Wednesday, September 21, 2016

मिट गये दिल से सपनों के निशान फिर भी उम्मीद रौशन कर रखी है-दीपकबापूवाणी (Mil gaye sapane fir bhe ummid roshan ka rakhi hai-Deepakbapuwani)


दौलत चंद हाथों ने जमा की है, बहुतेरों को गरीबी थमा दी है।
‘दीपकबापू’ सच से छिपाया मुंह, धोखे की खबर जमा कर ली है।
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धन से छल का प्रमाणपत्र मिल जाता है, पद से नकली गुलाब खिल जाता है।
कौन पूछता खाने की महफिल में हिसाब, हर कोई रोटी पर पिल जाता है।।
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राजपद मे मोह में सभी फंसे, धर्म का नाम लेकर पाप में पूरे धंसे।
‘दीपकबापू’ आप जुटाते पद पैसा, अपने कांड छिपायें दूसरे पर हंसे।।
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बंदिशों से उकताये लोग बदहाली में आजादी ढूंढते है।
होश में खौफजदा हैं, मदहोशी में चैन की चांदी ढूंढते हैं।
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आरोपों के दौर चलते, सबूत के बिना सिद्ध होना नहीं है।
बिना लक्ष्य चलते शब्दतीर, किसी को कुछ खोना नही है।
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नर्तक गवैये मोहक अदाओं से लोगों में हवस की आग जलाते।
बहका मन बंधक हुआ सौदागर आजादी के राग से बहलाते।
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कौन भला या बुरा पता न चले, वही मशहूर जो दाम में फले।
‘दीपकबापू’ गरीब के मालिक बने, चालाक खिलाड़ी दिखते भले।।
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शहर में तनाव के हाल बनते हैं, अमन पसंदों के तंबू भी तनते हैं।
‘दीपकबापू’ हमेशा खतरों से घिरे हैं, खौफनाकों के भी महल बनते हैं।
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खूनखराबे की जोरदार खबर होती है, बुद्धि वीभत्स रस में खुश होती है।
‘दीपकबापू’ तमाशे में मसाले डालते, दिमाग की धारा हर स्वाद ढोती है।।
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मिट गये दिल से सपनों के निशान फिर भी उम्मीद रौशन कर रखी है।
जिंदगी से क्या शिकायत करना कभी चुपड़ी कभी सूखी रोटी चखी है।
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कातिलो पर फिदा होते कलमकार, स्याही बन जाती खूनी की मददगार।
सम्मान की चाहत में अंधे मानवता के रक्षक हो जाते समाज के गद्दार।।
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अपने मतलब से कायदे बदलें, अमीर के नाम गरीब के फायदे बदलें।
‘दीपकबापू’ लफ्फाज बने मुखिया, शोर के साथ शांति के नारे बदलें।।
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अपनी स्वच्छ छवि सिर्फ सम्मान पाने के लिये ही नहीं बनाते हैं।
कालिख न ले जाये काली कोठरी, सेवाघर यूं ही नहीं बनाते हैं।
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सपने में भोजन की थाली सजाते, रोटी नाम सुनकर भूखे ताली बजाते।
‘दीपकबापू’ फंसे महंगाई के जाल में, लाचारं मौन शब्द भी गाली सजाते।।
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शब्द कुछ बोलने होते घमंड में कुछ और बोल जाते हैं।
गनीमत है गलती से ही दिल के राज खोल जाते हैं।
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