Sunday, October 20, 2013

व्यायाम वाले आसन योग साधना का अनिवार्य भाग नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख(पतंजलि योग साहित्य),excersize not part of yag sadhana(patanjali yoga scince or sahitya)



                                    भारतीय योग सूत्र में आठ भाग हैं जिसमें आसन का क्रम चौथे पर आता है।  आजकल योग शिक्षकों ने विभिन्न प्रकार के व्यायामों को भी आसन कहना प्रारंभ किया है। यह बुरा नहीं है पर जिनको योग साधना का ज्ञान रखना है उन्हें यह समझना चाहिये कि आसन से आशय  केवल देह की स्थिरता से है।  अनेक लोग शारीरिक श्रम करते हैं उनको आसन के नाम पर व्यायाम करने से थोड़ी हिचक होती है। उन्हें लगता है कि वह तो श्रम कर पसीना बहाते हैं इसलिये उनको किसी प्रकार की  योग साधना की आवश्यकता नहीं है।  इसी भ्रम के कारण अनेक लोग योगासन की अपेक्षा कर देते हैं। दूसरी बात यह है कि जिनका जीवन सुविधामय है वह योगासन के नाम पर केवल व्यायाम कर दिल बहला लेते है।  उन्हें आसन का आशय पता नहीं है जिस कारण वह पूरा लाभ उठा नहीं पाते।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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स्थिरसुखमासनम्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-स्थिर सुख से बैठने का का नाम आसन है।

                        आसनों के बहुत भेद नहीं है। हालांकि अनेक विद्वानों ने समय समय पर योग विद्या के विकास के लिये काम किया है जिससे अनेक प्रकार के व्यायाम के प्रकारों को भी आसन बताया जाता है।  इन आसनों के बीच सांसों को रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया के समय देह के स्थिर होने पर आसन स्वतः ही लगता है। आधुनिक युग में अनेक प्रकार के आसनों का अविष्यकार इसलिये भी किया गया ताकि शारीरिक श्रम से परे लोगों को व्यायाम के लिये सुविधा मिल सके।  मूलतः रूप से शरीर को स्थिर रखने का नाम ही आसन है।  जिन लोगों को व्यायाम आदि करने से हिचक लगती है या वह इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते उन्हें किसी शुद्ध स्थान पर त्रिस्तरीय आसन पर बैठना चाहिये।  श्रीमद्भागवत गीता में कुश, मृगचर्म और वस्त्रों को बिछाकर आसन लगाने की बात कही गयी है। आधुनिक युग में मृगचर्म आम रूप से उपलब्ध नहंी है तो उसके लिये दरी को वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। कुश न मिले तो प्लास्टिक की चादर ली जा सकती है पर आजकल शादी विवाहों में जो जूट के कालीन बिछाये जाते हैं उनके छोटे टुकड़े भी उपयोग मेें लाये जा सकते है।  इन्हें बिछाकर शांति और सुख से बैठकर प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप किये जा सकते हैं। जिन लोगों को प्रातः घूमने की आदत है उन्हें भी उसके पश्चात् इस तरह आसन बिछाकर ध्यान योग अवश्य करना चाहिये।
                        हमारे यहां अनेक योग शिक्षक अलग अलग प्रकार से शिक्षा दे रहे हैं। उनमें कोई विरोधाभास नहीं है पर आम लोग कहंी न कहीं भ्रमित हो जाते हैं।  अनेक लोग इसी कारण योग करने में हिचकते हैं कि आखिर किस तरह इसे करें? उन्हें यह समझना चाहिये कि व्यायाम हालांकि योग का भी भाग है पर उसे करें यह आवश्यक नहीं है।  योग का मूल रूप मनुष्य के स्थिर होकर बैठने के बाद प्राणायाम, ध्यान, धारणा, और समाधि करने की प्रक्रिया में संलिप्त होना है।  अपनी इंद्रियों को आत्मा से और आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग साधना का सर्वोच्च परिणाम है। इसी से मनुष्य जीवन की आधार  देह में शुद्धता, मन में दृढ़ता विचारों में पवित्रता के साथ ही व्यक्तित्व में तेज का निर्माण होता है।  वैसे इस विषय पर अगर कोई गुरु अपनी बात कहे तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये पर साथ ही योग विषय पर साहित्य का अध्ययन कर स्वयं भी प्रयोग करना चाहिये।
                       

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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Friday, October 11, 2013

दिल के सौदागर-हिन्दी व्यंग्य कविता(Dil ke saudagar-hindi vyangya kavita,traders of heart-hindi satire poem)



खूबसूरत चेहरे निहार कर
आंखें चमकने लगें
पर दिल लग जाये यह जरूरी नहीं है,
संगीत की उठती लहरों के अहसास से
कान लहराने लगें
मगर दिल लग जाये जरूरी नहीं है।
जज़्बातों के सौदागर
दिल खुश करने के दावे करते रहें
उसकी धड़कन समझंे यह जरूरी नहीं है।
कहें दीपक बापू
कर देते हैं सौदागर
रुपहले पर्दे पर इतनी रौशनी
आंखें चुंधिया जाती है,
दिमाग की बत्ती गुल नज़र आती है,
संगीत के लिये जोर से बैंड इस तरह बजवाते
शोर से कान फटने लगें,
इंसानी दिमाग में
खुद की सोच के छाते हुए  बादल छंटने लगें,
अपने घर भरने के लिये तैयार बेदिल इंसानों के लिये
दूसरे को दिल की चिंता करना कोई मजबूरी नहीं है।

दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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Thursday, October 3, 2013

आचरण में शुद्धता वाले को ही गुरु बनायें-हिन्दी चिंत्तन लेख(acharan mein shuddhta wale ko hee pana guru banayen-hindi chinttan lekh,hindi thought article)



                        दो हाथ, दो पांव, दो आंखें, दो कान और दो छिद्रों वाली नासिका हर देहधारी मनुष्य के पास प्रत्यक्ष दिखती हैं।  उसमें मौजूद मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियां भी रहती हैं पर वह प्रकटतः अपनी उपस्थिति का आभास नहीं देती।  फिर भी मनुष्य के चरित्र, व्यवहार, विचार और व्यक्तित्व में भिन्नता की अनुभूति होती है।  इस भिन्नता का राज समझने के लिये श्रीगीता में वर्णित विज्ञान सूत्रों को समझना जरूरी है।  उसमें जिस त्रिगुणमयी माया के बंधन की चर्चा की गयी है वह दरअसल ज्ञान का वह सूत्र है जिसका वैज्ञानिक अध्ययन करने पर मनुष्यों में व्याप्त इस भिन्नता को समझा जा सकता है।
                        कर्म, स्वभाव, विचार, व्यवहार, और व्यक्तित्व सात्विक, राजस और तामस तीन प्रकार के ही होते हैं। आमतौर से लोग अपने स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं जो कि राजस भाव है।  अगर मनुष्य पूरी तरह से राजस बुद्धि से ही कर्म करे तो भी एक बेहतर स्थिति है पर होता यह है कि लोग कर्मफल के लिये इतने उतावले रहते हैं कि उनकी बुद्धि शिथिल हो जाती है।  वह अपने कार्य के लिये दूसरों की राय के लिये मोहताज रहते हैं। यह बुद्धि का आलस्य तामस वृति का परिचायक है।  इस विरोधाभास को हम अपने समाज में देख सकते हैं। इस प्रकार के आचरण ने ही समाज में अंधविश्वास को जन्म दिया है।
                        शुद्ध हृदय के साथ अगर निष्काम भाव से भगवान की भक्ति की जाये तो न केवल अध्यात्मिक विषय में दक्षता प्राप्त होती है वरन् सांसरिक कार्य भी सिद्ध होते हैं।  यह सभी जानते हैं पर उसके बावजूद कर्मकांडों के नाम पर तांत्रिकों और कथित सिद्धों के पास अनुष्ठान कराने जाते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार सारे मनुष्य अपने कर्म के अनुसार फल पाते हैं पर हमारे देश में कथित रूप से ऐसे कर्मकांडों को माना जाने लगा है जिससे लोग अपने पुरखों को स्वर्ग दिलाने के साथ ही अपने लिये वहां  स्थान सुरक्षित करने के लिये अनुष्ठान करने के लिये तत्पर रहते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार भक्ति का सवौत्तम रूप निरंकार ब्रह्म की निष्काम उपासना है। दूसरे क्रम में देवताओं यानि सकाम भक्ति को भी स्वीकार किया गया है। पितर या प्रेत भक्ति को तीसरा स्थान दिया गया है। हमारे देश के निरंकार की उपासना करने वाले बहुत कम हैं पर साकार रूप के उपासक भी अंततः प्रेत पूजा हठपूर्वक करते हैं। यह भी तामस प्रकृति है। लोग कहते हैं कि क्या हुआ अगर हमने सभी तरह से सभी स्वरूपों की पूजा कर ली? दरअसल यह अस्थिर भक्ति भाव को दर्शाता है जो कि शुद्ध रूप से तामस प्रकृति का प्रमाण है।
                        हमारे देश में कथित रूप से श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान के अनेक प्रचारक हैं पर उनका आचरण देखकर यह कभी नहंी लगता कि उन्होंने स्वयं उस ज्ञान को धारण किया हुआ है।  ज्ञान होने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता बल्कि उसे धारण करने वाला ही सच्चा ज्ञानी है।  ज्ञानी कभी आत्मप्रचार नहीं करते वरन् उनके आचरण से लोगों को स्वयं सीखना चाहिये।  लोग यह चाहते हैं कि बने बनाये और प्रचारित गुरुओं का सानिध्य उन्हें मिल जायें। वह उनके पंाव छूकर स्वयं को धन्य समझते हैं।  यहां लोगों से अधिक उन कथित गुरुओं के अज्ञान पर हंसा जा सकता है।  संत कबीरदास ऐसे गुरुओं का पाखंडी मानते हैं जो दूसरों से अपने पांव छुआते हैं।  गुरु कभी शिष्यों का संग्रह नहीं करते और न ही शिष्यों को ज्ञान देने के बाद फिर अपने पास चक्कर लगवाते हैं।  इस सब बातों को देखें तो हम यह बात मान सकते हैं कि धर्म के नाम पर हमारे यहां तामस प्रवृत्तियों वाले लोग  अधिक सक्रिय हैं। सच बात तो यह है कि गुरु सहज सुलभ नहीं होते। न ही रंग विशेष का वस्त्र पहनने वाले लोग ज्ञानी होेते हैं। ज्ञानी कोई भी हो सकता है।  संभव है किसी ने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नहीं किया हो पर उसके अंदर स्वाभाविक रूप से वह मौजूद हो।  यह उसके कार्य तथा जीवन शैली से पता चल जाता है। अंतः गुरु के रूप में उसी व्यक्ति को स्थान देना चाहिये जो सांसरिक विषयों में लिप्त रहने के बावजूद अपने आचरण में शुद्धता का पालन करता है।

दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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