Sunday, September 22, 2013

आंखें फेरने की सियासत-हिन्दी व्यंग्य कविता (aankh ferne ke siyasat-hindi vyangya kavita)

चेहरे वही है
चरित्र भी वही है
बस, कभी बुत अपनी  चाल बदल जाते है,
कभी शिकार के लिये जाल भी बदल आते हैं।
इस जहान में हर कोई करता सियासत
कोई  लोग बचाते है घर अपना
कोई अपना घर तख्त तक ले आते हैं।
कहें दीपक बापू
सियासी अफसानों पर अल्फाज् लिखना
बेकार की बेगार करना लगता है
एक दिन में कभी मंजर बदल जाते
कभी लोगों के बयान बदल जाते हैं।
अब यह कहावत हो गयी पुरानी
सियासत में कोई बाप बेटे
और ससुर दामाद का रिश्ता भी
मतलब नहीं रखता
सच यह है कि
सियासत में किसी को
आम अवाम में भरोसमंद साथी नहीं मिलता
रिश्तों में ही सब यकीन कर पाते हैं।
घर से चौराहे तक हो रही सियासत
अपना दम नहीं है उसे समझ पाना
इसलिये आंखें फेरने की
सियासत की राह चले जाते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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