Wednesday, December 15, 2010

भरोसा जितना कीमती, धोखा उतना ही महंगा-हिन्दी व्यंग्य शायरी (keemti bharosa, mahanga dhokha-hindi vyangya shayari)

जैसे जैसे लोगों के चेहरे से
नकाब हट रहे हैं,
उनकी खतरनाक असलियत से
ईमानदारी के बादल छंट रहे हैं।
कमबख्त,
भरोसा भी क्या चीज है,
जिसने निभाया वह तो नाचीज है,
मगर धोखेबाजों के दिन
कारागृह की जगह महलों में कट रहे हैं।
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भरोसा जितना कीमती होता
धोखा उतना ही महंगा हो जाता है।
ईमानदारी का दाम कौन जाने
यहां हर बेईमान राजा हो जाता है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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फतवा फिक्सिंग-हिन्दी व्यंग्य (fatva fixing-hindi vyangya)

पाकिस्तान के एक मौलवी ने बिग बॉस धारावाहिक में काम कर रही अपने देश की एक अभिनेत्री वीना मलिक की गतिविधियों का इस्लाम विरोधी बताया है। उन्होंने वीना मालिक को इस्लाम के लिये बहुत बड़ा खतरनाक घोषित कर दिया है। अब यह तो इस्लाम से जुड़े व्यंग्यगकार ही यह विषय उठा सकते हैं कि एक अभिनेत्री को उसके अश्लील अभिनय से 14 सौ वर्ष पुराने इस्लाम को खतरा बताकर उसे शक्तिमूर्ति कह रहे हैं या अपने धर्म को कमजोर बता रहे हैं। उनके इस बयान का विरोध उनके देश में ही किया गया है और एक आदमी ने तो सवाल उठाया है कि मौलवी को आखिर बिग बॉस देखने की फुर्सत मिल कैसे जाती है? इसे यूं भी कहा जा सकता है कि आखिर वह मौलवी अगर धार्मिक प्रवृत्ति के हैं तो ऐसे धारावाहिक देखते ही क्यों हैं?
यह प्रश्न काफी जोरदार है और धर्म के नाम पर फतवे या निर्देश जारी करने वाले सभी धर्म के ठेकेदारों से पूछा जाना चाहिए कि वह मनोरंजन के नाम पर हो रही गतिविधियों को देखते ही क्यों हैं? अगर नहीं देखते तो उसके बारे में फैसला कैसे करते हैं? केवल सुनकर! तब तो उनको कान का कच्चा और बात का बच्चा कहना चाहिए।
बात अगर पाकिस्तानी मौलवी की चली है तो वहां के क्रिकेटरों की भी चर्चा हो जाती है जिन पर फिक्सिंग का लेबल चिपका हुआ है। हमें तो वह मौलवी भी फिक्सर दिखाई दे रहा है। उसके इस फतवे पर पाकिस्तान की ही एक महिला ने सवाल उठाया है कि जब पारदर्शी कपड़े पहनकर पाकिस्तानी के टीवी चैनलों पर नाचती है तब ऐसे फतवे क्यों नहंीं जारी हुए?
अब इसका जवाब तो यही हो सकता है कि बिग बॉस को पाकिस्तान तथा भारत में लोकप्रिय बनाये रखने के प्रयास में शायद वह मौलवी ने फिक्स फतवा जारी किया है। सच तो यह है कि बिग बॉस को निरंतर चर्चा में बनाये रखने के लिये विवादों को फिक्स किया गया है। इतना ही नहीं जिस वीना मलिक को इसमें शामिल किया गया उससे पहले एक पाकिस्तानी फिक्सर क्रिकेटर के खिलाफ उससे बयान दिलाया गया जो एक फिक्सिंग प्रकरण में ताजा ताजा फंसा था। बस, हो गयी वीना मलिक हिट! सप्ताह भी नहीं बीता कि उसके बिग बॉस में आने की खबर आ गयी। ऐसे में हमने यह लिखा था कि पाकिस्तानी क्रिकेटर इंग्लैंड पुलिस के हाथ फिक्सिंग में पकड़े गये तो संभव है कि पूरा घटनाक्रम ही फिक्स हो सकता है। इस प्रकरण में लोगों को सत्य लगे इसलिये इंग्लैंड की गोरी पुलिस को फिक्स किया गया होगा क्योंकि भारत में गोरों को अभी तक ईमानदार माना जाता है। हमें इसी प्रकरण के बाद लगा कि गोरी पुलिस ने ही अपनी छवि का लाभ उठाने के लिये यह प्रकरण फिक्स किया होगा-शायद केवल वीना मलिक को बिग बॉस लाने के लिये यह प्रकरण रचा गया यही कारण है कि बाद में यह पूरा मामला ही टांय टांय फिस्स हो गया।
क्रिकेट, मनोरंजन, व्यापार तथा अपराध जगत का ऐसा गठजोड़ है कि उनमें सक्रिय दलाल कोई प्रकरण किसी भी आदमी से कुछ भी फिक्स कर सकता है। अरे, बड़े बड़े दिग्गज उनके सामने बिकने के लिये तैयार हैं तब एक मौलवी भला कैसे बच सकता है? संभव है मौलवी ने यह बयान इस इरादे से दिया हो कि कि कहीं इस फतवे से मिले प्रचार की वजह से आर्थिक, अपराधिक, मनोरंजन तथा धर्म के आधार पर संयुक्त उद्यम बने इस वैश्विक गठजोड़ से शायद कुछ फायदा हो? बिग बॉस की तो फिल्म पिट रही है। इसका प्रचार अधिक है पर लोकप्रियत कम! इस वैश्विक गठजोड़ के लिये यह एक चिंता की बात हो सकती है। एक बात याद रखें कि यह कार्यक्रम एक अंतर्राष्ट्रीय शैली का है और भारत पाकिस्तान में प्रसारित कर यहां के लोगों को मनोरंजन में व्यस्त किया जा रहा है ताकि उनका ध्यान अपने शिखर पुरुषों के नकारापन की तरफ न जाये। दोनों ही देशों की अंदरूनी हालतों पर नज़र डालें तो संतोषप्रद नहीं लगते-अगर कहें कि डरावने हैं तो भी गलत नहीं है।
मौलवी ने इस्लाम की परंपरागत शैली की आड़ ली पर आजकल यह एक फैशन हो गया है कि चाहे जहां विरोध करना हो वहीं धर्म की आड़ लो। मौलवी के फिक्स होने का संदेह यूं भी होता है कि भारतीय चैनलों पर इसे पर्याप्त स्थान दिया गया या कहें कि विज्ञापनों के बीच प्रसारण के लिये उनको एक संवदेनशील सामग्री मिल गयी। वैसे हम लोग यहां सुनते हैं कि पाकिस्तान भारतीय चैनलों पर प्रतिबंध लगा चुका है पर बिग बॉस वहां दिखने का मतलब यह है कि वह प्रतिबंध भी एक तरह से फिक्स है। हमें पहले से ही शक है कि पाकिस्तान के फिक्स शासकों के बूते की यह बात नहीं है कि वह भारतीय चैनलों पर प्रतिबंध लगा सकें। संभवतः वह ऐसी घोषणाऐं भी इसलिये फिक्स करते हैं कि भारतीय टीवी चैनल इसके माध्यम से अपने देश के लोगों पर देशभक्ति का भाव फिक्स कर अपना विज्ञापन समय अच्छी तरह पास करें।
आज के समय कौनसी कंपनी कहां कैसे काम कर रही है इसका पता नहंी चलता! ऐसे में अगर भारतीय कंपनियों या उनके दलालों का कोई अस्तित्व पाकिस्तान में न हो यह मानना संभव नहीं है। यही कंपनियां भारत में में चैनलों को तो उधर पाकिस्तान में उसके शिखर पुरुषों को मदद करती हैं। विश्व में सक्रिय मनोरंजन के दलालों को लगा कि भारत में किसी मौलवी को पटाया नहीं जा सकता या उससे कोई फायदा नहीं इसलिये पाकिस्तान में कोई मौलवी ढूंढ लें। इससे धर्म और देशभक्ति के भाव से बिग बॉस कार्यक्रम का विज्ञापन हो जायेगा। अब अगर वह इस्लाम के मौलवी हैं तो यह बात निश्चित है कि कोई दूसरा मौलवी उसका विरोध करने का खतरा नहीं उठायेगा। कम से कम भारत में तो यह संभव नहीं है खासतौर से तब जब अन्य धर्म के ठेकेदार भी इस कार्यक्रम को पंसद नहीं कर रहे। पसंद तो हम भी नहीं करते पर मालुम है कि देश में मूर्खों की कमी नहीं है और उनको ऐसे ही कार्यक्रमों में फिक्स कर अन्य लोगों को उनका शिकार होने से बचाया जा सकता है।
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Thursday, December 9, 2010

वाराणसी में शीतला घाट पर विस्फोटः ऐसे हादसे दिल को तकलीफ देते हैं-हिन्दी लेख (varanasi mein sheetla ghat par bam visfot: hadse dil ko taklif hotee hai-hindi lekh)

बनारस (वाराणसी) में गंगा नदी के किनारे शीतला घाट पर परंपरागत आरती के दौरान एक विस्फोट होने से अनेक दिनों से देश में अभी तक थम चुकी आतंकवादी गतिविधियों के पुनः सक्रिय होने की पुष्टि होती है। स्पष्टतः इस तरह के विस्फोट पेशेवर आतंकवादी अपने आकाओं के कहने पर करते हैं। ऐसे विस्फोटों में आम इंसान घायल होने के साथ ही मरते भी हैं। यह देखकर कितना भी आदमी कड़ा क्यों न हो उसका दिल बैठ ही जाता है।
वैसे तो आतंकवादी संगठनों के मसीहा अपने अभियान के लिये बहुत बड़ी बड़ी बातें करते हैं। अपनी जाति, भाषा, धर्म या वर्ग के लिये बड़े बड़े दुश्मनों का नाम लेते हैं। आरोप लगाते हैं कि उनके विरोधी समूहों के बड़े लोग उनके समूह के साथ अन्याय करते हैं पर जब आक्रमण करते हैं तो वह उन आम इंसानों पर हमला करते हैं जो स्वयं ही लाचार तथा कमजोर होते हैं। अपने काम में व्यस्त या राह चलने पर असावधान होते हैं। उनको लगता नहीं है कि कोई उन पर हमला करेगा। मगर प्रतीकात्मक रूप से प्रचार के लिये ऐसे विस्फोटों में वही आम आदमी निशाना बनता है जिनसे आंतकवादियों को प्रत्यक्ष कुछ प्राप्त नहीं होता, अलबत्ता अप्रत्यक्ष रूप से वह अपने प्रायोजकों को प्रसन्न करते हैं।
इन विस्फोटों का क्या मतलब हो सकता है? यह अभी पता नहीं। कुछ दिन बाद जांच एजेंसियां इसके बारे में बतायेंगी। फिर कभी कभी अपराधियों के पकड़े जाने की जानकारी भी आ सकती है। उनका भी जाति, धर्म, भाषा या वर्ग देखकर प्रचार माध्यम बतायेंगे कि शायद जल्दबाजी में सुरक्षा कर्मियों ने अपने ऊपर आये दबाव को कम करने के लिये किसी मासूम को पकड़ा है।
एक बात निश्चित है कि इस तरह के बमविस्फोटों से किसी को कुछ हासिल नहीं होता, उल्टे करने वालों के समूह बदनाम होते हैं। तब वह ऐसा क्या करते हैं?
सीधी बात यह है कि इसके पीछे कोई अर्थशास्त्र होना चाहिए। धर्म, जाति, भाषा या वर्ग के नाम पर ऐसे हमले करने का तर्क समझ में नहीं आता। अपराध विशेषज्ञ मानते हैं कि जड़, जमीन तथा जोरू के लिये ही अपराध होता है। यह जज़्बात या आस्था की बात हमारे देश में अब जोड़े जाने लगी है। आतंकवादी हमलों में बार बार आर्थिक प्रबंधकों के होने की बात कही जाती है पर आज तक कोई ऐसा आदमी पकड़ा नहीं गया जो पैसा देता है। यह पैसा कहीं न कहीं प्रशासन तथा सुरक्षा एजेंसियों का ध्यान भटकाकर अपने धंधा चलाने के लिये इन आतंकवादियों को दिया जाता है। एक बात समझ लेना चाहिए कि एक शहर में एक स्थान पर हुए विस्फोट से पूरे देश के प्रशासन को सतर्कता बरतनी पड़ती है। ऐसे में उसका ध्यान केवल सुरक्षा पर ही चला जाता है तब संभव है दूसरे धंधेबाज अपना काम कर लेते हों।
फिर आज के अर्थयुग में तो यह संभव ही नहीं है कि बिना पैसा लिये आतंकवादी अपना धंधा करते हों। अपनी जाति, धर्म, समाज, भाषा तथा वर्ग के उद्धार की बात करते हुए जो हथियार चलाने या विस्फोट करने की बात करते हैं वह सरासर झूठे हैं। उनकी मक्कारी को हम तभी समझ सकते हैं जब आत्ममंथन करें। क्या हम में से कोई ऐसा है जो बिना पैसे लिये अपने धर्म, जाति, भाषा, तथा समाज के लिये काम करे। संभव है हम किसी कला में शौक रखते हों तो भी मुफ्त में अपने दायरों के रहकर उसमें काम करते हैं। अगर कहीं उससे समाज को लाभ देने की बात आये तो धन की चाहत हम छोड़ नहीं सकते।
जब इस तरह की घटनाओं पर आम आदमी घायल होता या मरता है तो दुःख होता है। वैसे भी आजकल आम इंसान बहुत सारी परेशानियों से जूझता है। ऐसे में कुछ लोग अपने मन को नयापन देने के लिये धार्मिक तथा सार्वजनिक स्थानों पर जाते हैं। इसके लिये अपनी सामर्थ्य से पैसा भी खर्च करते हैं जो कि उन्होंने बड़ी मेहनत से जुटाया होता है। तब उनके साथ ऐसे हादसे दिल को बड़ी तकलीफ देते हैं।
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Monday, November 22, 2010

मन को बहलाना बाकी है-हिन्दी शायरी (man ko bahlana baki hai-hindi shayari)

जलता है देश जलने दो,
मरता है गरीब मरने दो,
कुछ घरों में समान भरना अभी बाकी है,
दौलत और शौहरत के सौदागरों के
इशारे पर नाच रहा है पूरा जम़ाना,
मरता है भूखा उसे मरने दो
मन को बहलाना बाकी है।
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रोटी से मन नहीं भरता
पर मनोरंजन से उनकी
चुपड़ी रोटियां बन जाती है,
भूख की बात करो तो
उनकी भौहें तन जाती हैं।
अपनी जुबां से चाहे जितना दें आसरा,
अपने हाथों से भला करने के नाम पर
उनकी उंगलियां बर्फ की तरह जम जाती हैं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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छवि चमकाने की कोशिश-हिन्दी शायरी (chhavi chamkane ki koshish-hindi shayari)

अपनी कमीज़ वह दूसरे से
अधिक उजियारी जरूर करेंगे,
दौलत के साबुन से अपनी
छवि चमकाने की कोशिश में
चरित्र पर दाग भले ही लग जाये
मगर ज़माने में
अपनी गरीब छवि वह दूर करेंगे।
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देशभक्ति की बात करते हुए
अब सभी को डर लगता है
क्योंकि पता नहीं कब और
कौन गद्दार सुन रहा हो,
बिक रहे हैं पहरेदार सरेआम
बचाने निकले जब हम देश को
नज़र न पड़ जाये किसी गद्दार की
लिये ईमानदारी की शपथ जो
अपना शिकार चुन रहा हो।
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अपनी नज़र-हिन्दी शायरी (apni nazar-hindi shayari

ग़मों को बोझ उठाते रहे उम्र भर
फिर भी कभी चंद पल हंस लिये,
अपने सफर पर डालते हैं
जब अपनी नज़र
लगता है कि बस वही  पल हमने जिये।
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कौन उन कमबख्तों का दिल जलाये
जो अपनी चिंताओं में खाक हुए हैं,
खड़े हैं जो बुत हमारे सामने
क्या उनसे बात करें,
जो चल रहे दूसरे के इशारे पर
अपनी अक्ल के साथ
जिनके ख्याल भी राख हुए हैं।
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Sunday, November 7, 2010

साभार कार्यक्रम-हिन्दी व्यंग्य (sabhar karyakram-hindi vyangya

धरती पर विचरने वाला सौर मंडल! कल जब इस विषय पर लेख लिखा था तब यह स्वयं को ही समझ में नहीं आ रहा था कि यह चिंत्तन है कि व्यंग्य! हमें लगने लगा कि यह किसी की समझ में नहीं आयेगा, क्योंकि उस समय दिमाग सोचने पर अधिक काम कर रहा था लिखने में कम! मगर ऐसे में उस पर आई एक टिप्पणी से यह साफ हो गया कि जिन लोगों के लिये लिखा गया उनको समझ में आ गया।
मुश्किल यह है कि चिंत्तन लिखने बैठते हैं तब किसी विषय पर तीव्र कटाक्ष करने की इच्छा होती है, तब कुछ न कुछ व्यंग्यात्मक हो ही जाता है। जब व्यंग्य लिखने बैठते हैं तो अपने विषय से संबंधित कुछ गंभीर चर्चा हो ही जाती है और वह चिंत्तन दिखने लगता है।
ब्लाग पर लिखते हुए पहले हम यह सोचते थे कि दोनों भाव एक साथ न लायें पर जब समाचार चैनलों को समाचार से अधिक खेल, हास्य तथा मनोरंजन से संबंधित अन्य चैनलों की सामग्री प्रसारित करते देखते हैं तो सोचते हैं क्यों न दोनों ही विद्यायें एक साथ चलने दी जायें। हम उनकी तरह धन तो नहीं कमा सकते पर उनकी शैली अपनाने में क्या बुराई है? इधर अमेरिका के राष्ट्रपति का भारत आगमन क्या हुआ? सारे चैनलों के लिये यही एक खबर बन गयी है। कब किधर जा रहे हैं, आ रहे हैं और खा रहे हैं, यह हर पल बताया जा रहा है। ऐसा लगता है कि बाकी पूरा देश ठहर गया है, कहीं सनसनी नहीं फैल रही। कहीं हास्य नहंी हो रहा है। कहीं खेल नहीं चल रहा है।
हैरानी होती है जिस क्रिकेट से यही प्रचार माध्यम अपनी सामग्री जुटा रहे थे उसके टेस्ट मैच-यह भारत और न्यूजीलैंड के बीच अहमदाबाद में चल रहा है-की खबर से मुंह फेरे बैठे हैं। कल इनका कथित महानायक या भगवान चालीस रन बनाकर आउट हो गया जबकि यह उससे पचासवें शतक की आशा कर रहे थे। हो सकता है कि उस महानायक या भगवान ने सोचा हो कि क्यों इनके अस्थाई भगवान यानि अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने खड़ा होकर धर्मसंकट खड़ा किया जाये। इस धरती पर विचरने वाले सौर मंडल-पूंजीपति, धार्मिक ठेकेदार, अराजक तत्व तथा उनके दलाल-के लिये स्वर्ग है अमेरिका। वैश्वीकरण ने पूरी दुनियां को एक राष्ट्र बना दिया है अमेरिका! इसलिये अमेरिका के राष्ट्रपति को अब विश्व का दबंग कहकर प्रचारित किया जा रहा है। बाकी राष्ट्रों के प्रमुख क्या हैं, यह वही जाने और उनके प्रचार माध्यम! ऐसे में क्रिकेट के भगवान या महानायक ने चालीस रन पर अपनी पारी निपटाकर प्रचार माध्यमों को संकट से बचा लिया। अगर वह शतक बनाता तो संभव है टीवी चैनल और अखबार में संकट पैदा हो जाता कि किसको उस दिन का महानायक बनाया जाये। अपनी खबर को अगले मैचों तक के लिये रोक कर उसने प्रचार माध्यमों को धर्मसंकट से बचा लिया। ख् वह पचासवां शतक नहीं बना सके-इस खबर से ऐसा लगता है कि जैसे नब्बे तक पहुंच गये थे, पर वह तो चालीस रन बनाकर आउट हो गया। इस तरह इन भोंपूओं ने सारी दुनियां में धरती पर विचरने वाले सौर मंडल को बताया कि देखो कैसे क्रिकेट के भगवान या महानायक ने अपनी वफादारी निभाई।
जिस पूंजीवाद को हम रोते हैं वह अब चरम पर है। अब तो ऐसा लगता है कि विश्व के अनेक विकासशील देशों के राष्ट्रप्रमुख अपने लिये अमेरिका को ही संरक्षक मानने लगे हैं। यही कारण है कि पूंजी के बल पर चलने वाले प्रचार माध्यम भले ही चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका जनाभिमुख होने का होने का दावा करें पर यह सच नहीं है। वह अपने समाचार और विषय जनता पर थोप रहे हैं। कम से कम भारत में अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा को लेकर जनमानस इतना उत्साहित नहीं है जितना समाचार चैनल उसे दिखा रहे हैं। इस समय देश में दीपावली का पर्व की धूम है। इधर अमेरिका का भव्य विमान भारत में उतर रहा था भारत में लोग तब फटाखे फोड़ने और मिठाई खाने में लोग व्यस्त थे। फिर भाईदूज का दिन भी है जब लोग अपने घरों से इधर उधर जाते और आते हैं। ऐसा लगता है कि यह यात्रा कार्यक्रम ही इस तरह बनाया गया कि भारत के लोग घरों में होंगे तो उन पर अपने महानायक का प्रचार थोपा जायेगा। हालांकि अनेक मनोरंजन और धार्मिक चैनलों के चलते यह संभव नहीं रहा कि कोई एक प्रकार के चैनल अपना कार्यक्रम थोप ले पर समाचारों में दिलचस्पी रखने वालों की संख्या कम नहीं है और अंततः उनको एक कम महत्व का समाचार बार बार देखना पड़ा।
समाचार पत्र पत्रिकाऐं, टीवी चैनल और रेडियो इनको एक प्रकार से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। पहले केवल प्रकाशन पत्रकारिता को ही चौथा स्तंभ माना जाता था पर अब आधुनिक तकनीकी के उपयोग के चलते बाकी अन्य दोनों माध्यमों को भी इसमें शामिल कर लिया गया है। समाचार चैनलों के कार्यकर्ता यह कहते है कि लोग इसी तरह के कार्यक्रम पसंद कर रहे हैं पर उन्हें यह पता होना चाहिए कि वह अपने मनोरंजन कार्यक्रमों को समाचारों की आड़ में थोप रहे हैं। इतना ही नहीं समाचारों के नाम पर भी अब अपने नायक बनाने लगे हैं। कभी फिल्म तो कभी क्रिकेट तो कभी टीवी धारावाहिकों से जुड़े लोगों को अनावश्यक प्रचार देने लगते हैं।
यह देश के समाचार चैनलों के लिये ही चिंताजनक है कि आम जनमानस में उनको एक समाचार चैनल की तरह नहीं बल्कि मनोरंजन कार्यक्रमों के नाम पर ही जाना जा रहा है। इन चैनलों की छबि भारत में नहीं बल्कि बाहर भी खराब हो गयी है। अगर ऐसा न होता तो ओबामा बराक हुसैन के भारत दौरे में मुंबई के कार्यक्रमों में उनको दूर नहीं रखा जाता। याद रखिये वहां के कार्यक्रमों में केवल दिल्ली दूरदर्शन को ही आने का अवसर मिला। क्या कभी अमेरिका के राष्ट्रपति की यात्रा के दौरन किसी पश्चिमी देश में भी ऐसा होता है कि वहां के समाचार चैनलों में किसी एक को ही ऐसा अवसर मिलता हो। यहां हम देखें तो अपने देश के समाचार चैनल संभव है कि विदेशी समाचार चैनलों से अधिक कमा रहे हों पर उनकी वैसी छबि नहीं है। इसका कारण यह है कि एक समाचार चैनल के नाते उनको जनमानस से सहानुभूति नहीं मिलती और जो उन्होंने खुद ही खोई है। वरना क्या वजह है कि दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर दावा करने वाले अनेक समाचार पत्रों तथा टीवी चैनलों की ऐसी उपेक्षा की गयी और वह भी दुनियां के सबसे महान लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले अमेरिका के रणनीतिकारों के कम कमलों से। बहरहाल यह तय है कि धरती पर विचरने वाले सौर मंडल के सूर्य कहे जाने पूंजीपतियों का उनको वरदहस्त बराबर मिलेगा क्योंकि उनके महानायक को वैसा ही प्रचार दिया जिसकी चाहत थी। यह पहला अवसर था कि जब कोई समाचार चैनल यह दावा नहीं कर रहा था कि यह सीधा प्रसारण आप हमारे ही चैनल पर देख रहे हैं। सभी ने दूरदर्शन से साभार कार्यक्रम लिया।
एक बुद्धिमान आज सब्जी खरीद रहे थे। पास में उनके एक मित्र आ गये। उन्होंने बुद्धिमान महाशय से कहा-‘आज ओबामा जी का क्या कार्यक्र्रम है? कहंी पढ़ा या सुना था। हमारे यहां तो सुबह से लाईट नहीं थी।’
बुद्धिमान महाशय ने कहा-‘क्या खाक देखते? हमारी भी लाईट सुबह से नहीं है। पता नहीं ओबामा का आज क्या कार्यक्रम है?
सब्जी वाले ने बीच में हस्तक्षेप किया‘यह आप लोग लाईट न होने से किसकी बात कर रहे हो।’
बुद्धिमान ने कहा-‘तू चुपचाप सब्जी बेच, ऐसे समाचार सुनना और देखना हमारे जैसे फालतू लोगों का काम है या कहो मज़बूरी है।’
मित्र ने अपना सिर हिलाया और बोला-‘हां, यह बात सही है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, November 6, 2010

धरती पर विचरता सौरमंडल-हिन्दी व्यंग्य (dharati par bicharata saurmandal-hindi vyangya

धरती को जिंदा रखने के लिऐ उसके पास सौरमंडल होना चाहिए, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। इसका सीधा आशय यह है कि सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति तथा अन्य ग्रहों के रक्षा कवच पर ही धरती और उस पर विचरण करने वाला जीवन टिका रहता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र तो यह भी मानता है कि इन सब ग्रहों की चाल का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। इधर हमारे मन में यह भी ख्याल आया कि एक सौर मंडल इस धरती पर भी विचरता है जो सामने है पर दिखता नहीं क्योंकि इसके सारे ग्रह इतने पर्दों मे रहते हैं ं कि सभी ग्रह एक दूसरे को देख तक नहीं पाते, अलबत्ता दोनों का एक दूसरे से मिलन नहीं होता क्योंकि उनके परिक्रमा पथ कभी आपस में टकराते नहीं है। राजा और प्रजा दो भागों में बंटे मनुष्य जीवन पर इसका प्रभाव पड़ता है भले ही दोनों को यह दिखाई नहीं देता।
इस सौर मंडल के ग्रह हैं पूंजीपति, बाहूबली, धार्मिक ठेकेदार तथा अपराधियों के गिरोह ओर उनके दलाल। पूंजीपति तो सूरज की तरह है जिनकी रौशनी से सारे सारे छोटे ग्रह चमत्कृत होते हैं। सृष्टि के निर्माण से ही यह गिरोह चलते रहे होंगे पर आजकल कृत्रिम दूरदृष्टि मिल जाने के कारण आम लोगों को भी दिखाई देने लगे हैं-बुद्धिमानों तो इनके प्रभाव का आभास कर लेते हैं पर सामान्य लोगों को शायद ही होता हो।
जब बात पूंजीपतियों की बात चली है तो आजकल अमेरिका नाम का एक धरती पर स्वर्ग है जहां इनकी बस्ती बन गयी है और तय बात है कि वहां का कोई भी राज्यप्रमुख उनके लिये एक तरह से बहुत बड़ा सुरक्षाकवच की तरह काम करता है। हालांकि वह स्वतंत्र दिखता है पर लगता नहीं है। वह अपनी चाल चल रहा है पर लगता है कि उसे चलना भर है बाकी काम तो उसके मातहत ही करते होंगे।
पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के विमान की बात कर लें। विमान का अधिक वर्णन तो हमारे लिये संभव नहीं है क्योंकि अपने खटारा स्कूटर की याद आने लगती है और लिखना बंद हो जाता है। विमान एक तरह से महल होने के साथ अभेद्य किला है। वहां बैठा राष्ट्रपति यात्रा के दौरान ही अपनी सेना और प्रशासन के अधिकारियों से संपर्क कर सकता है-करता होगा इसमें शक ही है क्योंकि अमेरिका की व्यवस्था ऐसी ही दिखती है। कोई आपत्ति आ जाये तो राष्ट्रपति वहां से कोई भी कार्यवाही करने का आदेश दे सकता है-इसकी आवश्यकता पड़ती होगी यह संभावना नगण्य है। कहने का अभिप्राय यह है कि उसमें महल जैसी सारी व्यवस्था है, विमान तो बस नाम है।
भारतीय प्रचार माध्यम अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन पर उसके विमान, पत्नी तथा वक्तव्यों का खूब वर्णन करते हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने ताज होटल पर हुए हमले की निंदा की पर पाकिस्तान का नाम नहीं लिया।
शायद आगे लेंगे जब भारतीय समकक्षों से मिलेंगें।
वह पाकिस्तान नहीं जा रहे, इससे यह संदेश तो मिल ही रहा है कि वह भारत में अपना हित अधिक देखते हैं।
ऐसे बहुत से जुमले हैं जो ओबामा के आने पर तीसरी बार सुने गये। पहले क्लिंटन आये फिर जार्ज बुश, तब भी यही नज़ारा था। तीनों राष्ट्रपति पहले बैंगलौर या मुंबई आये फिर नई दिल्ली। दोनों पाकिस्तान नहीं गये इस पर बहस! संदेश ढूंढने की कोशिश! हमने तीनों को देखा। हम सोचते हैं कि क्या वह इतने विराट व्यक्तित्व के स्वामी है जितना वर्णन किया जाता है या उनका पद ही उनको विराटता प्रदान कर रहा है। दूसरी ही बात सही लगती है।
जार्ज बुश को तो राष्ट्रपति बनने से पहले तक यही नहीं मालुम था कि भारत देश किस दिशा में है, पर बाद में भारत का लोहा मानते हुए दिखाये और बताये गये।
अब ओबामा की चाल ढाल पर नज़र रखी। एक ऐसे इंसानी बुत नज़र आये जिसे विराट व्यक्तित्व का स्वामी बना दिया गया है। कोई कसर नहीं रहे इसलिये उनको शांति का नोबल भी दिया गया। अनेक लोग हैरान हुए थे पर उस समय भी हमने लिखा था कि विश्व का बाज़ार अपना यह बुत चमका रहा है। यह बात अब सत्य लगती है।
उनके साथ 250 पूंजीपतियों का समूह आया है। मुंबई में भारतीय पूंजीपतियों के साथ ही उनका सम्मेलन है। अमेरिका चाहता है कि भारतीय पूंजीपति उनके यहां निवेश करे। इस सम्मेलन को एक मुखिया की तरह ओबामा संबोधित कर चुके हैं। पहले भी राष्ट्रपति ऐसा ही कर चुके हैं। पूंजीपति यानि इस धरती का सूर्य जिससे सभी को जीवन मिलता है। अमेरिका में यह सच होगा पर भारत में आज भी कृषि आधारित व्यवस्था है। अगर यहां कृषि ठप्प हो जाये तो फिर पैसा नहीं मिलने का। भारत का पानी भी अब बाहर बिकने लगा है जो यहां के पूंजीपतियों के पैट्रोल जैसा कीमती हो गया है। कहा जाता है कि भारत में जलस्तर जितना ऊपर है उतना कहीं नहीं है। यह प्रकृति की कृपा है पर अब पानी भी पैट्रोल की तरह दुर्लभ होता जा रहा है। धरती पर स्थित सौर मंडल का भगवान बस, पद पैसा और प्रतिष्ठा कमाना है सो उसे कई बातों से मतलब नहीं है। वह राजा और प्रजा दोनों को अपनी गिरफ्त में रखता है। ऐसे में अब भारत दोहन अभियान शुरु हो गया है लगता है।
आज जार्ज बुश उनके पिता तथा दादा की भी चर्चा हुई। पता लगा कि वह हथियार कंपनियों के मालिक थे इसलिये ही उन्होंने अपने समय में युद्ध का रास्ता अपनाया ताकि माल की खपत हो सके। यह पहली बार पता लगा कि अमेरिका में हथियार बेचने वाली लॉबी इतनी दमदार है। इसका मतलब हमारा यह दावा सही होता जा रहा है कि दुनियां में अब अनेक जगह अब इंसानी बुत सौदागरों के मुखौटे बनकर राजा के पद पर सुशोभित हो रहे हैं।
प्रचार माध्यम कहते हैं कि ओबामा उन सबसे अलग हैं। इसे हम यूं भी मान सकते हैं कि वह हथियार लॉबी से इतर किसी अन्य लॉबी के इंसानी बुत हैं। वैसे वह हथियारों की बिक्री बढ़ाने तो वह भारत यात्रा पर पधार हैं पर साथ ही अन्यत्र क्षेत्रों में वह यहां का सहयोग चाहते हैं। अन्य व्यापारियों ने हथियार व्यापारियों से कहा होगा कि‘भई, कुछ हमारा काम हो जाये, इसलिये इस बार हमारी पंसद का राष्ट्रपति आने दो।’
हथियार लॉबी का काम तो होना ही था सो वह मान गये होंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार ओबामा के प्रतिद्वंद्वी का नाम आखिर तक किसी को पता नहीं चला। आज ओबामा यह कर रहे हैं, आज वहां बोलेंगे, ओबामा के बारे में यह अफवाह फैली-ऐसी बातें भारतीय प्रचार माध्यम ही नहीं इंटरनेट पर भी आती रहीं। न आया तो उनके प्रतिद्वंद्वी का नाम। वैसे ओबामा चेहरे से भले लगे। धरती के सौरमंडल के ग्रहों ने बहुत सोच समझकर उनको चुना। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है। अगर हम कहें कि उनको क्यों लाये तो यह बात भी तय है कि उनकी जगह कोई दूसरा चेहरा या इंसानी बुत आना था। वह जो भी बोलेंगे अपने सहायकों के इशारे से ही बोलेंगे। कई बार तो लिखा हुआ पढ़ेंगे। इसका मतलब यह है कि उनको एक ऐसे इंसानी बुत की तरह प्रस्तुत किया गया है कि जो समझकर बोलता हो। बाकी तो उनको गुड्डे की तरह खूब चलाया जायेगा। कभी कभी तो लगता है कि उनको भी यही पता न होगा कि उनको अगली बार कौनसी लाईन बोलनी है या अगले कार्यक्रम में आखिर विषय क्या है? अमेरिका का राष्ट्रपति दुनियां का सबसे दबंग आदमी है-ऐसा कहा गया पर हम सोच रहे थे कि वाकई क्या यह सच है?
धरती का सौर मंडल उस पर तथा यहां विचरण करने वाले जीवों पर क्या प्रभाव डालता है हमें नहीं दिखता लगभग उसी तरह ही धरती पर विचरने वाला सौर मंडल किस तरह राजा और प्रजा को चला रहा है यह आम आदमी नहीं जानते। जो जानते हैं वह बता नहीं सकते क्योंकि वह खुद उसका हिस्सा होते हैं।
आखिरी बात यह है कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले ताज के अलावा दो अन्य जगह भी हुए थे। जिसमें रेल्वे स्टेशन भी शामिल था जहां आम आदमी अधिक होते हैं। ओबामा ने केवल ताज के शहीदों को ही श्रद्धांजलि दी। आतंकियों को चुनौती देने के लिये ही वह ताज होटल में रुके ऐसा कहा जा रहा है। इससे भी हमें कोई शिकायत नहीं पर धरती के सौरमंडल की प्रतिबद्धता साफ दिखाई दे रही है कि वह कुछ विषयों पर प्रजा के जज़्बातों की परवाह नहीं करता। वह अपने इंसानी बुत को रेल्वे स्टेशन नहीं ले जा सकता क्योंकि सौर मंडल के ग्रहों में इतनी ताकत है कि उनकी परिक्रमा प्रजा की चाल से प्रभावित नहीं होती।
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Friday, November 5, 2010

टूटी नीयत, खूबसूरत चेहरा-हिन्दी व्यंग्य कविता (kharab neeyat,khubsurat chehra-hindi satire poem)

आपस में विरोधी कवि उलझे रहे बरसो 
तब एक को समझौते का ख्याल आया,
उसने दूसरे को समझाया,
''यार, अब बदल गया है ज़माना,
मुश्किल हो गया है कमाना,
क्यों न आपस में समझौता कर लें,
भले ही मन में हो खोट रखें
बाहर से एकरूप और विचारधारा धर लें.."

सुनकर दूसरा बोला 
"सच कहते हो यार,
बरबाद हो गयी है हर धारा
बिगड़ गया है हर विचार,
अपने आका दल क्या 
दिल ही बदल देते हैं,
अवसर जहां देखते हैं मिलने का सम्मान 
वहीँ अपनी  किस्मत खुद लिख देते हैं,
कविताई के नाम  पर 
एकता, भाईचारा, और अमन के पैगाम लिखते हैं,
बिकने पर माल के लिए 
दारू पीकर लड़ते दिखते हैं,
अपने हिस्सा नहीं आ रहा नामा और नाम,
इस तरह तो छूट जाएगा कविताई का काम,
अपने मसीहाओं की तरह टूटी  नीयत रखें 
बाहर से एकता, अमन और भाईचारे का
खूबसूरत चेहरा धर लें.."
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Saturday, October 16, 2010

बिज़ली कटौती होते होते आपूर्ति जीरो रह जायेगी-हिन्दी हास्य कविता (bijali katauti se aapoorti zero-hindi hasya kavita)

दादा ने पोते से कहा
‘यह रोज बिज़ली चली जाती है,
तुम निकल जाते हो बाहर खेलने
किताबें और कापियां यहां खुली रह जाती हैं।
ले आया हूं तुम्हारे लिये माटी के चिराग,
जो रौशनी करने के लिये लेते थोड़ी तेल और आग,
तुम्हारे परदादा इसी के सहारे पढ़े थे,
शिक्षा के कीर्तिमान उन्होंने गढ़े थे
मेरे और अपने पिताजी की राह
अब तुम्हारे लिए चलना संभव नहीं,
बिज़ली कटौती के घंटे बढ़ते जा रहे हैं
आपूर्ति जीरो पर न आयें कहंी,
इसलिये तुम तेल के दीपक की रौशनी में
पढ़ना सीख लो तो ही तुम्हारी भलाई है,
वरना आगे कॉलिज की भी लड़ाई है
देश की विकास भले ही बढ़ती जाये
पर बिज़ली कटौती होते होते आपूर्ति जीरो हो जायेगी
अखबारों में रोज खबर पढ़कर
स्थिति यही नज़र आती है।

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महंगाई और बिज़ली कटौती-हिन्दी क्षणिकायें (mahangai aur bijli katauti-hindi vyangya kavitaen)

महंगाई पर लिखें या
बिज़ली कटौती पर
कभी समझ में नहीं आता है,
अखबार में पढ़ते हैं विकास दर
बढ़ने के आसार
शायद महंगाई बढ़ाती होगी उसके आंकड़ें
मगर घटती बिज़ली देखकर
पुराने अंधेरों की तरफ
बढ़ता यह देश नज़र आता है।
-----------
सर्वशक्तिमान को भूलकर
बिज़ली के सामानों में मन लगाया,
बिज़ली कटौती बन रही परंपरा
इसलिये अंधेरों से लड़ने के लिये
सर्वशक्तिमान का नाम याद आया।
-----------
पेट्रोल रोज महंगा हो जाता,
फिर भी आदमी पैदल नहीं नज़र आता है,
लगता है
साफ कुदरती सांसों की शायद जरूरत नहीं किसी को
आरामों में इंसान शायद धरती पर जन्नत पाता है।
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भलाई की दुकानें-हिन्दी शायरी (bhalai ki dukane-hindi shayri)

देश में बढ़ रहा है खज़ाना
मगर फिर भी अमीरों की भूख
मिटती नज़र नहीं आती।

देश में अन्न भंडार बढ़ा है
पर सो जाते हैं कई लोग भूखे
उनकी भूख मिटती नज़र नहीं आती।

सभी बेच रहे हैं सर्वशक्तिमान के दलाल
शांति, अहिंसा और गरीबों का ख्याल रखने का संदेश
मगर इंसानों पर असर होता हो
ऐसी स्थिति नहीं बन पाती।

फरिश्ते टपका रहे आसमान से तोहफे
लूटने के लिये आ जाते लुटेरे,
धरती मां बन देती खाने के दाने,
मगर रुपया बनकर
चले जाते हैं वह अमीरों के खातों में,
दिन की रौशनी चुराकर
महफिल सज़ाते वह रातों में,
भलाई करने की दुकानें बहुत खुल गयीं हैं
पर वह बिना कमीशन के कहीं बंटती नज़र नहीं आती।
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Sunday, October 3, 2010

अभी इंतजार करो-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (intazar-hindi vyangya kavitaen)

खड़े हैं गरीब
खाली पेट लिये हुक्मत की रसोई के बाहर
जब भी मांगते हैं रोटी
तो जवाब देते हैं रसोईघर के रसोईये
‘अभी इंतजार करो
अभी तुम्हारी थाली में रोटी सजा रहे हैं,
उसमें समय लगेगा
क्योंकि रोटी के साथ
आज़ादी की खीर भी होगी,
खेल तमाशों का अचार भी होगा,
उससे भी पहले
विज्ञापन करना है ज़माने में,
समय लगेगा उसको पापड़ की तरह सज़ाने में,
तुम्हारी भूख मिटाने से पहले
हम अपने मालिकों की छबि
फरिश्तों की तरह बनाने के लिये
अपनी रसोई सजा रहे हैं।
-----------
देश की भूख मिटाना
बन कर रह गया है सपना
मुश्किल यह है कि
रोटी बनाने के नये फैशन आ रहे हैं,
खर्च हो जाता है
नये बर्तन खरीदने में पैसा
पुरानों में रोटी परोसने से लगेगा
नये बज़ट हाल पुराने जैसा,
इधर ज़माने में
गरीब की थाली सजने से पहले ही
नये व्यंजन फैशन में आ रहे हैं,
काम में नयापन जरूरी है

फिर देश की तरक्की देश में अकेले नहीं दिखाना,
ताकतवर देशों में भी नाम है लिखाना,
समय नहीं मिलता
इधर गरीबों और भूखों की पहचान भी बदली है
उनके नये चेहरे फैशन में आ रहे हैं।
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Sunday, September 26, 2010

राम मंदिर कब बन पायेगा-हिन्दी हास्य कविता (ayodhya mein ram mandir kab ban paeyga-hindi hasya kavita)

एक राम भक्त ने दूसरे से कहा
‘वैसे तो राम सभी जगह हैं,
हमारे अध्यात्मिक ज्ञान की बड़ी वजह हैं,
घर घर में बसे हैं,
घट घट में इष्ट की तरह श्रीराम सजे हैं श्रीराम
पर फिर भी जिज्ञासावश
अयोध्या के राम मंदिर का ख्याल आता है,
चलो किसी समाज सेवक से चलकर
पूछ लेते हैं कि
वह कब तक बन पाता है।’

सुनकर दूसरे राम भक्त ने कहा
‘भला तुमको भी समाजसेवकों की तरह
अपनी आस्था की परीक्षा क्या ख्याल क्यों आता है,
अरे, अयोध्या के मंदिर का मामला
बड़े लोगों का है
यह पता नहीं उनका वास्तव में
राम भक्ति से कितना नाता है,
अलबत्ता चाहो तो किसी सट्टेबाज या
बाज़ार के सौदागरों से पूछ लेते हैं,
चाहे जो भी जनचर्चा को विषय हो
उसमें अपने भगवान पैसे को पूज लेते हैं,
प्रचारक अब क्रिकेट जैसे खेल में भी
भगवान का स्वरूप गढ़ने लगे हैं
शिकायत भी वही करते हैं कि
अंधविश्वासी लोग बढ़ने लगे हैं,
चुनाव हो या क्रिकेट
जीत हार फिक्स कर लेते हैं,
सौदा और सट्टा मिक्स कर लेते हैं,
समाज सेवा में भी उनके दलाल पलने लगे हैं,
धर्म कर्म भी उनके इशारे पर चलने लगे हैं,
सट्टेबाज़ जिज्ञासाओं और आशाओं की आड़ में कमाते हैं
इसलिये इंसानों को उसमें फंसाते हैं
हम तो बरसों से सुनते हुए राम मंदिर प्रसंग भुला बैठे,
पर बड़े लोग इसे चाहे जब झुला बैठे,
इसलिये सौदागरों से यह पूछना होगा कि
कब राम मंदिर पर उनका दिल आयेगा,
सट्टेबाजों से पूछना होगा
उनका आंकड़ा कब हिल पायेगा,
अपुन ठहरे आम भक्त,
अंदर से पुख्ता, बाहर अशक्त,
अपने राम तो मन में बसे रहेंगे,
एक जगह न ठहर सभी जगह
कल्याण करते बहेंगे,
कण कण में देखते रूप उनका
काम नहीं करती अक्ल इस पर कि
अयोध्या में राम मंदिर कब बन पायेगा।’’
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अयोध्या में राम मंदिर और टीवी चैनल-हास्य कविता (ayodhya meih ram mandir aur tv chainal-hindi comic poem)

टीवी चैनल के कर्मचारी ने
अपने प्रबंध निदेशक से पूछा
‘सर, आपका क्या विचार है
अयोध्या में राम जन्म भूमि पर
मंदिर बन पायेगा
यह मसला  कभी सुलझ पायेगा।’

सुनकर प्रबंध निदेशक ने कहा
‘अपनी खोपड़ी पर ज्यादा जोर न डालो
जब तक अयोध्या में राम मंदिर नहीं बनेगा,
तभी तक अपने चैनल का तंबू बिना मेहनत के तनेगा,
बहस में ढेर सारा समय पास हो जाता है,
जब खामोशी हो तब भी
सुरक्षा में सेंध के नाम पर
सनसनी का प्रसंग सामने आता है,
अपना राम जी से इतना ही नाता है,
नाम लेने से फायदे ही फायदे हैं
यह समझ में आता है,
अपना चैनल जब भी राम का नाम लेता है
विज्ञापन भगवान छप्पड़ फाड़ कर देता है,
अगर बन जायेगा
तो फिर ऐसा मुद्दा हाथ नहीं आयेगा
कभी हम किसी राम मंदिर नहीं गये
पर राम का नाम लेना अब बहुत भाता है,
क्योंकि तब चैनल सफलता की सीढ़िया चढ़ जाता है,
इसलिये तुम भी राम राम जपते रहो,
इस नौकरी में अपनी रोटी तपते रहो,
अयोध्या में राम मंदिर बन जायेगा
तो उनके भक्तों का ध्यान वहीं होगा
तब हमारा चैनल ज़मीन पर गिर जायेगा।

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Sunday, September 19, 2010

अयोध्या का राम मंदिर और जनमानस के राम-हिन्दी कविता (ayodhya mein ram janma bhoomi- hindi poem)

उन्होंने कहा कि
‘तुम अयोध्या के राम मंदिर पर लिखो
उस पर फैसला होने वाला है
जरूर इससे सनसनी फैल जायेगी
तुम्हारी प्रसिद्ध होने भूख भी तभी शांत हो पायेगी।’
मुझे तब अपने घर रखी राम की
तस्वीर दिखाई दी
जिसमें मेरे पूज्य मुस्करा रहे थे
बरबस मैं भी मुस्करा दिया
जैसे इष्ट ने आनंद के झूले में झुला दिया।
मुझे नहीं लगा कि
मेरी कलम इन क्षणो पर अभिव्यक्त हो पायेगी।
मेरे मन में जो हर पल विचरे हैं
उनके प्रति आस्था के बीज
रक्त के कण कण में बिखरे हैं,
अमूर्त रूप से बसे हैं जो आंखों में
तस्वीरों जितने चेहरे भी हैं लाखों में
उनके स्मरण से बढ़ती हुई ताकत
खड़ा कर देती है ज़िदगी के खुशनुमा पलों के सामने
शीतल होती जा रही देह की उंगलियां
ऐसे में कहां आग उगल पायेंगी।
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Saturday, September 11, 2010

रोटी से तसल्ली -हिन्दी कविता (roti se taslli-hindi poem)

किसी की पीड़ा को देखकर कब तक
दिखावटी आंसु बहाओगे,
उसे जरूरत इलाज की है,

किसी की बेबसी पर कब तक
अपनी हमदर्दी दिखाओगे
उसे ज़रूरत  सहारे की है,

कब तक तकलीफों से बचने के लिये
किसी को हंसाओगे
उसे जरूरत दिल से मुस्कराने की है,

खाली लफ्जों से इंसान का पेट नहीं भरता
मगर जिन का भरा है
वह भी बैचेनी में जीते हैं
जरूरत तसल्ली की रोटी
और रोटी से तसल्ली की है।
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कहर की बाढ़- व्यंग्य क्षणिकायें (kahar ki badh- vyangya kavitaen)

नदियां यूं ही नहीं देवियां कही जाती हैं,
तभी तक सहती हैं
अपने रास्तों पर आशियानों बनना
जब तक इंसानों की तरह सहा जाता है,
बादलों से बरसा जो थोड़ा पानी
उफनती हुई अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाती हैं।
--------
यह कुदरत का ही करिश्मा है कि
विकास के मसीहाओं को भी
उसका सहारा मिल जाता है,
जब तक आगे बढ़ने का सहारा मिलता है
झूठे आंकडों से
वह अपनी छाती फुलाते हैं
बरसती है जब कहर की बाढ़
खुलती है पोल
तब दोष देते हैं कुदरत को
फिर राहत से कमाई की उम्मीद में
उनका चेहरा अधिक खिल जाता है।
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Sunday, August 29, 2010

हिन्दी भाषा के अंग्रेजीकरण की कोशिश निरर्थक-हिन्दी लेख (hindi bhasha aur devnagari lipi-hindi lekh)

अंतर्जाल पर लिखने में कोई संकट नहीं है जितना कि लोगों की कमेंट पढ़ने में लगती है। जो लोग अपनी टिप्पणियों में वाह वाह या बढ़िया लिख जाते हैं धन्य हैं, और जो थोड़ा विस्तार से लिखे गये पाठ के संदर्भ में नयी बातें लिख जाते हैं वह तो माननीय ही हैं शर्त यह है कि उनकी लिपि देवनागरी होना चाहिए। अगर कहीं रोमन लिपि में हुआ तो भारी तकलीफदेह हो जाता है और काफी देर तक तो यही संशय रहता है कि कहीं वह टिप्पणीकर्ता मजाक तो नहीं उड़ा रहा।
हम बात करें उन लोगों की जो रोमन लिपि में हिन्दी लिखना और पढ़ना चाहते हैं। अपना विचार तो यह है कि रोमन लिपि में हिन्दी लिखने से तो अच्छा है कि सीधे अंग्रेजी में लिखो। इधर सुन रहे हैं कि कुछ विद्वान आधिकारिक रूप से हिन्दी को रोमन लिपि में बांधने के लिये तैयार हो चुके हैं।
अरे, रुको यार पहले हमारी सुनो।
हम तो कह रहे हैं कि नहीं तुम तो बिल्कुल अंग्रेजी को भारत में लादने के लिये कमर कसे रहो। इस पर हमारा पूरा समर्थन है। इधर हम अपने ब्लाग पर हिन्दी में लिखते जायेंगे उधर तुम्हें भी अंग्रेजी के लिये समर्थन देते रहेंगे। कम से कम रोमन लिपि में हिन्दी लिखकर हमारे लिये टैंशन यानि तनाव मत पैदा करो।
होता यह है कि कुछ लोग हमारे लिखने से नाराज होते हैं। अगर वह अंग्रेजी में नकारात्मक टिप्पणी लिखते हैं तो उसे पढ़कर अफसोस नहीं होता।
लिख देते हैं ‘bed poem, you are a bed writer वगैरह वगैरह। हम उनको उड़ा देते हैं। कोई चिंता नहीं! अंग्रेजी में ही हो तो है। किसी ने हिन्दी तो नहीं लिखा। यह तसल्ली इसी तरह की है कि किसी दूसरे शहर में पिटकर आया आदमी अपनी ताकत का बयान अपने शहर में करता है।
अंग्रेजी नहीं आती पर पढ़ लेते है। कोई बात समझ में नहीं आये तो डिक्शनरी की मदद लेते हैं। एक बार एक शब्द आया था जो कविता के बुरे होने की तरफ इशारा कर रहा था। शब्द देखकर लगा कि कम से कम यह अच्छी बात तो नहीं कह रहा। फिर डिक्शनरी की मदद ली। बाद में उस टिप्पणी को हटा दिया। हिन्दी में होती तो सोचते। इससे कुछ लोगों को गलत फहमी हो गयी कि इस लेखक को अंग्रेजी नहीं आती तो अब कभी कभार रोमन लिपि में हिन्दी लिखकर अपनी नकारात्मक राय रखते हैं। यह तकलीफ देह होता है। रखते तो वह भी नहीं है पर पढ़ने में भारी तकलीफ होती है।
अगर कोई लिख देता है कि bakwas तो पढ़ने में क्रष्ट जरूर होता है पर समझने में नहींपर अगर कोई लिखता है bed तो वह तत्काल समझ में आ जाता है उसको भी धन्यवाद देते हैं कि पढ़ने में तकलीफ नहीं हुई। चलो इनसे तो निपट लेते ही हैं पर कुछ लोग पाठों की प्रशंसा में ऐसी टिप्पणियां लिखते हैं जो वाकई उस उसकी चमक बढ़ाते हैं और कहना चाहिये कि पाठ से अधिक प्रशंसनीय तो उनकी टिप्पणी होती है मगर दुःख यह कि वह रोमन लिपि में होती हैं। उनका हटाना पाप जैसा लगता है पर एक बात निश्चित यह है कि हिन्दी का पाठक जब उस पाठ को पढ़ते हुए जब टिप्पणियां पढ़ना चाहेगा तो वह उसे रोमन लिपि में देखकर अपना विचार त्याग देगा और टिप्पणीकर्ता अन्याय का स्वयं ही शिकार होगा।
जिन लोगों को हिन्दी से परहेज है वह उसमें लिखा हुआ लिपि रोमन हो या देवनागरी में कतई नहीं पढ़ेगा क्योंकि उसकी नाराजगी भाषा से है न कि लिपि से। वैसे तो देवनागरी में हिन्दी लिखना इंटरनेट पर कठिन था पर टूलों की उपलब्धता ने उसे समाप्त कर दिया है। अब तो जीमेल पर ही हिन्दी में लिखकर अपना संदेश कट पेस्ट कर कहीं भी रखा जा सकता है। इसलिये आम पाठकों को भी ऐसी शिकायत नहीं करना चाहिये क्योंकि इंटरनेट पर पढ़े लिखे लोग ही सक्रिय हो पाते हैं।
भाषा का संबंध हृदय के भाव से तो लिपि का संबंध मस्तिष्क से होता है। जो लोग रोमन लिपि में हिन्दी लिखना चाहते हैं उनकी निराशाओं को समझ सकते। बहुत प्रयास के बावजूद हिन्दी आम भारतीय की भाषा है। यह अलग बात है कि हिन्दी बाज़ार अंग्रेजीदांओं के कब्जे में है। दरअसल मोबाइल पर एसएमएस लिखवाने के लिये यह बाज़ार विशेषज्ञ अपने प्रायोजित विद्वानों को सक्रिय किये हुए हैं जो रोमन लिपि को यह स्थाई रखना चाहते हैं। उनको लगता है कि बस, रोमन लिपि में यहां का आम आदमी अपना एसएमएस कर अपने हाथ बर्बाद करे। याद रहे कि अधिक एसएमएस करने से लोगों के हाथ बीमार होने की बात भी सामने आ रही है। यह एसएमएस की प्रथा नयी है इसलिये अभी चल रही है और एक दिन लोग इससे बोर हो जायेंगे तब यह रोमन का भूत भी उतर जायेगा। वैसे अनेक लोग यह भी कोशिश कर रहे हैं कि रोमन लिपि से ही ऐसे संदेश हों।
आखिरी बात यह है कि इंटरनेट ने सभी को दिग्भ्रमित कर दिया है। अभी तक देश के आर्थिक, सामाजिक, तथा अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों में जिन समूहों या गुटों का कब्जा रहा है वह अब आम आदमी पर नियंत्रण खोते जा रहे हैं। अगर भाषा की बात करें तो आज़ादी के बाद हिन्दी में जो लिखा गया है लोग उस पर असंतोष जता रहे हैं। फिल्में पिट रही हैं, अखबार भी अधिक महत्व के नहीं रहे, टीवी चैनल तो आपस में ही लड़ रहे हैं। पहले उनकी सामग्री की चर्चा लोगों के बीच में होती है पर अब बहुतायत के कारण कोई किसी से जुड़ा है तो कोई किसी से।
आम आदमी को भेड़ की तरह चलाने के आदी कुछ लोग इंटरनेट पर सक्रिय लोगों को आज़ाद देखकर घबड़ा रहे हैं। इसलिये अपने चेले चपाटों के माध्यम से अपना खत्म हो रहा अस्तित्व बचाने में जुटे हैं। इसके लिये पहले उन्होंने हिन्दी के फोंट न होने की बात प्रचारित की और वह जब सार्वजनिक हो गये तो अब वह बता रहे हैं कि रोमन लिपि में लिखकर विश्व पर राज करेंगे क्योंकि दूसरे देश भी इसे सीखेंगे। भाषा के सहारे सम्राज्यवाद का उनका सपना केवल एक ढोंग है क्योंकि हिन्दी में लिपि संबंधी बहस से अधिक समस्या उसमें सार्थक लिखने की है। वह भी इस तरह का लेखन करना होगा जो अभी तक बाज़ार में न दिखा हो। जिन्होंने हिन्दी के बाज़ार पर कब्जा कर रखा है वह इंटरनेट पर भी ऐसे सपने देखने लगे हैं। जबकि हमारा मानना है कि जैसे जैसे इंटरनेट पर लोगों की सक्रियता बढ़ेगी उनके बहुत सारे भ्रम टूटेंगे जो उन पर थोपे गये। इंटरनेट पर देवनागरी में हिन्दी लिखने की बढ़ती जा रही सरलता उनको अंततः अपना मार्ग छोड़ने को बाध्य कर देगी। इस तरह हिन्दी भाषा के अंग्रेजीकरण की कोशिश एक निरर्थक कदम है।
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Saturday, August 28, 2010

इतिहास और सर्वशक्तिमान के दूत-हिन्दी व्यंग्य कविताये (history and messagngers of god-hindi satire poem's)

अब तो हादसों के इतिहास पर भी
सर्वशक्तिमान के दरबार बनते हैं,
जिनके पास नहीं रही देह
उन मृतकों के दर्द को लेकर
जिंदगी के गुढ़ रहस्य को जो नहीं जानते
वही उफनते हैं,
जज़्बातों के सौदागरों ने पहन लिया
सर्वशक्तिमान के दूत का लबादा,
भस्म हो चुके इंसानों के घावों की
गाथा सुना सुनाकर
करते हैं आम इंसानों से दर्द का व्यापार
क्योंकि उनके महल ऐसे ही तनते हैं।
------------
इंसानों को दर्द से जड़ने का जज़्बा
भला वह अक्लमंद क्या सिखायेंगे,
जो हादसों में मरों के लिये झूठे आंसु बहाकर,
सर्वशक्तिमान के दरबार सजाकर
लोगों का अपना दर्द दिखायेंगे,
यह अलग बात है कि उनके भौंपू
उनका नाम इतिहास में
सर्वशक्तिमान के दूत की तरह लिखायेंगे।
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मदद की लूट-हास्य कविताएँ (dacaiti in help for below pwoerty line-hindi comic poem's)

गरीबी की रेखा के ऊपर बैठे लोग ही
पूरा हिस्सा खा जाते हैं
इसलिये ही नीचे वाले
नहीं उठ पाते ऊपर
कहीं अधिक नीचे दब जाते हैं।
---------
गरीबी रेखा के ऊपर बसता है इंडिया
नीचे भारत के दर्शन हो जाते हैं,
शायद इसलिये बुद्धिजीवी अब
इंडिया शब्द का करते हैं इस्तेमाल
भारत कहते हुए शर्माते हैं।
-------------
गरीबी की रेखा पर कुछ लोग
इसलिये खड़े हैं कि
कहीं अन्न का दाना नीचे न टपक जाये
जिस भूखे की भूख का बहाना लेकर
मदद मांगनी है दुनियां भर से
उसका पेट कहीं भर न जाये।
-------
गरीबी रेखा के नीचे बैठे लोगों का
जीवन स्तर भला वह क्यों उठायेंगे,
ऐसा किया तो
रुपये कैसे डालर में बदल पायेंगे,
फिर डालर भी रुपये का रूप धरकर
देश में नहीं आयेंगे,
इसलिये गरीबी रेखा के नीचे बैठे
इंसानों को बस आश्वासन से समझायेंगे।
-------------
अपना पेट भरने के लिये
गरीबी की रेखा के नीचे
वह इंसानों की बस्ती हमेशा बसायेंगे,
रास्ते में जा रही मदद की
लूट तभी तो कर पायेंगे।
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Friday, August 27, 2010

हादसों पर मेले-हिन्दी शायरी (hadson par mele-hindi shayari

कुछ लोग हादसों में मरे इंसानों की याद में
हर बरस मोमबत्तियां जलायेंगे,
तो कुछ जन्नत के फरिश्ते
जख्मों में मरहम लगाने के लिये
सर्वशक्तिमान का नया दरबार बनायेंगे।
इंसान मौत से हारे हैं,
ईमान से अधिक उनको अपने मतलब प्यारे हैं,
कभी नहीं समझा धर्म,
अपनी कमजोरी पर आती है शर्म,
फिर भी अपनी अक्लमंदी से बन गये
जो सर्वशक्तिमान के ठेकेदार
मुर्दों में अमरत्व दिखाने के लिये
पत्थर की कुछ नई इमारते सजायेंगे।
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अक्लमंद भर रहे संदूके-हिन्दी शायरी (akalmand bhar rahe sanduken-hindi shayari)

लोग हादसों की खबर पढ़ते और सुनते हैं
लगातार देखते हुए उकता न जायें
इसलिये विज्ञापनों का बीच में होना जरूरी है।
सौदागारों का सामान बिके बाज़ार में
इसलिये उनका भी विज्ञापन होना जरूरी है।
आतंक और अपराधों की खबरों में
एकरसता न आये इसलिये
उनके अलग अलग रंग दिखाना जरूरी है।
आतंक और हादसों का
विज्ञापन से रिश्ता क्यों दिखता है,
कोई कलमकार
एक रंग का आतंक बेकसूर
दूसरे को बेकसूर क्यों लिखता है,
सच है बाज़ार के सौदागर
अब छा गये हैं पूरे संसार में,
उनके खरीद कुछ बुत बैठे हैं
लिखने के लिये पटकथाऐं बार में
कहीं उनके हफ्ते से चल रही बंदूकें
तो कहीं चंदे से अक्लमंद भर रहे संदूके,
इसलिये लगता है कि
दौलत और हादसों में कोई न कोई रिश्ता होना जरूरी है।

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Saturday, August 21, 2010

हिन्दी हास्य कविता-झूठी प्रशंसा (jhoothi tarif-hindi hasya kavita)

आशिक ने कहा माशुका से
‘‘मुझसे पहले भी बहुत से आशिकों ने
अपनी माशुकाओं के चेहरे की तुलना
चांद से की होगी,
मगर वह सब झूठे थे
सच मैं बोल रहा हूं
तुम्हारा चेहरा वाकई चांद की तरह है खूबसूरत और गोल।’’

सुनकर माशुका बोली
‘‘आ गये अपनी औकात पर
जो मेरी झूठी प्रशंसा कर डाली,
यकीनन तुम्हारी नीयत भी है काली,
चांद को न आंखें हैं न नाक
न उसके सिर पर हैं बाल
सूरज से लेकर उधार की रौशनी चमकता है
बिछाता है अपनी सुंदरता का बस यूं ही जाल,
पुराने ज़माने के आशिक तो
उसकी असलियत से थे अनजान,
इसलिये देते थे अपनी लंबी तान,
मगर तुम तो नये ज़माने के आशिक हो
अक्षरज्ञान के भी मालिक हो,
फिर क्यूं बजाया यह झूठी प्रशंसा का ढोल,
अब अपना मुंह न दिखाना
खुल गयी तुम्हारी पोल।’’
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, ईमान से अधिक उनको अपने मतलब प्यारे- हिन्दी व्यंग्य कविता

कुछ लोग हादसों में मरे इंसानों की याद में
हर बरस मोमबत्तियां जलायेंगे,
तो कुछ जन्नत के फरिश्ते
जख्मों में मरहम लगाने के लिये
सर्वशक्तिमान का नया दरबार बनायेंगे।
इंसान मौत से हारे हैं,
ईमान से अधिक उनको अपने मतलब प्यारे हैं,
कभी नहीं समझा धर्म,
अपनी कमजोरी पर आती है शर्म,
फिर भी अपनी अक्लमंदी से बन गये
जो सर्वशक्तिमान के ठेकेदार
मुर्दों में अमरत्व दिखाने के लिये
पत्थर की कुछ नई इमारते सजायेंगे।
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रौशनी चुराकर अंधेरों को सुलाने लगे-हिन्दी व्यंग्य कविता (vikas ka mukhauta-hindi satire poem)

दूसरों के घर की रौशनी चुराकर
अंधेरों को वहां सुलाने लगे,
नौनिहालों के दूध में जहर मिलाकर
अपनी दौलत से अपना कद
ज़माने को दिखाने के लिये
ऊंचा उठाने लगे।
इंसानों जैसे दिखते हैं वह शैतान
पेट से बड़ी है उनकी तिजोरी
जंगलों की हरियाली चुराकर
भरी है नोटों से उन्होंने अपनी बोरी,
अब गरीबी और बेबसी को
विकास का मुखौटा पहनाकर बुलाने लगे।
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Sunday, August 15, 2010

वादे और इरादे-हिन्दी क्षणिकाऐं (vade aur irade-hind kshniaken)

उनके कुछ वादे हैं,
कुछ इरादे भी हैं,
इंतजार है बस हुकूमत हाथ में आने का,
या फिर दलाल बन जाने का,
फिर कुआँ आकर पूछेगा 
वादे और इरादे,
बस उनको भूल जाने का.
------------------------------
वादे कर भूल जाएँ 
कामयाब इन्सान कहलाते हैं,
करते हैं जो इन्सान 
ज़माने का भला करने का इरादा 
हो जाते हैं गलतियों का शिकार 
जिनकी चर्चा में बदनाम हो जाते हैं .
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सयानों का देशप्रेम-हिन्दी व्यंग्य कविता (sayanon ka deshprem-hindi vyangya kavita)

नहीं जगा पाते अब देशप्र्रेम
फिल्मों के पुराने घिसे पिटे गाने,
हालत देश की देखकर
मन उदास हो जाता है,
स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस
उठते है मन ही मन ताने।
अपने आज़ाद होने के बारे में सुना
पर कभी नहीं हुआ अहसास,
जीवन संघर्ष में नहीं पाया किसी को पास,
आज़ादह और एकता के नारे
हमेशा सुनने को मिलते रहे,
पर अपनों से ही जंग में पिलते रहे,
अपने को हर पग पर गुलाम जैसा पाया,
अपने हाथ अपने मन से नहीं चलाया,
हमेशा रहे आज़ादी और स्वयं के तंत्र से अनजाने
सब उलझे हैं उलझनों में
जो सुलझे हैं,
वह भी लगे दौलत और शौहरत जुटाने की उधेड़बनों में,
देशप्रेम की बात करते हैं,
पर दिखाते नहीं वही कहलाते सयाने।
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आज़ादी का मतलब-व्यंग्य कविता (azadi ka ek din-satire poem in hindi)

फिर एक दिन बीत जायेगा,
साल भर तो गुलामों की तरह गुजारना है,
में आह्लाद पैदा होने की बजाय
खून खौलता है
जब कोई आज़ादी का मतलब नहीं समझा पाता।
एक शब्द बन गया है
जिसे आज़ादी कहते हैं,
उसके न होने की रोज होती है अनुभूति,
खत्म कर देती है
शहीदों के प्रति हृदय की सहानुभूति,
फड़क उठते हैं जंग को हाथ
जो फिर अपनी कामनाओं के समक्ष लाचार हो जाते हैं,
जब स्वयं का तंत्र ही ज़ल्लादों के हाथ में
फांसी की तरह लटका नज़र आता है।
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आज़ादी पर का झंडा वंदन-व्यंग्य कविता कविता (one day of indepandent-hidi satire poem)

अपने ही गुलामों की
भीड़ एकत्रित कर आज़ादी पर
शिखर पुरुष करते हैं झंडा वंदन।
अपने खून को पसीना करने वाले
मेहनतकशों के लिये हमदर्दी के
कुछ औपचारिक शब्द बोल देते हैं
उसके हाथ भी खोल देते हैं
बस! एक दिन
फिर उसके पसीने का तेल बनाने के लिए
डाल देते हैं पांव में बंधन।।
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आधा लड्डू का स्वतंत्रता दिवस-हास्य कविता (gulamom ka svatatrata divas-hasya kavita)

मालिक ने स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिये
काम पर एक घंटा पहले अपने गुलामों को बुलाया,
यह आमंत्रण एक गुलाम को रास न आया,
वह बोला,
‘‘मालिक आधे लड्डू के लिये
आप हमें काम पर एक घंटे पहले न बुलायें,
ताकि हमारे बेटी बेटियां भी इसे मनाऐं,
कल हम लोगों में से कुछ उनको
स्वतंत्रता दिवस पर छोड़ने स्कूल जायेंगे,
वह भी वहां जश्न मनाऐंगें,
आप निश्चित रहें
अपने तय समय पर यहां
आपकी सेवा में जरूर हाज़ि़र हो जायेंगें।’’
सुनकर मालिक बोला-
‘‘भूलो मत तुम्हारी रोजी रोटी
यहीं से चल रही है
यह स्वतंत्रता दिवस अपने ही लोगों के
मालिक बन जाने पर मनाया जाता है,
जिनकी कृपा से तुम्हारे चूल्हे की आग जल रही है,
अरे,
इसे हमारे साथ मिलकर उत्साह से मनाओ, खाकर भी हमारी कृपा के पूरे गुन गाओ,
जिन्होंने की इस आमंत्रण की उपेक्षा,
समझो, वह बाद में वह देर से आने पर वह पछतायेंगे।
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Saturday, July 31, 2010

इंसान की अकल, पत्थरों की प्रियतमा होती-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (insan ki akal patthron ki priyatma hoti-hindi vyangya kavitaen)

कभी मेरे बहते हुए पसीने पर
तुम तरस न खाना,
यह मेरे इरादे पूरे करने के लिये
बह रहा है मीठे जल की तरह,
इसकी बदबू तुम्हें तब सुगंध लगेगी
जब मकसद समझ जाओगे।
सिमट रहा है ज़माना वातानुकुलित कमरे में
सूरज की तपती गर्मी से लड़ने पर
जिंदगी थक कर आराम से सो जाती,
खिले हैं जो फूल चमन में
पसीने से ही सींचे गये
वरना दुनियां दुर्गंध में खो जाती,
जब तक हाथ और पांव से
पसीने की धारा नहीं प्रवाहित कर करोगे
तब अपनी जिंदगी को हाशिए पर ही पाओगे।

-------------------
अकल से भैंस कभी बड़ी नहीं होती,
अगर होती तो, खूंटे से नहीं बंधी होती।
यह अलग बात है कि इंसान नहीं समझते
इसलिये उनकी अक्ल भी अमीरों की खूंटी पर टंगी होती।
भैंस चारा खाकर, संतोष कर लेती है,
मगर इंसान की अकल, पत्थरों की प्रियतमा होती।
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ईमान और जज़्बात-हिन्दी शायरी (iaman aur jazbat-hindi shayri)

चलकर अमीरी का रास्ता
नहीं रहता अमन से वास्ता
दौलत के ढेर पर बैठकर
दिल का चैन पाना, बस एक ख्याल है,
कहीं खोना होगा अपनी असलियत,
कहीं बदलनी होगी वल्दियत,
ईमान सोने के भाव बिके
या खुद का जज़्बात कूड़ेदान में फिंके,
सिक्के झोली में भरते हुए होते हुए
कोई करना होता नहीं सवाल है।
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Sunday, June 6, 2010

सर्वशक्तिमान का रहस्य-हिन्दी शायरी (bhagavan ka rahasya-hindi shayri)

दौलत, शौहरत और ताकत का नशा
भले चंगे को रास्ते से भटका देता है,
शिखर पर पहुंचे हैं जो दरियादिल
उनसे जज़्बाती हमदर्दी का उम्मीद करना
बेकार है,
क्योंकि हो जाते हैं उनके सपने पूरे
पर दर्द के अहसास मर जाते हैं।

हाथ फैलायें खड़े हैं नीचे
उनसे दया की आशा करने वाले
कल यदि वह भी
छू लें आकाश तो
वैसे ही हो जायेंगे,
इस दुनियां में चलती रहेगी यह अनवरत जंग
मगरमच्छ के आहार के लिये
मछलियों को पालता है समंदर,
शिकार और शिकारी
शोषक और शोषित
और स्त्री पुरुष दोनों का होना जरूरी है शायद
सर्वशक्तिमान का रहस्य हम कहां समझ पाते हैं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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अपनी लड़ाई के अकेले सिपाही-हिन्दी शायरी (apni zindgi ke sipahi-hindi shayari

यकीन करो दूसरों के अधिकार और उद्धार की
लड़ाई लड़ने की बात जो करते हैं
वह संजीदा नहीं है,
क्योंकि उधार के ख्याल पर
गुजारी है उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी।

सारी उम्र लगा दी लोगों का भला करते हुए
पर एक बंदा भी वह खुश नहीं दिखा सकते,
ज़माने के कमजोर मोहरे ही
सोच रूपी शतरंज की बिसात पर वह मारते हैं,
अमन के लिये करते हैं कलह,
पैगाम सुनाते हुए दहाड़ते हैं।

इसलिये अपने दर्द
दिल में रखना सीख लो,
वरना बिक जायेंगे जज़्बात बीच बाज़ार,
न दिल भरेगा न जेब
हो जाओगे बेजार,
भलाई करने वाले जिंदा ही
नहीं मरों को भी हक दिलाते हैं,
धंधा है उनका कहीं देते भाषण तो
कहीं शब्दों की जंग सिखाते हैं।
अपनी लड़ाई के अकेले सिपाही
अपनी ताकत से ही जीतोगे अपनी जिंदगी।
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अहसास-हिन्दी शायरी (bonepan ka ahsas-hindi shayari)

हम जो भी दृश्य देखते
उस पर सोचने लगते हैं,
अपने अंतर्मन में पहले से ही स्थित
तयशुदा विश्लेषणों के अनुसार
उस पर निकालते हैं निष्कर्ष।

हम कुछ सुनते हैं
उस पर वैसे ही सोचते हैं
जैसे कि पहले सुना हो।

हम स्पर्श करते हैं फूल या लोहा
बेपरवाह होकर जैसे कि उनको पहले भी छू कर देखा है।

मतलब हम देख कर भी
कभी कुछ नया नहीं देख पाते,
सुनकर भी अहसास में ताज़गी नहीं पाते,
छूकर भी नया नहीं सोच पाते,

जिंदगी एक राह पर चलते हुए
बिता देना कितना सहज लगता है,
हम बेखबर हैं
बीतता है हमारा भी समय
घड़ियों की सुईयां घूमने से तो महज लगता है,
हाथ हिलाकर
पांव चलाकर
जिंदगी के चलने की अनुभूति करना ठीक है
पर अपनी सोच कभी आज़ाद नहीं रख पाये
जब होता है यह अहसास
आदमी अपने को बौना समझने लगता है।
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Wednesday, June 2, 2010

पैसे की धारा को सोखने के लिये-हिन्दी शायरी (vafadari ke dalal-hindi shayari)

हुक्मरानों ने तय कर दी सरहदें
आम इंसानों का रास्ता रोकने के लिये,
उनकी तन्ख्वाहों पर पलने वाले
पहरेदार खड़े हैं आजादी से चलने वालों को
टोकने के लिये।
सिंहासन पर बैठने वाले चलते हैं
उड़न खटोले में
सांस लेते हैं मातहतों के टोले में,
बेईमानों और दहशतगर्दों का
रास्ता कोई नहीं रोक पाता,
दौलतमंदों के लिये तो
हर कायदा लापता हो जाता,
सब जगह खजाना लूटने की लड़ाई,
नाम है बस, आम इंसान की भलाई,
खड़े हैं गाजर घास के टोले की तरह
वफदारी के दलाज सभी जगह
उसके पसीने से निकली
पैसे की धारा को सोखने के लिये।
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Tuesday, June 1, 2010

'कामरेड' शब्द को अलविदा-हिन्दी लेख

आखिर कामरेड शब्द का तिलिस्म टूट गया। कहना कठिन है कि चीन में साम्यवादी व्यवस्था एकदम खत्म हो जायेगी पर इतना तय कि कामरेड शब्द से पीछा छुड़ाना इसकी एक शुरुआत है। मार्क्सवाद पर आधारित विचारधाराओं का आधार केवल नारे और वाद हैं और कामरेड संबोधन उनकी पहचान है। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार चीन में अब बसों तथा होटलों में काम करने वालों को इस बात का प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि वह अपने ग्राहकों को ‘कामरेड’ की बजाय ‘सर’ या ‘मैडम’ कहकर संबोधित करें।
भारत की आधुनिक संस्कृति में भी यह शब्द बहुत प्रचलित है और यह कहना कठिन है कि इसे पूर्व सोवियत संघ से आयात किया गया या चीन से। कामरेड शब्द जनवादी सस्थाओं से जुड़े कार्यकताओं के लिये उपयेाग में किया जाता है। यही कार्यकर्ता अपने साथ व्यवहार करने वालों को ‘कामरेड’ कहकर संबोधित करते हैं।
विपरीत धारा का लेखक होने के बावजूद अनेक ‘कामरेड’ हमारे मित्र रहे हैं। एक समय था जब इन ‘कामरेडों’ की बैठक चाय तथा कहवाघरों पर हुआ करती थी। अनेक पत्र पत्रिकाओं में ऐसे लेख छपते थे जिसमें लेखक इन बातों का जिक्र करते थे कि चाय तथा कहवाघरों में उनकी जनवादी लेखकों के साथ मुलाकत होती है। कई लोग तो चाय तथा कहवाघरों पर ही कविता लिख देते थे। इसके अलावा मजदूर तथा कर्मचारी संगठनों में लंबे समय तक वामपंथी विचाराधारा के लोगों का वर्चस्व रहा है इसलिये ‘कामरेड’ शब्द का संबोधन आम हो गया है।
हमारी साहित्यक यात्रा भी प्रगतिशील और जनवादी लेखकों के साथ चलते हुए निकली है। सबसे पहला कविता पाठ जनवादियों के बीच में किया था तो व्यंग्य प्रगतिशीलों के मध्य प्रस्तुत किया । समय के साथ उनसे संपर्क टूटा पर मित्र आज भी मिलते हैं तो मन गद्गद् कर उठता है।
एक कामरेड की याद आती है। अपने जीवन की अपने पैरों पर शुरुआत एक कामरेड के साथ ही की थी। दरअसल एक अखबार में फोटो कंपोजिंग आपरेटर के रूप में हमारा चयन हुआ-यह समय वह था जब भारत में कंप्यूटर की शुरुआत हो रही थी और हम चार लड़के ग्वालियर से भोपाल प्रशिक्षु के रूप में गये। उसमें एक वासुदेव शर्मा हुआ करता था। शुद्ध रूप से जनवादी। साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद का धुर विरोधी। प्रशिक्षण के लिये वह हमारे साथ चला। उस समय हम अखबार में संपादक के नाम पत्र लिखते थे। विचारधारा वही थी जो आज दिखती है। वासुदेव शर्मा कोई लेखक नहीं था पर कार्यकर्ता की दृष्टि से उसमें बहुत सारी संभावना मौजूद थी। उससे बहस होती थी। उससे बहस में जनवाद और प्रगतिशील का पूरा स्वरूप समझ में आया। जहां तक व्यवहार का सवाल था वह एकदम स्वार्थी था और अन्य दो से एकदम चालाक! पैसे खर्च करने के नाम पर एकदम कोरा। उसकी बातें जोरदार थी पर लच्छेदार भाषण के बाद भी हमें एक बात पर यकीन था कि वह किसी का भला नहीं कर सकता। उसने एक बार कहा था कि ‘मैं खा सकता हूं पर खिला नहीं सकता।’
समय के साथ हम बिछड़ गये। वासुदेव शर्म से आखिरी मुलाकात 1984 में हुई थी। उसने बताया कि वह वामपंथियों एक प्रसिद्ध अखबार-उसका नाम याद नहीं आ रहा-में काम करता है। अब पता नहीं कहां है। वैसे इस बात की संभावना है कि वह कहीं न कहीं जनवादी संस्था के लिये काम करता होगा।
1984 में हुई उस मुलाकात के समय भी उसका रवैया वैसा ही था इसलिये एक बात समझ में आ गयी कि ‘कामरेड’ नुमा लेखकों या कार्यकर्ताओं से कभी अपनी बनेगी नहीं। मगर यह बात गलत निकली क्योंकि समय के साथ अनेक ‘कामरेड’ संपर्क में आये। एक मजदूर नेता तो हमारे व्यंग्यों की प्रशंसा भी करते थे। एक दिन तो उन्होंने हमारे एक चिंतन की सराहना की जो शुद्ध रूप से भारतीय अध्यात्म पर आधारित था।
इन कामरेडों ने हमेशा ही हमारे लिखे की तारीफ की जहां विचारधारा की बात आई तो वह रटी रटी बातें करते रहे। अमेरिका का धुर विरोध करना धर्म तथा पहले सोवियत संध और अब चीन का विकास उनके लिये एक आदर्श रहा है। एक ‘कामरेड’ मित्र तो हमसे मिलते तो ‘कामरेड’ शब्द से ही संबोधित करते थे अलबत्ता हम उनके उपनाम से ही बुलाते क्योंकि हमें ‘कामरेड’ शब्द का उपयेाग कभी सुविधाजनक नहीं लगा।
चूंकि विचाराधाराओं के लेखकों की धारा उनके राजनीतिक पैतृक संगठनों के अनुसार प्रवाहित होती है और इसलिये उनके उतार चढ़ाव के अनुसार वह हिचकौले खाते हैं। इस समय अपने देश के सभी प्रकार के विचाराधारा लेखक एक अंधियारे गलियारे में पहुंच गये हैं। इसका कारण यह है कि पैतृक संगठनों के अनुयायी है उनसे अपेक्षित परिणाम या जन कल्याण की अपेक्षा अब वह नहीं करते।
वैसे अंतर्जाल पर ब्लाग लेखन में यह अनुभव हो रहा है कि विचारधारा के लेखक भले ही अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप लिखने का प्रयास कर रहे हैं पर अपने पैतृक संगठनों की स्थिति से निराश होने के कारण जन कल्याण, भाषाई विकास तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मुद्दे पर सभी एक हो रहे हैं। कई बार ‘कामरेड’ और ‘जी’-कुछ संगठनों मे नाम के साथ जी लगाकर संबोधित किया जाता है-अनेक मुद्दों पर एकमत हो जाते हैं मगर यह सभी इंटरनेट की वजह से है। परंपरागत प्रचार प्रसार माध्यमों-टीवी चैनल, समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं-में बुद्धिजीवियों का रवैया यथावत क्योंकि वह इसीके लिये प्रायोजित हैं।
बात ‘कामरेड’ के तिलिस्म टूटने की है तो एक हमारी स्मृति के कुछ दिलचस्प बातें हैं। सबसे बड़ी बात यह कि जितने भी ‘कामरेड’ मिले उनमें से अधिकतर जातीय दृष्टि ये उच्च और प्रबुद्ध थे। जिस जाति पर पूरे धर्म पर बौद्धिक मार्गदर्शन का जिम्मा माना जाता है उनमें से ही कुछ ‘कामरेड’ थे। स्थिति यह कि उनके विरोधी विचारधारा वाले भी स्वजातीय। यहां यह बता दें कि इस लेखक के पूर्वज अविभाजित भारत के उस हिस्से से आये जो पाकिस्तान में शामिल है। परंपरागत जातीय प्रतिस्पर्धा से दूर होने के कारण इस लेखक को हर जाति, धर्म, भाषा, प्रदेश तथा समूह में ढेर सारे दोस्त मिले-दिल्ली, कश्मीर, बिहार, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडू, पंजाब और हरियाणा तथा अन्य प्रदेश तो पंजाबी, गुजराती, मलयालम, तमिल, मराठी, उड़ियाई तथा मैथिली तथा अन्य भाषाओं से जुड़े मित्रों का मिलना अपने आप में गौरव पूर्ण बात लगती है। उनसे प्रेम मिलने का कारण व्यवहार रहा तो सम्मान का कारण केवल लेखन रहा। इस पर श्रीमद्भागवत्गीता ने समदर्शी बना दिया तो भेद करना अपराध जैसा लगता है।
आखिरी मजे की बात यह है कि एक प्रबुद्ध जातीय ब्लाग लेखक ने ही चीन पर लिखे गये एक पाठ पर लिखा था कि ‘चीन में भी साम्यवाद की आड़ में बड़ी जातियों का ही स्वामित्व कायम हुआ है। इसलिये वहां भी जातीय तनाव होते हैं और तय बात है कि निम्न जातियों को ही उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है।’
वह ब्लाग लेखक आज भी सक्रिय है और उसकी बात की अपने ढंग से व्याख्या करें तो चीन के ‘कामरेड’ भी शायद वहां की उच्च और प्रबुद्ध जातीय समूहों के सदस्य ही बने होंगे-नुमाइश के लिये उन्होंने भी निम्न जातियों से भी लोग लिये होंगे। अब भारत में समय बदल रहा है तो चीन भी उससे बच नहीं सकता। परंपरागत जातीय तनाव इस समय भारत में चरम पर हैं क्योंकि पाश्चात्य सभ्यता के सामने उनका अस्तित्व लगभग समाप्ति की तरफ है। अंतद्वंद्व में फंसा समाज है और बुद्धिजीवी परंपरागत रूप से बहसें किये जा रहे हैं। अलबत्ता समाजों का बनना बिगड़ना प्रकृति की स्वाभाविक प्रक्रिया है और बुद्धिजीवियों को लगता है कि वह इसमें कोई भूमिका निभा सकते हैं जो कि सरासर भ्रम है। यही शायद चीन में हो रहा है और ‘कामरेड’ का भ्रम शायद इसलिये टूटता नज़र आ रहा है।
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बिना मतलब की हमदर्दी-हिन्दी शायरी (bina matalab ki hamdardi-hindi shayari)

मोहब्बत और मोहब्बत में
फर्क होता है,
एक ढलती उम्र के साथ कम हो जाती है
दूसरी मतलब निकलते ही खत्म हो जाती है।
जिसमें रिश्ते निभाने की न मजबूरी हो,
ऐसी उम्मीद न की जायें, जो न पूरी हों,
दिल का सौदा दिल से हो तो भी पाक नहीं हो जाता,
जिस्मानी लगाव मतलब से बाहर नहीं आ पाता,
रूह में बस जाये जिसके लिये
बिना मतलब की हमदर्दी
वही सच्ची मोहब्बत कहलाती है।
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ग़नीमत है-हिन्दी शायरी

गनीमत है इंसान के पांव
सिर्फ जमीन पर चलते हैं,
उस पर भी जिस टुकड़े पर जमें हैं
उसे अपना अपना कहकर
सभी के सीने तनते हैं,
हक के नाम पर हर कोई लड़ने को उतारू है।
अगर कुदरत ने पंख दिये होता तो
आकाश में खड़े होकर हाथों से
एक दूसरे पर आग बरसाते,
जली लाशों पर रोटी पकाते,
आदर्श की बातें जुबान से करते
मगर कोड़ियों में बिकने के लिये तैयार सभी बाजारू हैं।
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Thursday, May 27, 2010

जनवादियों और प्रगतिशीलों के लिये तत्वज्ञान विषतुल्य-हिन्दी व्यंग्य

जांच अधिकारी के ब्रह्मज्ञान से दुःखी जनवादी प्रेमी अपनी मृतक प्रेमिका की हत्या के मुकदमे में अपना दर्दभरा बयान करते हुए उसकी शिकायत करेगा-ऐसा कहीं पढ़ने को मिला। यह जनवादी प्रेमी पत्रकार है और अपनी पत्रकार प्रेमिका के माता पिता पर अपने सम्मान के लिये उसकी हत्या का आरोप लगा रहा है। इस जनवादी प्रेमी ने ही आर्यसमाज के एक मंदिर में अपनी उस स्वर्गीय प्रेमिका के साथ विवाह करने की तैयारी की थी, फिर प्रेमिका को अपने ही परिवार वालों की रजामंदी के लिये भेज दिया।
मामला यहीं से शुरु हुआ। यहीं से हम भी अपना विचार शुरु करते हैं। जनवादी दिखना एक शौक है पर यह कोई मुफ्त में नहीं पालता। इस तरह के शौक केवल भारतीय अध्यात्मवादी ही पाल सकते हैं कि बिना कुछ लिये दिये समाज निर्माण के लिये प्रयास करें। यह जनवादी कहीं न कहीं से प्रायोजित होने पर जोश के साथ सक्रिय होते हैं। कहीं कोई राजनीति, सामाजिक या गैर हिन्दू धार्मिक संगठन अपने आर्थिक स्त्रोत इनको उपलब्ध कराता है तो कहीं कोई विदेशी मानवाधिकार संगठन की इन पर कृपा होती है।
आमतौर से जनवाद और प्रगतिशील अलग अलग विचारधारायें मानी जाती हैं पर दोनों का मुख भारतीय दर्शन की दशा और दिशा के सामने विरोध में खुला रहता है। इनके बुद्धिजीवियों का देश पर इतना गहरा प्रभाव शैक्षणिक तथा सामाजिक संगठनों में रहा है कि परंपरावादी बुद्धिजीवी भले ही अलग सोचते हैं पर उनकी शैली भी इनकी तरह हो गयी है। जनवादी या प्रगतिशील समाज को एक शासित होने वाली इकाई मानते हैं और उनका प्रयास यही है कि जन कल्याण के सारे काम केवल राज्य डंडे के जोर पर करे। जबकि परंपरा के अनुसार राज्य और समाज एक पृथक इकाई है और दोनों के शिखर पुरुष अपने ढंग से काम करें यही श्रेयस्कर है। राज्य का जितना कम हस्तक्षेप समाज में होगा उतना ही वह विकसित हो सकेगा। मगर स्थिति यह है कि इन जनवादियों और प्रगतिशीलों ने परिवारों तक में कानून का हस्तक्षेप करा दिया है। हत्या एक जुर्म है पर कहीं दहेज हत्या को अलग कर नया कानून बनवा दिया। आतंकवाद की हत्या को अलग परिभाषित कर अलग से कानून बना। औरत और मर्द के जिंदगी के अलग अलग रूप दिखाये जाते हैं। मतलब जीने और मरने में की स्थितियों में भेद पैदा किया और बात करते हैं जबकि दावा यह कि समतावाद ला रहे हैं।
एक मजे की बात है कि समाज को आधार प्रदान करने वाले सक्रिय, कमाऊ तथा प्रतिभावान पुरुष इन जनवादियों और प्रगतिशीलों की दृष्टि से जारशाही का प्रतीक है जो केवल अपनी स्त्री तथा बच्चों पर अन्याय करता है। जनवादी और प्रगतिशील विचारकों के इस समूह को कथित विकासवादी भी मान सकते हैं जिनको ब्रह्मज्ञान तो अपना दुश्मन दिखाई देता है।
बहरहाल जनवादी प्रेमी इस समय ऐसे ही विकासवादियों का नायक बना हुआ है। वह शादी रद्द करने के पीछे जो तर्क दे रहा है वह ब्रह्मज्ञानियों को हज़म नहीं हो सकता। उसकी स्वर्गीय प्रेमिका ने माता पिता के इच्छा के बिना विवाह की तारीख तय की और फिर चली गयी। जनवादी प्रेमी चाहे कितना भी कहे कहीं न कहीं उसके प्रति दहेज की भारी रकम पाने का मोह जरूर उसमें रहा होगा। जहां तक जनवादी बुद्धिजीवियों का प्रश्न है वह बिना प्रायोजन के न तो किसी अभियान पर लिखते हैं न बोलते हैं ऐसे में वह प्रेमी बिना प्रायोजन के विवाह करता है इसमें संदेह है। विकासवादी तो प्रायोजित होकर काम करते हैं इसलिये यह संभव नहीं है कि कथित पत्रकार प्रेमी अपने अंदर के किसी कोने में दहेज का मोह न पालता हो। दूसरी बात यह है कि दिल्ली में उसकी स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं हो सकती थी जहां वह सभ्रांत परिवार का रूप प्रदर्शित कर सकता-संभव है शादी और बच्चे होने के बाद नमक रोटी के चक्कर में जनवाद का भूत साथ छोड़ देता।
विकासवादी बुद्धिजीवी युवक युवतियां ढाबों या होटलों पर जाकर काफी या चाय पीते हुए फोटो जरूर खिंचवाते हैं और उसके लिये पांच सौ से हजार तक की रकम उनके पास उपलब्ध भी हो जाती होगी पर घर गृहस्थी एक विशाल अंतहीन अभियान है जिसमें ढेर सारे रुपये चाहिये। फ्रिज, गाड़ी कूलर या ऐसी, टीवी तथा अन्य सामान न हो तो गृहस्थी किसी मज़दूर जैसी लगती है-यह अलग बात है कि महल बनाने वाले ईंटों की कच्ची झोंपड़ियों में रहते हुए कुछ मजदूरों के घर में भी आजकल यह सामान दिख ही जाता है-और विकासवादी बुद्धिजीवी कितना भी मज़दूरों, गरीबों तथा बेसहारों के कल्याण के लिये सक्रिय हो पर वह स्वयं वैसा दिख नहीं सकता। उसे तो जींस पहनना है और ढाबे या होटल में खाना है, सबसे बड़ी बात यह कि स्मार्ट दिखना है। इसके लिये चाहिए पैसा! शादी का मामला हो तो दहेज छोड़ने का काम कोई ब्रह्मज्ञानी ही विरला ही कर सकता है प्रायोजन के आदी विकासवादियों से ऐसी अपेक्षा निरर्थक है।
उस जनवादी पत्रकार की स्वर्गीय प्रेमिका की मासूम मां जेल में है और वह भी नारी है पर जनवादियों के सहयोगी नारीवादी बिना इसकी परवाह किये रोज प्रदर्शन किये जा रहे हैं। इनकी चालाकी कोई नहीं समझ पाता। यह अपना घर बचाये रखने और प्रचार पाने के लिये किसी भी बर्बाद घर की आग पर अपनी रोटी सैंक सकते है, कोई मर गया तो फिर तो इनकी पौ बारह है क्योंकि प्रचार माध्यमों में सहानुभूति लहर इनके पक्ष के अनुसार ही बहती है। उसे न्याय दिलवाना है! इन कथित बुद्धिमानों से कौन पूछ कि मरे हुए आदमी के लिये इस संसार में रह ही क्या जाता है जहां वह न्याय जैसी दुर्लभ चीज पाकर सजायेगा? मगर यह ब्रह्मज्ञान की बात है जो इनको विष तुल्य लगेगी।
जांच अधिकारी मृतक युवती के जनवादी मित्रों को ब्रह्मज्ञान दे रहा होगा उसे इसका आभास नहीं है कि सांप काटे हुए आदमी को पानी पिला रहा है जो कि उसके लिये विष तुल्य है। जनवाद ने जिसके दिमाग को काट लिया उसके लिये ब्रह्मज्ञान विष की तरह ही है। जिस तरह माया के शिखर पर बैठे आदमी को सत्य से डर लगता है वैसे ही जनवाद को ब्रह्मज्ञान से भय लगता है।
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