन्दी कविता(iansani man ki antardwandwa-hindi poem)



बहते जल में लहरे
उठती हैं तेजी से
फिर थम जाती हैं।

पर्वत पर गर्मी में
बहती  नदी पानी लेकर कलकल
सर्दी में सफेद चादर
जम जाती है।

कहें दीपक इंसान का मन
कोलाहल के बीच ढूंढता
अपने लक्ष्य के लिये साथी
दिल बहलाने के लिये
भीड़ जुटती
फिर छोड़ देती अकेला
हमदर्द बने या हमसफर
यह सोच लोगों में
कम ही आती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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