Tuesday, December 31, 2013

मुफ्त का मजा-हिन्दी व्यंग्य(mufta ka maza-hindi vyangya)



           
            हमारे देश में गरीब तो छोड़िये अमीर आदमी भी मुफ्त वस्तु की चाहत छोड़ नहीं चाहता।  अगर कहीं मुफ्त खाने की चीज बंट रही है तो उस पर टूटने वाले सभी लोग भूख के मारे परेशान हों, यह जरूरी नहीं है।  कहीं भजन हो रहा है तो श्रद्धा पूर्वक जाने वाले लोग कम ही मिलेंगे पर अंगर लंगर होने का समाचार मिले तो उसी स्थान पर भारी भीड़ जाती मिल जायेगी। हालांकि कहा जाता है कि हम तो प्रसाद खाने जा रहे हैं। 
            हमारे देश में लोकतंत्र है इसलिये लोगों में वही नेता लोकप्रिय होता है जो चुनाव के समय वस्तुऐं मुफ्त देने की घोषणा करता है।  सच बात तो यह है कि लोकतंत्र में मतदाता का मत बहुत कीमती होता है पर लोग उसे भी सस्ता समझते हैं। यहां तक मतदान केंद्र तक जाने के कष्ट को कुछ लोग मुफ्त की क्रिया समझते है। वैसे हमारे देश के अधिकतर लोग समझदार हैं पर कुछ लोगों पर यह नियम लागू नहीं होता कि वह इस लोकतंत्र में मतदाता और उसके मत की कीमत का धन के पैमाने से अंाकलन न करें।
            पानी मुफ्त मिलता है ले लो। लेपटॉप मिलता है तो भी बुरा नहीं है पर मुश्किल यह है कि यही मतदाता एक नागरिक के रूप में सारी सुविधायें मुफ्त चाहता है और अपनी जिम्मेदारी का उसे अहसास नहीं है।  जब प्रचार माध्यमों में आम इंसान की भलाई की कोई बात करता है तब हमारा ध्यान कुछ ऐसी बातों पर जाता है जहां खास लोग कोई समस्या पैदा नहीं करते वरन् आम इंसान के संकट का कारण आम इंसान ही निर्माण करता है।
            कहीं किसी जगह राशनकार्ड बनवाने, बिजली या पानी का बिल जमा करने, रेलवे स्टेशन पर टिकट खरीदने  अथवा कहीं किसी सुविधा के लिये आवेदन जमा होना हो वहां पंक्तिबद्ध खड़े होने पर ही अनेक आम इंसानों को परेशानी होती है। अनेक लोग पंक्तिबद्ध होना शर्म की बात समझते हैं। ऐसी पंक्तियों में कुछ लोग बीच में घुसना शान समझते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि दूसरों पर इसकी क्या प्रतिकिया होगी?
            जब हम समाज के आम इंसानों को अव्यवस्था पैदा करते हुए देखते हैं तब सोचते हैं कि आखिर कौनसे आम इंसान की भलाई के नारे हमारे देश में बरसों से लगाये जा रहे हैं। यह नज़ारा आप उद्यानों तथा पर्यटन स्थानों पर देख सकते हैं जहां घूमने वाले खाने पीने के लिये गये प्लास्टिक के लिफाफे तथा बोतलें बीच में छोड़कर चले जाते हैं। वह अपना ही कचड़ा कहीं समुचित स्थान पर पहुंचाने की अपनी जिम्मेदाीर मुफ्त में निभाने से बचते हैं।  उन्हें लगता है कि यह उद्यान तथा पर्यटन स्थान उनके लिये हर तरह से मुफ्त हैं और वहां कचर्ड़ा  स्वचालित होकर हवा में उड़ जायेगा या फिर जो यहां से कमाता है वही इसकी जिम्मेदारी लेगा।
             हमारे एक मित्र को प्रातः उद्यान घूमने की आदत है।  वह कभी दूसरे शहर जाते हैं वहां भी वह मेजबान के घर पहुंचते ही सबसे पहले निकटवती उद्यान का पता लगाते हैं।  जब उनसे आम इंसान के कल्याण की बात की जाये तो कहते हैं कि खास इंसानों को कोसना सहज है पर आम इंसानों की तरफ भी देखो।  उनमें कितने  मु्फ्तखोर और मक्कार है यह भी देखना पड़ेगा। मैं अनेक शहरों के उद्यानों में जा चुका हूं वहां जब आये आम इंसानों के हाथ से  फैलाया कचड़ा देखता हूं तब गुस्सा बहुत आता है।
            वह यह भी कहते हैं कि धार्मिक स्थानों पर जहां अनेक श्रद्धालु एकत्रित होते हैं वह निकटवर्ती व्यवसायी एकदम अधर्मी व्यवहार करते हैं। सामान्य समय में जो भाव हैं वहां भीड़ होते ही दुगुने हो जाते हैं। उस समय खास इंसानों को कोसने की बजाय मैं सोचता हूं कि आम इंसाना भी अवसर पाते ही पूरा लाभ उठाता है। भीड़ होने पर पर्यटन तथा धार्मिक स्थानों पान खाने पीने का सामान मिलावटी मिलने लगता है।  इतना ही नहीं धार्मिक स्थानों पर मुफ्त लंगर या प्रसाद खाने वाले हमेशा इस तरह टूट पड़ते दिखते हैं जैसे कि बरसों के भूखे हों जबकि उनको दान या भोजन देने वाले स्वतः ही चलकर आते हैं। हर जगह भिखारी अपना हाथ फैलाकर पैसा मांगते हैं। देश को बदनाम करते हैं। अरे, कोई विदेशी इन भुक्कडों देखने पर  यही कहेगा कि यहां भगवान को इतना लोग  मानते हैं उसकी दरबार के बाहर ही अपने भूख का हवाला देकर मांगने वाले इतने भिखारी मिलते हैं तब उनके विश्वास को कैसे प्रेरक माना जाये।  वह इतनी सारी निराशाजनक घटनायें बताते हैं कि लिखने बैठें तो पूरा उपन्यास बन जाये।
            ऐसा नहीं है कि हम इस तरह के अनुभव नहीं कर पाये हैं या कभी लिखा नहीं है पर इधर जब आम आदमी की भलाई की बात ज्यादा हो रही है तो लगा कि उन सज्जन से उनकी बात पर इंटरनेट पर लिखने का वादा क्यों न पूरा किया जाये। हम जैसे लेखक इसी तरह मुफ्त लिखकर मुफ्त का मजा उठाते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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Sunday, December 22, 2013

पत्थरों की सितारों जैसी शान है-हिन्दी व्यंग्य कविता(pattharon ki sitaron jaisee shaan hai-hindi vyangya kavita-hindi vyangya kavita)

ऊंचे सपने बेचना आसान है,
बाज़ार में खरीददारों की भीड़ लग जाती
बदहाल हर आम इंसान है।
कहें दीपक बापू
जितनी महंगाई बढ़ेगी
सस्ते सामान दिलाने के भाषण पर
भीड़ जुट जायेगी,
मिले न अन्न का दाना
शब्दों पर ही वाह वाह गायेगी,
बेईमानी पर सुनाओ ढेर सारी कथायें,
इसी तरह अपनी ईमानदारी बतायें,
प्यासे पर पानी की बरसात का करें वादा,
लूट लें तारीफ मुफ्त
न हो भले एक बूंद देने का इरादा,
भगवान भरोसे चला है देश हमेशा
पत्थरों पर पोता गया सौंदर्य प्रसाधन
सितारों जैसी बनी गयी उनकी शान है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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Monday, December 2, 2013

इज्जत-तीन क्षणिकायें (izzat-three short hindi poem)



इज्जत के मायने अब बदल गये हैं,

अनमोल कहने के दिन ढल गये हैं।

कहें दीपक बापू ऊंचे दाम नहीं लगाये

ऐसे कई लोगों के हाथ जल गये हैं।

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खुला बाज़ार है इज्जत भी मिल जाती है,

महंगी बिकने की बात सभी को भाती है,

कहें दीपक बापू सस्ती खरीदने के फेर में

किसी की इज्जत मिट्टी में भी मिल जाती है।

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इज्जत न करो तो किसी पर गाली भी न बरसाओ,

अपनी अदाओं पर रखो नजर फिर न पछताओ,

कहें दीपक बापू सभी की इज्जत अनमोल है

सभी को  सलाम कर अपने को बचाओ।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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