Tuesday, December 31, 2013

मुफ्त का मजा-हिन्दी व्यंग्य(mufta ka maza-hindi vyangya)



           
            हमारे देश में गरीब तो छोड़िये अमीर आदमी भी मुफ्त वस्तु की चाहत छोड़ नहीं चाहता।  अगर कहीं मुफ्त खाने की चीज बंट रही है तो उस पर टूटने वाले सभी लोग भूख के मारे परेशान हों, यह जरूरी नहीं है।  कहीं भजन हो रहा है तो श्रद्धा पूर्वक जाने वाले लोग कम ही मिलेंगे पर अंगर लंगर होने का समाचार मिले तो उसी स्थान पर भारी भीड़ जाती मिल जायेगी। हालांकि कहा जाता है कि हम तो प्रसाद खाने जा रहे हैं। 
            हमारे देश में लोकतंत्र है इसलिये लोगों में वही नेता लोकप्रिय होता है जो चुनाव के समय वस्तुऐं मुफ्त देने की घोषणा करता है।  सच बात तो यह है कि लोकतंत्र में मतदाता का मत बहुत कीमती होता है पर लोग उसे भी सस्ता समझते हैं। यहां तक मतदान केंद्र तक जाने के कष्ट को कुछ लोग मुफ्त की क्रिया समझते है। वैसे हमारे देश के अधिकतर लोग समझदार हैं पर कुछ लोगों पर यह नियम लागू नहीं होता कि वह इस लोकतंत्र में मतदाता और उसके मत की कीमत का धन के पैमाने से अंाकलन न करें।
            पानी मुफ्त मिलता है ले लो। लेपटॉप मिलता है तो भी बुरा नहीं है पर मुश्किल यह है कि यही मतदाता एक नागरिक के रूप में सारी सुविधायें मुफ्त चाहता है और अपनी जिम्मेदारी का उसे अहसास नहीं है।  जब प्रचार माध्यमों में आम इंसान की भलाई की कोई बात करता है तब हमारा ध्यान कुछ ऐसी बातों पर जाता है जहां खास लोग कोई समस्या पैदा नहीं करते वरन् आम इंसान के संकट का कारण आम इंसान ही निर्माण करता है।
            कहीं किसी जगह राशनकार्ड बनवाने, बिजली या पानी का बिल जमा करने, रेलवे स्टेशन पर टिकट खरीदने  अथवा कहीं किसी सुविधा के लिये आवेदन जमा होना हो वहां पंक्तिबद्ध खड़े होने पर ही अनेक आम इंसानों को परेशानी होती है। अनेक लोग पंक्तिबद्ध होना शर्म की बात समझते हैं। ऐसी पंक्तियों में कुछ लोग बीच में घुसना शान समझते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि दूसरों पर इसकी क्या प्रतिकिया होगी?
            जब हम समाज के आम इंसानों को अव्यवस्था पैदा करते हुए देखते हैं तब सोचते हैं कि आखिर कौनसे आम इंसान की भलाई के नारे हमारे देश में बरसों से लगाये जा रहे हैं। यह नज़ारा आप उद्यानों तथा पर्यटन स्थानों पर देख सकते हैं जहां घूमने वाले खाने पीने के लिये गये प्लास्टिक के लिफाफे तथा बोतलें बीच में छोड़कर चले जाते हैं। वह अपना ही कचड़ा कहीं समुचित स्थान पर पहुंचाने की अपनी जिम्मेदाीर मुफ्त में निभाने से बचते हैं।  उन्हें लगता है कि यह उद्यान तथा पर्यटन स्थान उनके लिये हर तरह से मुफ्त हैं और वहां कचर्ड़ा  स्वचालित होकर हवा में उड़ जायेगा या फिर जो यहां से कमाता है वही इसकी जिम्मेदारी लेगा।
             हमारे एक मित्र को प्रातः उद्यान घूमने की आदत है।  वह कभी दूसरे शहर जाते हैं वहां भी वह मेजबान के घर पहुंचते ही सबसे पहले निकटवती उद्यान का पता लगाते हैं।  जब उनसे आम इंसान के कल्याण की बात की जाये तो कहते हैं कि खास इंसानों को कोसना सहज है पर आम इंसानों की तरफ भी देखो।  उनमें कितने  मु्फ्तखोर और मक्कार है यह भी देखना पड़ेगा। मैं अनेक शहरों के उद्यानों में जा चुका हूं वहां जब आये आम इंसानों के हाथ से  फैलाया कचड़ा देखता हूं तब गुस्सा बहुत आता है।
            वह यह भी कहते हैं कि धार्मिक स्थानों पर जहां अनेक श्रद्धालु एकत्रित होते हैं वह निकटवर्ती व्यवसायी एकदम अधर्मी व्यवहार करते हैं। सामान्य समय में जो भाव हैं वहां भीड़ होते ही दुगुने हो जाते हैं। उस समय खास इंसानों को कोसने की बजाय मैं सोचता हूं कि आम इंसाना भी अवसर पाते ही पूरा लाभ उठाता है। भीड़ होने पर पर्यटन तथा धार्मिक स्थानों पान खाने पीने का सामान मिलावटी मिलने लगता है।  इतना ही नहीं धार्मिक स्थानों पर मुफ्त लंगर या प्रसाद खाने वाले हमेशा इस तरह टूट पड़ते दिखते हैं जैसे कि बरसों के भूखे हों जबकि उनको दान या भोजन देने वाले स्वतः ही चलकर आते हैं। हर जगह भिखारी अपना हाथ फैलाकर पैसा मांगते हैं। देश को बदनाम करते हैं। अरे, कोई विदेशी इन भुक्कडों देखने पर  यही कहेगा कि यहां भगवान को इतना लोग  मानते हैं उसकी दरबार के बाहर ही अपने भूख का हवाला देकर मांगने वाले इतने भिखारी मिलते हैं तब उनके विश्वास को कैसे प्रेरक माना जाये।  वह इतनी सारी निराशाजनक घटनायें बताते हैं कि लिखने बैठें तो पूरा उपन्यास बन जाये।
            ऐसा नहीं है कि हम इस तरह के अनुभव नहीं कर पाये हैं या कभी लिखा नहीं है पर इधर जब आम आदमी की भलाई की बात ज्यादा हो रही है तो लगा कि उन सज्जन से उनकी बात पर इंटरनेट पर लिखने का वादा क्यों न पूरा किया जाये। हम जैसे लेखक इसी तरह मुफ्त लिखकर मुफ्त का मजा उठाते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Sunday, December 22, 2013

पत्थरों की सितारों जैसी शान है-हिन्दी व्यंग्य कविता(pattharon ki sitaron jaisee shaan hai-hindi vyangya kavita-hindi vyangya kavita)

ऊंचे सपने बेचना आसान है,
बाज़ार में खरीददारों की भीड़ लग जाती
बदहाल हर आम इंसान है।
कहें दीपक बापू
जितनी महंगाई बढ़ेगी
सस्ते सामान दिलाने के भाषण पर
भीड़ जुट जायेगी,
मिले न अन्न का दाना
शब्दों पर ही वाह वाह गायेगी,
बेईमानी पर सुनाओ ढेर सारी कथायें,
इसी तरह अपनी ईमानदारी बतायें,
प्यासे पर पानी की बरसात का करें वादा,
लूट लें तारीफ मुफ्त
न हो भले एक बूंद देने का इरादा,
भगवान भरोसे चला है देश हमेशा
पत्थरों पर पोता गया सौंदर्य प्रसाधन
सितारों जैसी बनी गयी उनकी शान है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Monday, December 2, 2013

इज्जत-तीन क्षणिकायें (izzat-three short hindi poem)



इज्जत के मायने अब बदल गये हैं,

अनमोल कहने के दिन ढल गये हैं।

कहें दीपक बापू ऊंचे दाम नहीं लगाये

ऐसे कई लोगों के हाथ जल गये हैं।

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खुला बाज़ार है इज्जत भी मिल जाती है,

महंगी बिकने की बात सभी को भाती है,

कहें दीपक बापू सस्ती खरीदने के फेर में

किसी की इज्जत मिट्टी में भी मिल जाती है।

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इज्जत न करो तो किसी पर गाली भी न बरसाओ,

अपनी अदाओं पर रखो नजर फिर न पछताओ,

कहें दीपक बापू सभी की इज्जत अनमोल है

सभी को  सलाम कर अपने को बचाओ।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Saturday, November 2, 2013

दिवाली और धनतेरस की बधाईःदूसरे को प्रसन्न देखकर खुश होने की कला सीखो-हिन्दी चिंत्तन लेख(diwali aur dhanteras ki badhai:dusre ko prasanna dekhkar khush hone ki kala seekho-hindi chinttan lekh,hindi thought article



                        भारत में अन्य त्यौहारों की तरह दिपावली भी अत्यंत उल्लास से मनायी जाती है।  हालांकि भारत पर्वों का देश माना जाता है पर यहां दिवाली सबसे अधिक दिन तक मनाया जाता है। एक दिपावली का पर्व तीन से पांच दिन तक अपने उल्लस का प्रभाव बनाये रखता है।  कल धनतेरस का दिलन था। बाज़ार में जमकर खरीददारी हुई।  छोटे व्यापारियों के लिये दिवाली का त्यौहार वर्ष भर तक आय देने वाला पर्व माना जाता रहा है यह अलग बात है कि अब मॉल सस्ंकृति के आ जाने से पंरपरागत व्यवसायियों के लिये अपने कार्य में आय का आकर्षण कम हुआ है।
                        हालांकि महंगाई ने भारतीय उपभोक्ता के समक्ष भारी संकट पैदा कर रखा है इसके बावजूद  बाज़ार में लोगों की भीड़ बहुत रहती है पर बहुत कम लोग खरीददारी कर पाते है। अनेक तो भाव पूछकर ही त्यौहार मना लेते हैं। दुकानदार जब किसी वस्तु का भाव बताता है तो बहुत कम ग्राहक अपनी प्रसन्नता या उल्लास बरकरार रख पाते है। अनेक लोग तो छोटे सामान खरीदकर ही औपचारिकता निभाते हैं तो कुछ बाज़ार में खापीकर ही धनतेरस मनाकर अगले वर्ष अच्छी संभावनाओं का विचार कर लौट आते है।
                        सभी के पास पैसा अधिक नहीं है पर जिनके पास है उन्हें तो कीमत की परवाह ही नहीं होती।  हम जैसे चिंत्तक बाज़ार में घूमकर ऐसे विरोधाभासी समाज को देखते हैं जिनकी कल्पना आर्थिक रणनीतिकार तक नहीं कर सकते।  एक ही दुकान पर एक औरत छोटे से छोटा सामान ढूंढ रही है तो दूसरी तरफ दूसरी औरत बिना भाव पूछे बड़ा सामान अपनी कार में रखवाती जा रही है।  कोई औरत मध्यम दर्जे के सामान पर भाव के लिये बहस कर रही है।
                        कल हमारा स्वास्थ्य खराब था। फिर भी बाज़ार गयें  एक व्यवसायिक परिवार का सदस्य होने के नाते हमारे लिये धनतेरस खरीदने नहीं बल्कि वस्तु बेचने की परंपरा रही है।  बाद में नौकरी में आ गये तो श्रीमतीजी और हमने वस्तु खरीदने की परंपरा निभाई।  यह सब दूसरों की देखा देखी शुरु  किया। यह अलग बात है कि इस अवसर पर लिये गये अनेक सामान अभी भी अलमारी  में बंद पड़े है। कुछ का इस्तेमाल थोड़े  समय तक किया तो कुछ को भूल ही गये। कभी कभी अलमारी खोलने पर याद आता है कि यह सामान तो हमने धनतेरस पर खरीदा था।  तांबे का पानी पानी पीने के लिये हमने दो जग खरीदे थे। एक ढक्कन और एक बिना ढक्कन वाला।  कहा जाता है कि इस जग का पानी पीने वाले को वायु विकार नहीं होता।  कुछ समय तक उसका उपयोग किया फिर अलमारी में बंद कर दिये।  इसका कारण यह था कि हमने योग साधना प्रारंभ की तो बीमारियों पर एक स्वतः नियंत्रण हो गया।  हमे लगने लगा कि बीमारियां तो होने के साथ ठीक भी होती  रहेंगी,  औषधियां केवल थोड़े समय के लिये उपयोगी है।  रोज रात को तांबे का जग भरना एक बुरी आदत लगती थी। फिर पानी के लिये आरोह भी लगा लिया तो अब वह जग अंदर ही रखे रखे रहते है।  धनतेरस के अवसर  पर सफर के लिये एक अटैची हमने खरीदी थी।  हमें  दिवाली के अगले दिन सांई बाबा जाना था। टिकट आरक्षित था।  अचानक रिश्तेदारी में गमी हो गयी जिसकी वजह से वह कार्यक्रम रद्द करना पड़ा।  उसके बाद हम अनेक बार बाहर गये पर उस अटैची का उपयोग नहीं कर पाये। श्रीमतीजी का कहना है कि अटैची कुछ ज्यादा बड़ी है और उसका उपयोग सर्दी में कंबल आदि लेने पर ही करना अच्छा रहेगा।  चूंकि हमने उसके बाद अधिकतर यात्रायें गर्मी में की हैं इसलिये वह अटैची अब घरेलू उपयोग के लिये काम आती है।
                        कल हम बाज़ार में  एक बर्तन की दुकान पर गये तो एक थाली ऐसी देखी जिसमें कटोरियां साथ लगी थीं।  श्रीमतीजी ने उसका भाव पूछा तो दुकानदार ने एक सौ बीस रुपया बताया।  वहीं एक दूसरी भद्र महिला भी खड़ी थी उसने श्रीमतीजी से कहा-‘‘आप इससे कहें कि हम लोग 12 थालियां खरीद लेंगे इसलिये सौ रुपये थाली का भाव लगा दे।’’
                        वह थाली खरीदने की हमारी योजना नहीं थी पर उस भद्र महिला के जीवन साथी पुरुष ने हमसे कहा कि ‘‘आप भाव ताव कर लें तो छह आप और छह थालियां हम लेंगे।’’
                        वह थालियां खरीदने में पहले दिलचस्पी न होने पर भी  उस भद्र दंपत्ति का प्रस्ताव  खारिज करने योग्य नहीं था।  श्रीमतीजी ने दुकानदार को ललकार भरे अंदाज में संदेश देते हुए कहा‘‘भईया, अगर सौ रुपये प्रति थाली का भाव लगाओ तो अभी बारह खरीद लेेते हैं।
                        थोड़ी बहस के बाद मामला तय हो गया। वह भी तब जब हमने उस दुकानदार बारह थाली के तेरह सौ रुपये लगाने पर अड़ गया और हमने उसकी दुकान  से परे हटने का स्वांग किया।  उस समय उस भद्र महिला ने धीरे से श्रीमतीजी से कहा भी कि‘‘चलो पचास रुपये छह थाली पर ज्यादा देना बुरी बात नहीं है।’’
                        इसी बीच हमारी सख्ती से दुकानदार झुक गया। अंततः सौदा हो गया। श्रीमतीजी और उस भद्र महिला ने अपने अपने हिसाब से छह छह थालियां छांट ली।  जब वह महिला थालियां छांट रही थी तब श्रीमती जी थोड़ा दूर हटकर ने कहा-‘‘देखा कितने मनोयोग से वह थालियां छांट रही है।’’
                        उसके चेहरे पर सौम्यता और एकाग्रता के भाव से भरी प्रसन्नता  देखकर एक सुखद अनुभूति हुई।  उसका साथी भद्र पुरुष हमारी तरह थोड़ा परे हटकर खड़ा रहा।  बहरहाल उस भद्र दंपति के चेहरे पर चमक देखकर हमें एक सुख मिला।  सामान खरीदने की बनस्पित  हम दोनों  के लिये यही अनुभूति अधिक सुखद थी। हम दोनों  के अधरों पर एक मुस्कराहट थी। वह भद्र दंपति इसे नहीं समझ पाये यह अलग बात है। अपने मन में आयी बात हम उनको बताने से वैसे भी रहे।
                        अपनी प्रसन्नता के लिये सभी दिन रात एक किये रहते हैं। फिर भी कोई खुश नहीं है।  इसका कारण यह है कि कोई भी दूसरे को खुश देखकर खुद खुश नहीं होता।  भौतिक सामान कुछ बोलते नहीं है मगर उसे लेने वाला एक संवेदनशील प्राणाी होता है और उसे भावों से ही सुख दुःख का निर्माण होता है। इंसानों को पढ़ो, उनके भावों को पढ़ो।  संसार में सामान बहुत है पर प्रसन्न लोगों की कमी है।  इस संसार में अनेक प्रकार के जीव हैं। कुछ बेजुबान है तो कुछ जुबान वाले। हम तो केवल इंसानों की भाषा समझते है। हां, इतना तय है कि बेजुबान जीव भी प्रसन्न होते हैं यह अलग बात है कि उनमें अनेक के चेहरे पर हंसी नहीं देखी जा सकती।
                        प्रातःकाल योग साधना करते समय गाय को रोटी देने पर जब वह खाती है तो वह कुछ कहती नहीं है। उसके भाव बताते हैं कि वह अपने अंदर एक सुकून अनुभव कर रही है। उसके बाद छत पर जब दाना डालते हैं तब चिड़ियाओं तथा गिलहरियों का झुड एकदम आता है तब वह दृश्य एक सुखद अनुभूति देता है। आखिरी बात यह कि पाने से कोई सुखी नहीं हुआ देने से ही कोई घटा नहीं है। हमारे पर्वों में अध्यत्मिक दर्शन की प्रधानता है। इसे पढ़ने से अधिक समझने की आवश्यकता है।
                        इस दिवाली, धनतेरस और भाई दौज के अवसर पर सभी पाठकों और ब्लॉग लेखक मित्रों को बधाई।



कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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Sunday, October 20, 2013

व्यायाम वाले आसन योग साधना का अनिवार्य भाग नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख(पतंजलि योग साहित्य),excersize not part of yag sadhana(patanjali yoga scince or sahitya)



                                    भारतीय योग सूत्र में आठ भाग हैं जिसमें आसन का क्रम चौथे पर आता है।  आजकल योग शिक्षकों ने विभिन्न प्रकार के व्यायामों को भी आसन कहना प्रारंभ किया है। यह बुरा नहीं है पर जिनको योग साधना का ज्ञान रखना है उन्हें यह समझना चाहिये कि आसन से आशय  केवल देह की स्थिरता से है।  अनेक लोग शारीरिक श्रम करते हैं उनको आसन के नाम पर व्यायाम करने से थोड़ी हिचक होती है। उन्हें लगता है कि वह तो श्रम कर पसीना बहाते हैं इसलिये उनको किसी प्रकार की  योग साधना की आवश्यकता नहीं है।  इसी भ्रम के कारण अनेक लोग योगासन की अपेक्षा कर देते हैं। दूसरी बात यह है कि जिनका जीवन सुविधामय है वह योगासन के नाम पर केवल व्यायाम कर दिल बहला लेते है।  उन्हें आसन का आशय पता नहीं है जिस कारण वह पूरा लाभ उठा नहीं पाते।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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स्थिरसुखमासनम्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-स्थिर सुख से बैठने का का नाम आसन है।

                        आसनों के बहुत भेद नहीं है। हालांकि अनेक विद्वानों ने समय समय पर योग विद्या के विकास के लिये काम किया है जिससे अनेक प्रकार के व्यायाम के प्रकारों को भी आसन बताया जाता है।  इन आसनों के बीच सांसों को रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया के समय देह के स्थिर होने पर आसन स्वतः ही लगता है। आधुनिक युग में अनेक प्रकार के आसनों का अविष्यकार इसलिये भी किया गया ताकि शारीरिक श्रम से परे लोगों को व्यायाम के लिये सुविधा मिल सके।  मूलतः रूप से शरीर को स्थिर रखने का नाम ही आसन है।  जिन लोगों को व्यायाम आदि करने से हिचक लगती है या वह इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते उन्हें किसी शुद्ध स्थान पर त्रिस्तरीय आसन पर बैठना चाहिये।  श्रीमद्भागवत गीता में कुश, मृगचर्म और वस्त्रों को बिछाकर आसन लगाने की बात कही गयी है। आधुनिक युग में मृगचर्म आम रूप से उपलब्ध नहंी है तो उसके लिये दरी को वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। कुश न मिले तो प्लास्टिक की चादर ली जा सकती है पर आजकल शादी विवाहों में जो जूट के कालीन बिछाये जाते हैं उनके छोटे टुकड़े भी उपयोग मेें लाये जा सकते है।  इन्हें बिछाकर शांति और सुख से बैठकर प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप किये जा सकते हैं। जिन लोगों को प्रातः घूमने की आदत है उन्हें भी उसके पश्चात् इस तरह आसन बिछाकर ध्यान योग अवश्य करना चाहिये।
                        हमारे यहां अनेक योग शिक्षक अलग अलग प्रकार से शिक्षा दे रहे हैं। उनमें कोई विरोधाभास नहीं है पर आम लोग कहंी न कहीं भ्रमित हो जाते हैं।  अनेक लोग इसी कारण योग करने में हिचकते हैं कि आखिर किस तरह इसे करें? उन्हें यह समझना चाहिये कि व्यायाम हालांकि योग का भी भाग है पर उसे करें यह आवश्यक नहीं है।  योग का मूल रूप मनुष्य के स्थिर होकर बैठने के बाद प्राणायाम, ध्यान, धारणा, और समाधि करने की प्रक्रिया में संलिप्त होना है।  अपनी इंद्रियों को आत्मा से और आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग साधना का सर्वोच्च परिणाम है। इसी से मनुष्य जीवन की आधार  देह में शुद्धता, मन में दृढ़ता विचारों में पवित्रता के साथ ही व्यक्तित्व में तेज का निर्माण होता है।  वैसे इस विषय पर अगर कोई गुरु अपनी बात कहे तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये पर साथ ही योग विषय पर साहित्य का अध्ययन कर स्वयं भी प्रयोग करना चाहिये।
                       

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Friday, October 11, 2013

दिल के सौदागर-हिन्दी व्यंग्य कविता(Dil ke saudagar-hindi vyangya kavita,traders of heart-hindi satire poem)



खूबसूरत चेहरे निहार कर
आंखें चमकने लगें
पर दिल लग जाये यह जरूरी नहीं है,
संगीत की उठती लहरों के अहसास से
कान लहराने लगें
मगर दिल लग जाये जरूरी नहीं है।
जज़्बातों के सौदागर
दिल खुश करने के दावे करते रहें
उसकी धड़कन समझंे यह जरूरी नहीं है।
कहें दीपक बापू
कर देते हैं सौदागर
रुपहले पर्दे पर इतनी रौशनी
आंखें चुंधिया जाती है,
दिमाग की बत्ती गुल नज़र आती है,
संगीत के लिये जोर से बैंड इस तरह बजवाते
शोर से कान फटने लगें,
इंसानी दिमाग में
खुद की सोच के छाते हुए  बादल छंटने लगें,
अपने घर भरने के लिये तैयार बेदिल इंसानों के लिये
दूसरे को दिल की चिंता करना कोई मजबूरी नहीं है।

दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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Thursday, October 3, 2013

आचरण में शुद्धता वाले को ही गुरु बनायें-हिन्दी चिंत्तन लेख(acharan mein shuddhta wale ko hee pana guru banayen-hindi chinttan lekh,hindi thought article)



                        दो हाथ, दो पांव, दो आंखें, दो कान और दो छिद्रों वाली नासिका हर देहधारी मनुष्य के पास प्रत्यक्ष दिखती हैं।  उसमें मौजूद मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियां भी रहती हैं पर वह प्रकटतः अपनी उपस्थिति का आभास नहीं देती।  फिर भी मनुष्य के चरित्र, व्यवहार, विचार और व्यक्तित्व में भिन्नता की अनुभूति होती है।  इस भिन्नता का राज समझने के लिये श्रीगीता में वर्णित विज्ञान सूत्रों को समझना जरूरी है।  उसमें जिस त्रिगुणमयी माया के बंधन की चर्चा की गयी है वह दरअसल ज्ञान का वह सूत्र है जिसका वैज्ञानिक अध्ययन करने पर मनुष्यों में व्याप्त इस भिन्नता को समझा जा सकता है।
                        कर्म, स्वभाव, विचार, व्यवहार, और व्यक्तित्व सात्विक, राजस और तामस तीन प्रकार के ही होते हैं। आमतौर से लोग अपने स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं जो कि राजस भाव है।  अगर मनुष्य पूरी तरह से राजस बुद्धि से ही कर्म करे तो भी एक बेहतर स्थिति है पर होता यह है कि लोग कर्मफल के लिये इतने उतावले रहते हैं कि उनकी बुद्धि शिथिल हो जाती है।  वह अपने कार्य के लिये दूसरों की राय के लिये मोहताज रहते हैं। यह बुद्धि का आलस्य तामस वृति का परिचायक है।  इस विरोधाभास को हम अपने समाज में देख सकते हैं। इस प्रकार के आचरण ने ही समाज में अंधविश्वास को जन्म दिया है।
                        शुद्ध हृदय के साथ अगर निष्काम भाव से भगवान की भक्ति की जाये तो न केवल अध्यात्मिक विषय में दक्षता प्राप्त होती है वरन् सांसरिक कार्य भी सिद्ध होते हैं।  यह सभी जानते हैं पर उसके बावजूद कर्मकांडों के नाम पर तांत्रिकों और कथित सिद्धों के पास अनुष्ठान कराने जाते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार सारे मनुष्य अपने कर्म के अनुसार फल पाते हैं पर हमारे देश में कथित रूप से ऐसे कर्मकांडों को माना जाने लगा है जिससे लोग अपने पुरखों को स्वर्ग दिलाने के साथ ही अपने लिये वहां  स्थान सुरक्षित करने के लिये अनुष्ठान करने के लिये तत्पर रहते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार भक्ति का सवौत्तम रूप निरंकार ब्रह्म की निष्काम उपासना है। दूसरे क्रम में देवताओं यानि सकाम भक्ति को भी स्वीकार किया गया है। पितर या प्रेत भक्ति को तीसरा स्थान दिया गया है। हमारे देश के निरंकार की उपासना करने वाले बहुत कम हैं पर साकार रूप के उपासक भी अंततः प्रेत पूजा हठपूर्वक करते हैं। यह भी तामस प्रकृति है। लोग कहते हैं कि क्या हुआ अगर हमने सभी तरह से सभी स्वरूपों की पूजा कर ली? दरअसल यह अस्थिर भक्ति भाव को दर्शाता है जो कि शुद्ध रूप से तामस प्रकृति का प्रमाण है।
                        हमारे देश में कथित रूप से श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान के अनेक प्रचारक हैं पर उनका आचरण देखकर यह कभी नहंी लगता कि उन्होंने स्वयं उस ज्ञान को धारण किया हुआ है।  ज्ञान होने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता बल्कि उसे धारण करने वाला ही सच्चा ज्ञानी है।  ज्ञानी कभी आत्मप्रचार नहीं करते वरन् उनके आचरण से लोगों को स्वयं सीखना चाहिये।  लोग यह चाहते हैं कि बने बनाये और प्रचारित गुरुओं का सानिध्य उन्हें मिल जायें। वह उनके पंाव छूकर स्वयं को धन्य समझते हैं।  यहां लोगों से अधिक उन कथित गुरुओं के अज्ञान पर हंसा जा सकता है।  संत कबीरदास ऐसे गुरुओं का पाखंडी मानते हैं जो दूसरों से अपने पांव छुआते हैं।  गुरु कभी शिष्यों का संग्रह नहीं करते और न ही शिष्यों को ज्ञान देने के बाद फिर अपने पास चक्कर लगवाते हैं।  इस सब बातों को देखें तो हम यह बात मान सकते हैं कि धर्म के नाम पर हमारे यहां तामस प्रवृत्तियों वाले लोग  अधिक सक्रिय हैं। सच बात तो यह है कि गुरु सहज सुलभ नहीं होते। न ही रंग विशेष का वस्त्र पहनने वाले लोग ज्ञानी होेते हैं। ज्ञानी कोई भी हो सकता है।  संभव है किसी ने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नहीं किया हो पर उसके अंदर स्वाभाविक रूप से वह मौजूद हो।  यह उसके कार्य तथा जीवन शैली से पता चल जाता है। अंतः गुरु के रूप में उसी व्यक्ति को स्थान देना चाहिये जो सांसरिक विषयों में लिप्त रहने के बावजूद अपने आचरण में शुद्धता का पालन करता है।

दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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Sunday, September 22, 2013

आंखें फेरने की सियासत-हिन्दी व्यंग्य कविता (aankh ferne ke siyasat-hindi vyangya kavita)

चेहरे वही है
चरित्र भी वही है
बस, कभी बुत अपनी  चाल बदल जाते है,
कभी शिकार के लिये जाल भी बदल आते हैं।
इस जहान में हर कोई करता सियासत
कोई  लोग बचाते है घर अपना
कोई अपना घर तख्त तक ले आते हैं।
कहें दीपक बापू
सियासी अफसानों पर अल्फाज् लिखना
बेकार की बेगार करना लगता है
एक दिन में कभी मंजर बदल जाते
कभी लोगों के बयान बदल जाते हैं।
अब यह कहावत हो गयी पुरानी
सियासत में कोई बाप बेटे
और ससुर दामाद का रिश्ता भी
मतलब नहीं रखता
सच यह है कि
सियासत में किसी को
आम अवाम में भरोसमंद साथी नहीं मिलता
रिश्तों में ही सब यकीन कर पाते हैं।
घर से चौराहे तक हो रही सियासत
अपना दम नहीं है उसे समझ पाना
इसलिये आंखें फेरने की
सियासत की राह चले जाते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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Saturday, September 14, 2013

हिंदी दिवस पर इस बार पाठकों की संख्या पहले से कम रही-लेख एवं सम्पादकीय(hindi diwas par is bar sankhya ka rahi-article and editorial)



                        इस बार हिन्दी दिवस पर हमारे बीस ब्लॉग पिछले वषों के मुकाबले  कम पाठक ही जुटा सके।  दरअसल हिन्दी ब्लॉग पर 14 सितम्बर पर हिन्दी दिवस से एक दिन पहले यानि 13 सितम्बर को सबसे अधिक  लोग संभवतः प्रकाशन, वाचन अथवा लेखन के लिये सामग्री ढूंढते नज़र आयें हैं। पहले लोग अपने विषय के लिये कहीं किताब की दुकान या लाइब्रेरी जाते थे पर अब इंटरनेट पर हिन्दी भाषा में पाठ उपलब्ध होने की सुविधा ने उनको घर से बाहर जाने की असुविधा से बचा लिया है।  इस बार हमें यह देखकर हैरानी हुई कि 13 सितम्बर को पिछले वर्ष की अपेक्षा आधे पाठक ही थे।  इसके कारणों का विश्लेषण करना आवश्यक था।  ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं थी।   इसके कुछ कारण हमारी समझ में आये।
                        1-इस बार 14 सितम्बर हिन्दी दिवस शनिवार को पड़ा था जिससे सरकारी कार्यालयों, बैंकों, विश्वविद्यालयों, विद्यालयों तथा कुछ निजी संस्थाओं में अवकाश था।  भले ही कुछ जगह कार्यक्रम हुए हों पर उनमें वह भागीदारी नहीं रही होगी।  इस कारण भाषण, वादविवाद प्रतियोगिता तथा लेखन प्रतियोगिताओं के साथ ही परिचर्चा के कार्यक्रम भी कम आयोजित हुए होंगे।  इस कारण बहुत कम लोगों ने इंटरनेट पर राष्ट्रभाषा पर सामग्री ढूंढने का प्रयास किया होगा। इंटरनेट तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं में लिखने वालों ने जरूर यहां दौरा किया होगा पर आम क्षेत्र से आगमन कम ही हुआ, ऐसा लगता है।
                         2-इस बार टीवी समाचार चैनलों पर कुछ इस तरह की खबरें थी जिससे आम लोगों का रुझान उधर ही रहा होगा।  यह देखा गया है कि जब टीवी पर कोई खास खबर होती है तो इंटरनेट पर सामग्री की खोज कम हो जाती है।  क्रिकेट की क्लब स्तरीय प्रतियोगिता, बिग बॉस तथा कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रम इंटरनेट पर सक्रिय लोगों को अपनी तरफ खींच लेते हैं। आईपीएल के दिनों में शाम को दिन से भी पाठक कम हो जाते हैं जबकि सामान्य दिनों में इसके विपरीत होता है।  एक तरह से इंटरनेट व्यवसायिक प्रचार समूहों का प्रति़द्वंद्वी है।  एक समय लोगों का टीवी चैनलों की तरफ रुझान कम हो गया था।  इंटरनेट पर सकियता इतनी हो गयी थी कि लगता था कि टीवी चैनलों का समय अब गया कि तब गया ।  अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आयाम ने इन व्यवसायिक चैनलों को नया सहारा दिया।  पूरा आंदोलन नाटकीय तौर से इन चैनलों के विज्ञापन प्रसारणों का सहारा बना।  उस समय अनेक ब्लॉग लेखकों ने इस आंदोलन के प्रायोजित होने की बात लिखी थी और हमने उनका समर्थन करते हुए यही कहा था कि कहीं न कहीं व्यवसायिक प्रचार समूह के स्वामी इसे प्रायोजित कर रहे हैं। हालांकि वास्तविकता यह है कि उद्योग, व्यापार और प्रचार समूहों के स्वामी  एक ही होते है-अर्थात उद्योग, व्यापार और प्रचार संगठनों के पर एक ही परिवार या समूह के लोग छाये हुए हैं- पर चूंकि हमें इस संबंध मे ज्यादा कुछ पता नही है इसलिये कह नहंी पाते।  इधर आंदोलन चलवा कर टीवी चैनलों को दर्शक दिलाओ उधर बहसें चलाकर उद्योग के उत्पादों का प्रचार कर उनका व्यापार बढ़ाओ।  यह नीति बुरी नहीं है पर इतना तय है कि देश में कोई बड़ा आंदोलन बिना धनपतियों के चल नहंी सकता। यही बात इस संभावना को जन्म भी देती है कि तीनों क्षेत्रों का स्वामित्व कुछ निश्चित लोगों के पास ही है। उनके दोनों हाथों में लड्डू थें। आम जनता में व्याप्त निराशा को आशा में बदला, उनका काम चलता रहा और दूसरे भी पलते रहे।  कहीं से कोई खतरा नही! नं जनता से न राजा से न दलालों से!
                        3-तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि इंटरनेट पर अधिक सफलता न मिलते देख हम उदासीन हो गये हैं। इसलिये कम लिखते हैं और इस कारण हमारे ब्लॉग फ्लाप हो गये हों।  सर्च इंजिन उन्हें ऊपर नहीं ला पाते हों। 
                        हमने हिन्दी दिवस पर बहुत लेख तथा कवितायें लिख डाली। इस लेखक का उद्देश्य आत्मप्रदर्शन करना नहीं वरन् अनुंसंधान करना था।  कुछ पढ़ना था। ब्लॉग फ्लाप हो रहे थे पर वह मृतप्राय नहीं थे। वह कुछ इस लेखक को पढ़ा भी रहे थे।  वैसे एक संभावना हो सकती है।  जहां शनिवार को कार्यक्रम नहीं हुए वहां रविवार और सोमवार को हो सकते हैं।  ऐसे में पहले की अपेक्षा अधिक दिन तक हिन्दी दिवस का नशा रहेगा। इसलिये ब्लॉगों के पाठक पंद्रह और सोलह सितंबर को भी बढ़ सकते हैं जबकि पहले सितम्बर से उठकर 14 सितंबर की दोपहर के बाद पाठकों की संख्या थम जाती थी।  इतना जरूरी है कि जितना हमने इस बार हिन्दी दिवस पर जितने पाठ लिखे उतने कभी नहंी लिखे।
                        बहरहाल हिन्दी दिवस पर सभी ब्लॉग लेखकों और पाठकों को बधाई। इस आशा के साथ कि वह हिन्दी भाषा के साथ अपनी विकास यात्रा जारी रख सकें।

दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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हिंदी भाषा का महत्व,राष्ट्रभाषा का महत्व,हिंदी दिवस पर निबंध,हिंदी सप्ताह,हिंदी दिवस पर लेख,hindi bhasha ka mahatva,rashtrbhasha ka mahatva,essay on hindi diwas,essay on hindi divas,hindi par nibandh,hindi saptah par vishesh lekh,importense of hindi,importense of rashtrabhasha,hindi divas par nibandh,hindi diwas par nibandh,14 september hindi divas,14september hindi diwas १४ सितम्बर हिंदी दिवस

Sunday, September 8, 2013

सम्मान में अपमान का भय रहता है-हिंदी हास्य व्यंग्य कविता (samman mein apman ka bhay rahat hai-hindi hasya vyangya kavita or hindi comedy satire poem)



फंदेबाज घर आते ही बोला
‘‘दीपक बापू, तुम अध्यात्म पर
बहुत बतियाते हो,
जब मौका मिले
ज्ञानी बनकर मुझे लतियाते हो,
न तुम संत बन पाये,
न कवि की तरह जम पाये,
फ्लॉप रहे अपने काम में,
न पाया नामे में हिस्सा
न काम बना दाम में,
इससे अच्छा तो कोई आश्रम बनाओ,
नहीं तो कोई अपनी किताब छपवाओ,
इस तरह अंतर्जाल पर टंकित करते थक जाओगे,
कभी अपना नाम प्रचार के क्षितिज पर
चमका नहीं पाओगे।
सुनकर हंसे दीपक बापू
‘‘जब भी तू आता है,
कोई फंदा हमारे गले में डालने के लिये
अपने साथ जरूर लाता है,
कमबख्त!
जिनका हुआ बहुत बड़ा नाम,
बाद में हुए उससे भी ज्यादा बदनाम,
कुछ ने पहले किये अपराध,
फिर ज़माने को चालाकी से लिया साध,
जिन्होंने  अपने लिये राजमहल ताने,
काम किये ऐसे कि
पहुंच गये कैदखाने,
संत बनने के लिये
ज्ञानी हों या न हों,
ज्ञान का रटना जरूरी है,
माया के खेल के खिलाड़ी हों शातिर
मुंह पर सत्य का नाम लेते रहें
पर हृदय से रखना  दूरी है,
न हम संत बन पाये
न सफल कवि बन पायेंगे,
अपने अध्यात्मिक चिंत्तन के साथ
कभी कभी हास्य कविता यूं ही  बरसायेंगे,


मालुम है कोई सम्मान नहीं मिलेगा,
अच्छा है कौन
बाद में मजाक के दलदल में गिरेगा,
चाटुकारिता करना हमें आया नहीं,
किसी आका के लिये लिखा गीत गाया नहीं,
पूज्यता का भाव आदमी को
कुकर्म की तरफ ले जाता है,
जिन्होंने सत्य को समझ लिया
जीना उनको ही आता है,
तुम हमारे लिये सम्मान के लिये क्यों मरे जाते हो,
हमेशा आकर हमारे फ्लाप होने का दर्द
हमसे ज्यादा तुम गाते हो,
तुम हमारी भी सुनो,
फिर अपनी गुनो,
अक्सर हम सोचते हैं कि
हमसे काबिल आदमी हमें
मानेगा नहीं,
हमारे लिखे का महत्व
हमसे कम काबिल आदमी जानेगा नहीं,
सम्मान देने और लेने का नाटक तो
उनको ही करना आता है,
जिन्हें अपने ही लिखने पर
मजा लेना नहीं भाता है,
हमारे लिये तो बस इतना ही बहुत है कि
तुम हमें मानते हो,
कभी कवि तो कभी संत की तरह जानते हो,
पाखंड कर बड़े हुए लोगों को
बाद में कोई दिल से याद नहीं करता,
यह अलग बात है कि
उनकी जन्मतिथि तो कभी पूण्यतिथि पर
दिखावे के आंसु जमाना भरता है,
हमारे लिये  तो इतना ही बहुत है
अपनी हास्य कवितायें इंटरनेट पर
रहेंगी हमेशा
जो अपनी हरकतों से तुम छपवाओगे।


दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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