Thursday, June 30, 2016

स्वयं पर अपना अत्याचार-हिन्दी व्यंग्य कविता (Swyan par apna Atyachar-Hindi Satire Poem)


इंसान के दिल में
हर पल भय का
भूत समाया रहता।

बेचैनी का दरिया
देह की रक्त शिराओं में
हर पल बहता।

कहें दीपकबापू ज्ञान से
भागता पूरा ज़माना
स्वयं पर अपना अत्याचार
हर पल सहता।
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Wednesday, June 15, 2016

यही शर्त होती है-हिन्दी व्यंग्य कविता(Yahi Shart Hoti hai-HindiSatirePoem)


मुश्किल सवाल न करना
महफिल में आने की
यही शर्त होती है।

अपने गिले शिकवे दूर रखना
सद्भाव दिखाने के लिए दिल से
यही शर्त होती है।

कहें दीपकबापू अक्ल से
चला रहे जमाना
डरपोक लोग
बात करते जंग की
छिपने के लिये महल मिले
यही शर्त होती है।
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Wednesday, June 1, 2016

किताबी कीड़े चेतना लाने में लगे हैं-दीपकबापूवाणी (Kitabi kide chetan lane lage-DeepakBapuWani)

बुद्धि से अपढ़ भी मशहूर हो जाते, ज्ञानहीन शिक्षित अक्षर में चूर हो जाते।
‘दीपकबापू’ अपने लिये सब पा लिया, वही घमंड के सवार सबसे दूर हो जाते।।
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दंगल में कभी पहलवान जीते कभी हारे, वहां खड़े दर्शक मनोरंजन के मारे।
‘दीपकबापू’ खरीद लेते हैं कभी जीत भी, जश्न मनाते वह भी जो कुश्ती हारे।।
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किताबी कीड़े चेतना लाने में लगे हैं, धरती पर स्वर्ग लाने के लिये जगे है।
‘दीपकबापू’ सारी सुविधायें लपक ली, मददगार बेबसों से चंदा बटोर ठगे हैं।।
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मदहोशी में सभी लोग होते बदहाल, होश में भी चल जाते टेड़ी चाल।
‘दीपकबापू’ कर्म की चिंता नहीं करते, नाकामी पर बनायें भाग्य की ढाल।।
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हृदय की पीड़ा सभी स्वयं जाने, भीड़ में ढूंढे नहीं मिलते कभी सयाने।
बुद्धिमान छोड़ देते वह जगह, ‘दीपकबापू’ जहां पत्थर जैसे तर्क ताने।।
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उगते सूरज से उठती हृदय में आशा, डूबते हुए आये अंधेरे से निराशा।
सब्र से पाया मन में आंनद का हीरा, ‘दीपकबापू’ जब परिश्रम से तराशा।।
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अनेक रूप रचते आत्मप्रचार के लिये, छद्म चरित्रवान हर रस पिये।
‘दीपकबापू’ मन में पाले धन का लालच, हाथ में त्याग का झंडा लिये।।
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झूलते चंवरों के बीच देखे कई सिर, इतिहास ने जब दबोचा नहीं दिखे फिर।
‘दीपकबापू’ इतराते रहे सिंहासन पर, दुश्मनों की नज़रों से वही ताज गये घिर।।
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इश्क की कहानी से बाज़ार भरा है, कहीं माशुका कहीं आशिक मरा है।
‘दीपकबापू’ सपने के पांव नहीं होते, आखों के सामने खड़ा सच डरा है।।
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हर पग पर मिलते विषय के व्यापारी, दाम के हिसाब से निभाते यारी।
‘दीपकबापू’ कभी निभाते नहीं स्वयं, दूसरे से मुफ्त चाहें वफादारी।।
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लोगों की भीड़ रोजरोग की शिकार, सुख के नाम लील रहे विकार।
‘दीपकबापू’ चेहरे पर पोत लेते सफेदी, बुद्धि में कभी लाते नहीं निखार।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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