Thursday, May 27, 2010

जनवादियों और प्रगतिशीलों के लिये तत्वज्ञान विषतुल्य-हिन्दी व्यंग्य

जांच अधिकारी के ब्रह्मज्ञान से दुःखी जनवादी प्रेमी अपनी मृतक प्रेमिका की हत्या के मुकदमे में अपना दर्दभरा बयान करते हुए उसकी शिकायत करेगा-ऐसा कहीं पढ़ने को मिला। यह जनवादी प्रेमी पत्रकार है और अपनी पत्रकार प्रेमिका के माता पिता पर अपने सम्मान के लिये उसकी हत्या का आरोप लगा रहा है। इस जनवादी प्रेमी ने ही आर्यसमाज के एक मंदिर में अपनी उस स्वर्गीय प्रेमिका के साथ विवाह करने की तैयारी की थी, फिर प्रेमिका को अपने ही परिवार वालों की रजामंदी के लिये भेज दिया।
मामला यहीं से शुरु हुआ। यहीं से हम भी अपना विचार शुरु करते हैं। जनवादी दिखना एक शौक है पर यह कोई मुफ्त में नहीं पालता। इस तरह के शौक केवल भारतीय अध्यात्मवादी ही पाल सकते हैं कि बिना कुछ लिये दिये समाज निर्माण के लिये प्रयास करें। यह जनवादी कहीं न कहीं से प्रायोजित होने पर जोश के साथ सक्रिय होते हैं। कहीं कोई राजनीति, सामाजिक या गैर हिन्दू धार्मिक संगठन अपने आर्थिक स्त्रोत इनको उपलब्ध कराता है तो कहीं कोई विदेशी मानवाधिकार संगठन की इन पर कृपा होती है।
आमतौर से जनवाद और प्रगतिशील अलग अलग विचारधारायें मानी जाती हैं पर दोनों का मुख भारतीय दर्शन की दशा और दिशा के सामने विरोध में खुला रहता है। इनके बुद्धिजीवियों का देश पर इतना गहरा प्रभाव शैक्षणिक तथा सामाजिक संगठनों में रहा है कि परंपरावादी बुद्धिजीवी भले ही अलग सोचते हैं पर उनकी शैली भी इनकी तरह हो गयी है। जनवादी या प्रगतिशील समाज को एक शासित होने वाली इकाई मानते हैं और उनका प्रयास यही है कि जन कल्याण के सारे काम केवल राज्य डंडे के जोर पर करे। जबकि परंपरा के अनुसार राज्य और समाज एक पृथक इकाई है और दोनों के शिखर पुरुष अपने ढंग से काम करें यही श्रेयस्कर है। राज्य का जितना कम हस्तक्षेप समाज में होगा उतना ही वह विकसित हो सकेगा। मगर स्थिति यह है कि इन जनवादियों और प्रगतिशीलों ने परिवारों तक में कानून का हस्तक्षेप करा दिया है। हत्या एक जुर्म है पर कहीं दहेज हत्या को अलग कर नया कानून बनवा दिया। आतंकवाद की हत्या को अलग परिभाषित कर अलग से कानून बना। औरत और मर्द के जिंदगी के अलग अलग रूप दिखाये जाते हैं। मतलब जीने और मरने में की स्थितियों में भेद पैदा किया और बात करते हैं जबकि दावा यह कि समतावाद ला रहे हैं।
एक मजे की बात है कि समाज को आधार प्रदान करने वाले सक्रिय, कमाऊ तथा प्रतिभावान पुरुष इन जनवादियों और प्रगतिशीलों की दृष्टि से जारशाही का प्रतीक है जो केवल अपनी स्त्री तथा बच्चों पर अन्याय करता है। जनवादी और प्रगतिशील विचारकों के इस समूह को कथित विकासवादी भी मान सकते हैं जिनको ब्रह्मज्ञान तो अपना दुश्मन दिखाई देता है।
बहरहाल जनवादी प्रेमी इस समय ऐसे ही विकासवादियों का नायक बना हुआ है। वह शादी रद्द करने के पीछे जो तर्क दे रहा है वह ब्रह्मज्ञानियों को हज़म नहीं हो सकता। उसकी स्वर्गीय प्रेमिका ने माता पिता के इच्छा के बिना विवाह की तारीख तय की और फिर चली गयी। जनवादी प्रेमी चाहे कितना भी कहे कहीं न कहीं उसके प्रति दहेज की भारी रकम पाने का मोह जरूर उसमें रहा होगा। जहां तक जनवादी बुद्धिजीवियों का प्रश्न है वह बिना प्रायोजन के न तो किसी अभियान पर लिखते हैं न बोलते हैं ऐसे में वह प्रेमी बिना प्रायोजन के विवाह करता है इसमें संदेह है। विकासवादी तो प्रायोजित होकर काम करते हैं इसलिये यह संभव नहीं है कि कथित पत्रकार प्रेमी अपने अंदर के किसी कोने में दहेज का मोह न पालता हो। दूसरी बात यह है कि दिल्ली में उसकी स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं हो सकती थी जहां वह सभ्रांत परिवार का रूप प्रदर्शित कर सकता-संभव है शादी और बच्चे होने के बाद नमक रोटी के चक्कर में जनवाद का भूत साथ छोड़ देता।
विकासवादी बुद्धिजीवी युवक युवतियां ढाबों या होटलों पर जाकर काफी या चाय पीते हुए फोटो जरूर खिंचवाते हैं और उसके लिये पांच सौ से हजार तक की रकम उनके पास उपलब्ध भी हो जाती होगी पर घर गृहस्थी एक विशाल अंतहीन अभियान है जिसमें ढेर सारे रुपये चाहिये। फ्रिज, गाड़ी कूलर या ऐसी, टीवी तथा अन्य सामान न हो तो गृहस्थी किसी मज़दूर जैसी लगती है-यह अलग बात है कि महल बनाने वाले ईंटों की कच्ची झोंपड़ियों में रहते हुए कुछ मजदूरों के घर में भी आजकल यह सामान दिख ही जाता है-और विकासवादी बुद्धिजीवी कितना भी मज़दूरों, गरीबों तथा बेसहारों के कल्याण के लिये सक्रिय हो पर वह स्वयं वैसा दिख नहीं सकता। उसे तो जींस पहनना है और ढाबे या होटल में खाना है, सबसे बड़ी बात यह कि स्मार्ट दिखना है। इसके लिये चाहिए पैसा! शादी का मामला हो तो दहेज छोड़ने का काम कोई ब्रह्मज्ञानी ही विरला ही कर सकता है प्रायोजन के आदी विकासवादियों से ऐसी अपेक्षा निरर्थक है।
उस जनवादी पत्रकार की स्वर्गीय प्रेमिका की मासूम मां जेल में है और वह भी नारी है पर जनवादियों के सहयोगी नारीवादी बिना इसकी परवाह किये रोज प्रदर्शन किये जा रहे हैं। इनकी चालाकी कोई नहीं समझ पाता। यह अपना घर बचाये रखने और प्रचार पाने के लिये किसी भी बर्बाद घर की आग पर अपनी रोटी सैंक सकते है, कोई मर गया तो फिर तो इनकी पौ बारह है क्योंकि प्रचार माध्यमों में सहानुभूति लहर इनके पक्ष के अनुसार ही बहती है। उसे न्याय दिलवाना है! इन कथित बुद्धिमानों से कौन पूछ कि मरे हुए आदमी के लिये इस संसार में रह ही क्या जाता है जहां वह न्याय जैसी दुर्लभ चीज पाकर सजायेगा? मगर यह ब्रह्मज्ञान की बात है जो इनको विष तुल्य लगेगी।
जांच अधिकारी मृतक युवती के जनवादी मित्रों को ब्रह्मज्ञान दे रहा होगा उसे इसका आभास नहीं है कि सांप काटे हुए आदमी को पानी पिला रहा है जो कि उसके लिये विष तुल्य है। जनवाद ने जिसके दिमाग को काट लिया उसके लिये ब्रह्मज्ञान विष की तरह ही है। जिस तरह माया के शिखर पर बैठे आदमी को सत्य से डर लगता है वैसे ही जनवाद को ब्रह्मज्ञान से भय लगता है।
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Friday, May 21, 2010

हाशिए पर ही न खड़े रहें-हिन्दी संपादकीय लेख

आज एक ब्लाग पर नज़र पड़ गयी जिसमें किसी अखबार का संपादकीय ‘मस्तराम’ संबंधी साहित्य हिन्दी ब्लाग जगत पर लाने की आलोचना की गयी थी। साथ ही उसमें अनेक ब्लागों की भाषा में झगड़े फसाद तथा अभद्र लेखन को भी इंगित किया गया। अक्सर हिन्दी ब्लाग के बारे में अखबारों में चर्चा पढ़ने को मिलती है जिसमें इसी तरह की बातें प्रकाशित की जाती हैं।
हम यहां किसी प्रकाशित लेख या संपादकीय की आलोचना नहीं करने जा रहे मगर नज़रिये पर सवाल तो उठा ही सकते हैं। मुख्य बात यह है कि आप हिन्दी ब्लाग जगत के बारे में अपनी राय किस तरह कायम करते हैं। क्या आप किसी एक दिन में एक साथ सौ ब्लाग देखते हैं? दूसरा सवाल यह है कि आप कहां हिन्दी ब्लाग देखते हैं, सर्च इंजिनों में या प्रायोजित फोरमों पर जाकर।
जब आप सर्च इंजिनों में किसी विषय संबंधी खोज करते हैं तो उससे संबंधित ही सामग्री ही सामने आती है, अगर आप मस्तराम शब्द से ढूंढेंगे तो दूसरा विषय शायद न आये। ऐसे में आप यह तो कह नहीं सकते कि केवल मस्तराम विषय पर ही लिखा जा रहा है। अगर आप हिन्दी ब्लाग जगत में लड़ाई झगड़े या अभद्र भाषा लिखे जाने की बात कर रहे हैं तो इसका सीधा आशय है कि आप ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत के हाशिये पर ही पढ़ते हैं, मुख्य क्षेत्र में पृष्ठ बदलकर देखने में आपको असुविधा लगती है। ऐसे में आप यह कैसे कह सकते हैं कि हिन्दी ब्लाग जगत में सब कुछ बुरा लिखा जा रहा है।
चिट्ठाजगत या ब्लागवाणी प्रायोजित फोरम है-उनके संचालकों के इस दावे पर यकीन करना मुश्किल है कि वह हिन्दी समाज सेवा के लिये हैं-इसलिये उनके सानिध्य में लिखने वाले ब्लाग लेखकों को हिट अधिक दिखाने ही पड़ते हैं-यह उनका निजी विषय है और इस पर कोई टिप्पणी करना ठीक नहीं। इन फोरमों के लेखकों के पाठ प्रतिदिन ही हाशिए पर सबसे ऊपर देखते हैं। अब यह कहना कठिन है कि संचालन मंडल से जुड़े लोग यह करते हैं या कुछ तेज तर्रार ब्लाग लेखक चालाकी से अपने पाठों को हिट कर ऊपर पहुंचाते हैं-वैसे अनेक ब्लाग लेखक ऐसे सीधे आरोप अपने पाठों में लगाते रहते हैं। एक बात तय रही कि इस ब्लागवाणी तथा चिट्ठाजगत का हाशिया ही सब कुछ नहीं है-कुछ ब्लाग लेखक तो कहते हैं कि वहां कुछ भी आम पाठक के लिये पढ़ने के लिये नहीं होता। दिल्ली तथा अन्य बड़े शहरों के प्रभावशाली लेखकों का वर्चस्व यहां ऐसे ही दिखता है जैसे कि हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता मे। सच बात तो यह है कि जिस तरह कहा जाता है कि आदमी अपने जिंदगी में थक जाने के बाद ऐसे ही हाशिए ढूंढता है जहां से वह महत्वपूर्ण दिखे भले ही कोई प्रभावशाली काम न करे। आप साहित्य, समाज अन्य कला गतिविधियों में लगी संस्थाओं के पत्रों के प्रारूप पर दृष्टिपात करें तो भूतपूर्व प्रभावशाली लोग अपना नाम लिखाते हैं-वैसे कोई डाक्टर दवा लिखता है तो उसके पर्चे के हाशिए पर भी कुछ अस्पतालों या अन्य सहयोगी चिकित्सकों के नाम होते हैं। अपने देश के लोगों के पास भी समय बहुत है। पत्र मिलने के बाद पढ़ते हैं फिर भी उनके पास इतना समय तो रह जाता है कि वह कथित प्रभावशाली लोगों का नाम पढ़ें। पाठकों की इसी कमी का लाभ समाज सेवक और लेखक उठाना चाहते हैं। इसके विपरीत जो बूढ़े हो गये पर अभी भी अपने क्षेत्र में सक्रिय हैं वह कभी हाशिए पर जाने का विचार नहीं करते।
यह हाशिए का मोह हिन्दी जगत की सबसे बड़ी समस्या है अब अंतर्जाल पर भी यही होता लग रहा है। ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत की गतिविधियां कैसी हैं यह चर्चा का विषय नहीं है बल्कि यहां ब्लाग पढ़ने वाले पाठकों को हाशिए से अलग मुख्य क्षेत्र में आकर ब्लाग पढ़ना चाहिए। एक ब्लाग लेखक होने के नाते हाशिए के हिट ब्लाग यह लेखक भी देखता है पर इसका आशय यह नहीं है कि दूसरे ब्लाग न देखें। जब आप हिन्दी ब्लाग जगत पर संपूर्णतया से लिखना चाहते हैं तो फिर आप इस हाशिए से दूर ही रहें क्योंकि वहां पर सीमित रहने का मतलब यह है कि आप अपने विषय को सीमित ही रख पायेंगे। अगर इन फोरमों से ब्लाग सूची बनायेंगे तो वह आठ से दस से अधिक नहीं होगी। अनुभवी ब्लाग लेखकों से चाहें तो ऐसी सूची मांग लें। वह पाठ देखते ही समझ जाते हैं कि आज यह टिप्पणियां, पसंद तथा पाठक संख्या अधिक लेकर दोनों फोरमों के हाशिए की शोभा बढ़ायेंगें। यकीनन यह हिट ब्लाग लेखक बहुत अच्छा लिखते हैं क्योंकि उनकी छह लाईनों के पाठ पर लोग साठ दूसरे ब्लाग लेखक पाठ लिख डालते हैं। पंद्रह दिनों तक बहस चलती है। अभी तक दो ब्लाग लेखक नंबर एक के दावेदार थे अब तीसरा भी खड़ा हो गया है। तीसरेे को देखकर चार पांच दूसरे भी तैयार हो गये हैं। हम उनके लिखने को चुनौती नहीं दे रहे पर अंततः यह तय बात है कि उन पर हिन्दी ब्लाग जगत का केंद्रीय बिन्दू स्थापित नहीं है। फोरमों के हाशिए प्रतिदिन शीर्ष पर रहने वाले दो तीन लेखकों को छोड़कर बाकी के बारे में यह कहना कठिन है कि आम पाठक के लिये कुछ अधिक महत्व रखते हैं अलबत्ता ब्लाग लेखक जिज्ञासावश उनको पढ़ते हैं वह भी इसलिये क्योंकि उनको सुविधाजनक लगता है।
ऐसे में अगर आप फोरम पर ब्लाग देख रहे हैं तो हाशिए के हिट देखने की बजाय मुख्य क्षेत्र में ब्लाग देखें। पृष्ठ बदलने का कष्ट उठायें क्योंकि शौकिया तथा गंभीर ब्लाग लेखकों से परिचित हुआ जा सके। हिन्दी को बहुत बड़ा सफर अंतर्जाल पर तय करना है और कोई नहीं जानता वह क्या क्या रूप लेकर आगे बढ़ेगी। कम से कम पाठकों तथा विश्लेषकों को हाशिए पर ही खड़े नहीं रहना चाहिए।
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Monday, May 17, 2010

आलसी दिमाग-हिन्दी शायरी (alsi dimag -hindi shayari)

हम खुली आंखों से सपने देखते रहें,
हम अमन से जियें, जंग के दर्द दूसरे सहें,
कोई करे वादा तो
शिखर पर बिठा देते हैं वोट देकर।

हम खूब कमाकर परिवार संभालें,
दूसरे अपना घर उजाड़ कर, ज़माने को पालें,
कोई दे पक्की गांरटी तो
पीछा छुड़ाते हैं नोट देकर,

शायद नहीं जानते हम कि
शरीर की विलासिता से
खतरनाक है दिमाग का आलसी होना,
बुरा नहीं है किसी के पैसे का कर्ज ढोना,
बनिस्पत
दूसरे की सोच पर चलकर
पहाड़ से खाई में गिरने पर चोट लेकर।
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सच के नाम सजा झूठ-हिन्दी शायरी

तमाम रस्में निभाकर भी
हम क्या पाते हैं,
पुराने बयान पर आंखें बंद कर यकीन के साथ
यूं ही जिंदगी में चले जाते हैं।
इंसानों की सोच पर बंधन डाले हैं
सर्वशक्तिमान के संदेश की किताबें लिखने वालों ने
हम हंसते हुए बंधे क्यों चले जाते हैं,
कभी बहाओ अपनी अक्ल की धारा
देखना फिर उसमें
सच के नाम पर सजे कितने झूठ बहते नज़र आते हैं।
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ताउम्र गुज़ार दी निभाते हुए रस्में
खाते रहे आकाश की कसमें,
पर बैचेन रहे हमेशा यहां।
अपनी अक्ल से
अगर हाथ हिलें नहीं,
पांव कभी चले नहीं,
आंखों से कभी नहीं निहारा,
कान अपनी इच्छा से सुने न बिचारा,
तब मिलता भला चैन कहां।
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फूल और पत्थर-हिन्दी शायरी (fool aur patthar-hindi shayari)

किसी पर फूल बरसाने से
भले ही लौट कर पांव में नहीं आते हैं,
पर फैंकने पर पत्थर दूसरे पर
अपने सिर पर भी चले पाते हैं।
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उनकी तारीफ में हम क्या बयां करते
पूरा ज़माना उनके पांव में बिछा हुआ था,
हमारे मुफ्त के लफज़ उस किराये की महफिल में
कोई असर नहीं डालते
क्योंकि वहां हर शख्स बिका हुआ था।
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आकाश छूने का ख्याल शिखर-हिन्दी शायरी (akasha chhone ka khyal-hindi shayari)

चाहने से सभी महान नहीं बन जाते हैं,
आकाश छूने की कोशिश में कई लोग
जमीन पर आकर गिर जाते हैं।
जिन्होंने जमीन पर चलते हुए
पत्थरों की आवाज को भी सुना है,
कांटो के साथ भी दोस्ती को चुना है,
चलते चलते पड़े छाले जिनके पांव में,
लालच की खातिर पकड़ा नहीं रास्ता
बड़े शहर का
खुश दिल रहे अपने ही गांव में,
कभी आकाश छूने का ख्याल नहीं किया
महानता के शिखर
उनके पांव तले आ जाते हैं।
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Saturday, May 15, 2010

बादशाहत को ज़माने पर ठोका-हिन्दी कविता

स्त्री का भला करेंगे,
बच्चों को खुश करने के दावें भरेंगे,
वृद्धों का उद्धार करेंगे,
मजदूरों को न्याय देंगे,
गरीब को करेंगे अमीर,
और लाचार का सहारा बनेंगे,
ऐसे दावे धोखा है,
बेईमानी का खोखा है।
समाज को एक जैसा बनाने की कोशिश
करने वाले विकासवादी अक्लमंद
सभी को बना रहे मूर्ख
इसलिये समाज को
जांत पांत और धर्म के टुकड़ों में बांटकर
अपनी बादशाहत को ज़माने पर ठोका है।
करे जो समदर्शिता की बात
उसे पुरातनवादी बताकर रोका है।
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महंगाई और नैतिकता-क्षणिकायें (mehangai aur naitikta-hindi shayri)


आधुनिकता के नाम पर
इंसान सस्ता हो रहा है,
मस्ती के नाम पर अनैतिकता की
गुलामी को ढो रहा है।
यौवन की आज़ादी के नाम पर
पेट में पाप के बीज़ बो रहा है।
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महंगाई आसमान पर चढ़ गयी है,
इसलिये नैतिकता तस्वीर में जड़ गयी है।
चीजों की तरह इंसान भी बिकने लगा है,
मांग आपूर्ति के नियम से अनुसार
जरूरत से ज्यादा है बाज़ार में
इसलिये मेहनत की कीमत पड़ रही है।
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mehangai,mahangai

Sunday, May 9, 2010

दिल बहलाने में उनका मन-हिन्दी शायरी (dil bahlane men unka man-hindi shayari)

बंदूक के सहारे ज़माने में बदलाव
लाने की कोशिश हथियारों के
सौदागरों के दलाल की
चाल लगती है,
खून बहाकर तरक्की के रास्ते
चलने का ख्याल डाकुओं जैसा लगता है,
दुनियां के जिंदा रहने के लिये
कुछ मूर्तियों का टूटना जरूरी है
शैतानों का ख्याल लगता है
दरअसल जिनकी रूह लापता है
अपने ही आपसे
ज़माने में जंग की आग लगाकर
दिल बहलाने में उनका मन लगता है।
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तरक्की और उधार-हिन्दी शायरी (taraqi aur udhar-hindi shayari)

मोहब्बत शादी के अंजाम
तक आशिक और माशुका
शायद इसलिये पहुंचाते हैं
क्योंकि जिस्म की हवस मिटते ही
साथी के बेवफा होने से डर जाते हैं।
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अपनी मदद खुद कर सको, उतना ही आगे जाना।
तरक्की और कामयाबी के ख्वाब में यूं न खो जाना।।
बिकते हैं सपने बाज़ार में, मु्फ्त का खेल दिखाकर,
तरक्की के रास्ते चल, उधार के जाल में न फंस जाना ।।
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Wednesday, May 5, 2010

आशिक, माशुका, इश्क और शादी-हिन्दी हास्य व्यंग्य (ashiq,mashuka,ishq aur shadi-hindi hasya vyanya

अपने पल्ले आज तक एक बात नहीं पड़ी कि इश्कवादी और नारीवादी बुद्धिजीवी अभी तक बिना विवाह साथ रहने के न्यायालयीन फैसले पर जश्न मना रहे थे फिर अचानक किसी प्रेम के विवाह में परिवर्तित न होने पर समाज को क्यों कोस रहे हैं?
देश में ऐसे अनेक किस्से होते हैं कि लड़कियां और लड़के भाग कर शादी कर लेते हैं, और समाज उनका पीछा करता है तो उनके बचाव में नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवी आगे आते रहे हैं। आगे क्या आते हैं! समाज की असामाजिक स्थिति पर सवाल उठते हैं-जवाब तो वह खैर क्या ढूंढेंगे? जमकर भारतीय धर्म पर उंगली उठायेंगे। जातिवाद को कोसेंगे। संविधान के प्रावधानों की दुहाई देते हुए बतायेंगे कि उसके अनुसार किसी को किसी से भी विवाह करने से रोकना गलत है।
जब एक माननीय अदालत ने यह निर्णय दिया कि अगर कोई व्यस्क जोड़ा बिना विवाह के लिये साथ रहना चाह तो रह सकता है तब लगा कि इश्कबाजी में समाज से विद्रोह करने वाले इसका लाभ उठायेंगे और शादी वादी के चक्कर से बचेंगे। इससे समाज के साथ ही आशिक और माशुकाओं को राहत मिलेगी। अलबत्ता नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवियों के बौद्धिक अभ्यास में कमी आने की आशंका थी पर लगता है उसकी संभावना नहीं के बराबर है। इसका कारण यह है कि हमारे देश के युवक युवतियां बाह्य रूप से पश्चात्य चालचलन और आंतरिक रूप से प्राचीन संस्कारों में चलते हुए ऐसे अंतद्वंद्ध में पड़े हैं जिसके चलते उनको यह समझ में नहंी आता कि करना क्या है?
असामयिक जवान मौत चाहे वह लड़की की हो या लड़के की पीड़ादायक है। पीड़ादायक तो हर मौत होती है पर बड़ी उम्र में हुई मौत पर केवल रिश्तेदार और परिवार ही शोकाकुल होता है जबकि जवान मौत पर पूरा समाज ही दुःखी हो जाता है। जन्म और मृत्यु कभी स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करती पर जीवन करता है। जीवन यानि जन्म से मृत्यु के बीच का सफर! भले ही कोई आदमी कितना भी कहे कि स्त्री और पुरुष एक समान है पर वह प्रकृति के द्वारा किये भेद और उसकी सच्चाईयों को बदल नहीं सकता। सबसे बड़ा सच यह है कि स्त्री की इज्जत कांच की तरह होंती है-एक बार टूटी तो जूड़ती नहीं, जबकि आदमी की इज्जत पीतल के लोटे की तरह है-एक बार गंदी हो गयी तो फिर पानी से धोकर साफ हो जाती है।
अपने देश के बुद्धिजीवी इस सच को बदलना चाहते हैं, पर पाश्चात्य विचारधाराओं की धारा में बह रहे यह लोग ऐसा कर नहीं सकते।
पाश्चात्य विचाराधाराओं के समर्थक सवाल करते हैं, पर जवाब नहीं ढूंढते। यह ऐसा क्यों है? इसे ऐसा होना चाहिये! यह पहले ऐसा था पर अब इसे समय के अनुसार बदलना चाहिये-ऐसा वह हर विषय पर करते हैं। गनीमत है कि सर्वशक्तिमान को नहीं मानते। वरना इनमें एकाध तपस्वी निकल पड़ता तो उसे भी हैरान कर देता। उसकी तपस्या से मान लीजिये सर्वशक्तिमान प्रकट होते तो उसे वरदान मांगने को कहते तो वही यही कहता कि ‘यहां स्त्री पुरुष का भेद खत्म करो और सभी को एक जैसा बनाओ। सभी लोगों को अपनी शक्ति से प्रकट करो। आखिर यह औरत ही इंसान को जन्म देने का बोझ क्यों उठाये?’
मान लीजिये सर्वशक्तिमान एक से अधिक वरदान मांगने को कहते तो जाने क्या हाल होता। ऐसे तपस्वी उनसे कहते कि ‘यहां सभी को पैदा किया है तो उनको खाना भी उम्र भर का खाना साथ भेजो ताकि यहां आदमी मजदूर यह पूंजीपति जैसे वर्ग न बने।’
तीसरा वरदान मांगने को मिलता तो कहते कि ‘भारत के अलावा विश्व में जितने भी महान लोग हुए हैं सभी को यहीं भेज दो ताकि हम अपने पुराने नायकों को भुला सकें क्योंकि वह सभी कल्पित हैं। यहां का धर्म एक धोखा है और बाकी दुनियां के सही है इसलिये उनकी स्थापना करनी है।’
ऐसे बुद्धिजीवियों का क्या कहा जाये? उनकी कहानी फिल्मी की तरह शादी से आगे नहीं जाती। इश्क की आजादी के नाम पर सभी स्वीकार्य है फिर कोई दुर्घटना हो जाये-कहीं लड़की तो कहीं लड़के के परिवार वालों से व्यवधान होने पर-तो समाज को कोसो। कहीं कोई मर जाये तो उसे इश्क की जंग का शहीद बताओ। समाज का अंधा बताओ। माता पिता को पिछड़ी विचारधारा का प्रचारित करो। मतलब यह कि माता पिता अपने पुत्र और पुत्री के लिये योग्य वधु या वर अपने विवेक से ढूंढते हैं तो वह अंधापन है।
इनको इश्क और शादी का अंतर पता नहंी है। दरअसल इनको कौन समझाये कि इश्क का शादी में तब्दील होना ही शहीद होना है। इश्क में तो होटल और पार्क में काम चल जाता है पर जब गृहस्थी की बात आती है तो उसके लिये घर ही मोर्चे की तरह हो जाता है जहां पैसे के बिना आदमी गरीब भी कहलाता है।
देश में रोजगार की कमी है। पढ़ने लिखने के अलावा व्यवहारिक चालाकियों में दक्ष ही लोग आजकल व्यवसायों और नौकरियों में चल पाते हैं। जिनके पास बहुत काम है उनके पास इश्क में इधर उधर घूमने की फुरसत नहीं है और उनकी कमाई इतनी होती है कि उनके पास अच्छे रिश्ते स्वयं ही आते हैं। जिनके पास कम काम है या नकारा हैं वह इधर उधर हाथ पंाव मारकर ऐसी प्रेयसी ढूंढते हैं जो शादी के बाद भी उनका खाना भी बनाये और कमाये भी!
पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कारों के बीच चल रहा यह अंतहीन संघर्ष बहुत गहरा है इसके लिये जरूरी है कि केवल किताबी बातों को पढ़कर उस पर अभिव्यक्ति देने की बजाय समाज में अलग अलग स्थानों और समूहों में बैठकर वहां की दैनिक गतिविधियों को अवलोकन किया जाये। तभी बात समझी जा सकती है।
पिछले एक वर्ष से तो ऐसा लग रहा है कि इश्क का राजनीतिकरण हो गया है। कहंी आशिक तो कहीं माशुका बलिदान हो जाती है। इसके साथ ही हो जाता है व्यक्ति की आजादी की अभिव्यक्ति रोकने के विरोध का अभियान! इतना ही नहीं जिस तरह देश में राजनीतिक धारायें प्रवाहित हैं उसी के अनुसार टिप्पणियां भी आती है। कलकत्ता में इश्क पर संकट आया तो उस पर एक विचारधारा विशेष के लोग बोलेंगे तो कश्मीर में दूसरे विचाराधारा के लोग अभिव्यक्ति देंगे। ऐसे में हम जैसे लोग संकट में फंस जाते हैं कि इधर बोले तो यह समझें जायें उधर बोलें तो वह समझें जायें। खामोश रहो तो लगता है कि अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन किया। साथ ही लगता है कि यह कथित संघर्ष तो तयशुदा है-हिन्दी में बोलें तो  फिक्सिंग-जो शायद इसलिये जारी रखा जाता है कि कोई आजाद चिंतक उभरकर नाम न कमा ले-इनाम वगैरह तो क्या ले पायेंगे क्योंकि बांटने वाले तो विचाराधाराओं के अनुसार ही चलते हैं। सो कभी कभार बिना नाम लिये दिये अपनी बात कह जाते हैं। विचार वीरों से बचने तथा अपने अभिव्यक्ति के अधिकार में सामंजस्य बिठाने का यह एक अच्छा मार्ग दिखता है। अलबत्ता आशिक और माशुका के इश्क के बाद शादी न होने या होकर मिलन न होने के प्रसंग अब जिस तरह सार्वजनिक चर्चा का विषय बन रहे हैं उससे तो यही लगता है कि जिस तरह कोई फिल्म बिना प्रेम कहानी के पूरी नहीं होती उसी तरह संगठित प्रचार माध्यमों में बहसें भी इसके बिना रुचिकर नहीं  बनती। इसलिये हर आठवें दिन कोई न कोई प्रेम प्रसंग चर्चा का विषय बन ही जाता है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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