कोटा से घर आते ही हमने मुख्य दरवाजा खोलकर जैसे ही आंगन में पड़ा अखबार उठाया तो उसमें बड़े बड़े अक्षरों में छपा मुख्य समाचार देखा कि पांच सौ तथा एक हजार के नोट बंद हो गये हैं। कोटा में एक दिन पहले ही हम रात्रि नौ बजे छावनी के बस अड्डे पर जब खड़े बस का इंतजार कर रहे थे तो एक लड़की को कहते सुना था कि ‘जो नोट बंद हुए हुए हैं उनकी सीरिज देखनी पड़ेगी।’
यह सुनकर अजीब लगा। हमने सोचा शायद किसी सीरिज के नोट बंद हुए होंगे या फिर कोई ऐसी बात है जो हमारी समझ में नहीं आयी ।
सारी रात बस में सोते हुए चलते रहे। इसका बिल्कुल अंदाज नहीं था कि जिन एक हजार और पांच सौ का नोट हम चोर जेब में दबाये हुए हैं वह कागज हो गये हैं और पर्स में सौ तथा दस का नोट ही हमारा एकमात्र सहारा है।
हम एक शादी में शािमल होने कोटा गये थे। शादी के बाद वहां तलवंडी में एक होटल में ही रहे। सुबह पास एक एटीएम में गये वहां से तीन हजार रुपये निकाले-हालांकि तब हमारी जेब में एक हजार का नोट था। हमने यह सोचकर पैसे निकाले कि पांच और सौ के नोट मिलेंगे-पर हजार के नोट हाथ आये जिससे निराशा हुई। क्या पता था कि अगले चौबीस घंटे मेें आपातकाल के लिये निकाले गये रुपये हमारे लिये परेशानी का कारण बनने वाले थे। अब जेब में सौ के चार नोट और दस दस रुपये के आठ नोट हैं। अभी तत्काल कुछ खरीदना नहीं है पर हम हजार पांच सौ का नोट होते हुए भी कोई चीज खरीद नहीं सकते यह बात ज्यादा परेशान कर रही है।
कोटा में एक हजार के नोट खुले करवाये तो पांच सौ के मिले। फिर पांच सौ के खुले करवाये।
अगर हम एक दिन कोटा में रह जाते तो यकीनन हमें उधार लेकर घर वापस आना पड़ता। एक हजार के नोट से हमने एक दो सौ रुपये की एक चप्पल खरीदी और सात सौ रुपये की टिकट ली। कुछ अन्य खरीददारी का सोचा पर समयाभाव के कारण कार्यक्रम स्थगित कर दिया। हम सोच रहे हैं कि काश! हजार का एक दो नोट ठिकाने लगा दिया होता। अब तो तीन चार दिन बाद ही बैंक जाकर देखेंगे कि नोट बदल पाते हैं कि नही। वैसे कल एटीएम खुल जायेगा इसलिये पैसा तो निकालने की कोशिश करेंगे। तसल्ली है कि अपने ही शहर और घर में हैं।
अब अपने शहर में बैठे हम कोटा की यात्रा का सुख तो भूल गये यह सोचकर खुश हो गये कि ‘अच्छा हुआ, लौट कर बुद्धु घर आये।
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गरीब या गरीबी की रेखा वालों के पास बड़े नोट इतने नहीं होंगे जितना प्रचार हो रहा है
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जिसके पास पांच सौ या हजार का नोट है वह गरीब या उसके नीचे की रेखा के नीचे रहने वाला हो ही नहीं सकता। अब यह मत कभी न कहना कि हमने गरीबी या गरीब नहीं देखे। न ही यह कहना कि मजदूरी करना नहीं जानते। अपने बेरोजगारी काल में वाणिज्य स्नातक होने के बावजूद जूतों की दुकान पर नौकरी करते हुए ठेला चलाया। सत्तर रु. वेतन था और तब भी सौ का नोट प्रचलन में होने के बावजूद हाथ नहीं आया था। यह जनवादी पता नहीं कौनसे गरीबों का रोना रोते हैं जिनके पास पांच सौ का नोट हो सकता है। बेबस को शक्तिमान और गरीबों को अमीर बनाने का यह सपना बेच सकते हैं साकार करना उनके बूते का नहीं।
हम सोच नहीं पा रहे कि डोनाल्ड ट्रम्प की जीत पर लिखें या कालेधन पर सर्जीकल स्ट्राइक पर। इस पर सोचते हैं तो उस तरफ ध्यान जाता है और उस पर ध्यान देते हैं तो इस तरफ आता है। संभव है राष्ट्रवादी भी ऐसे ही उलझन में फंसें हों। पर अब तो हम सोचते थक गये सो शुभरात्रि।
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