Saturday, April 30, 2011

हिन्दी शायरी-उस्ताद और शागिर्द (hindi shayri-ustad aur shagird)

उस्तादों ने
वफादारी का रास्ता दिखाया
पर कैसे की जाती है
यह नहीं सिखाया।
इसलिये ज़माने भर के शगिर्द
करते हैं यकीन निभाने की बात
मगर वफादारों में 
कभी किसी ने नाम नहीं लिखाया।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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हिन्दी शायरी-हम बेजुबान हो गये (hindi shayari-ham bejuban ho gaye)

जिनको पहनाया ताज़
वही दौलत के गुलाम हो गये,
जिन ठिकानों पर यकीन रखा
वही बेवफाई की दुकान हो गये।
किसे ठहरायें अपनी बेहाली का जिम्मेदार
दूसरों की कारिस्तानियों से मिली जिंदगी में ऐसी हार
कि अपनी ही सोच पर
ढेर सारे शक और
मुंह से निकलते नहीं लफ्ज़
जैसे कि हम बेजुबान हो गये।
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Sunday, April 24, 2011

धार्मिक संत का देहावसान, क्रिकेट का खिलाड़ी का जन्म दिन और विज्ञापन-हिन्दी लेख (death of sant, birth day of one cricket player and advertisment-hindi lekh)

         हिन्दी समाचार टीवी चैनलों का तो कहना ही क्या? क्रिकेट के भगवान का जन्म दिन, धार्मिक संत का परमधाम गमन दिवस और क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता के प्रचार को को बड़ी चालाकी से विज्ञापनों में एक साथ प्रसारित कर शोक, खुशी और नाच से संयोजित कार्यक्रम प्रसारित किए। क्रिकेट के भगवान को धार्मिक संत का महान शिष्य बता दिया जबकि अभी तक यह बात किसी को पता नहीं थी। दोनों एक साथ काम किये। संत को बड़ा बनाया तो खिलाड़ी को धार्मिक! सभी के हिन्दी समाचार टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में गज़ब की एकरूपता है जिसे देखकर लगता नहीं कि उनके मालिक अलग अलग हैं। अगर मालिकों के नाम अलग अलग हों तो फिर लगता है कि उनका प्रायोजक कोई एक ही होना चाहिए जिसके अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष इशारों पर ही उनके कार्यक्रम चलते हैं। अगर किसी फिल्म अभिनेता, अभिनेत्री या क्रिकेट खिलाड़ी का जन्म दिन है तो एक ही समय पर उससे संबंधित कार्यक्रम सभी टीवी चैनलों पर एक साथ आता है। उससे दर्शक के विकल्प नहीं रहता। किसी बड़ी शख्सियत का वार्तालाप अगर एक पर सीधे प्रसारित होता है तो सभी पर वही दिखाई देता है।
         इस तरह की एकरूपता शक पैदा करती है कि कोई एक व्यक्ति या समूह अपने पैसे की दम पर टीवी चैनलों पर प्रभाव डाल रहा है। वरना यह संभव नहीं है। जिन लोगों को पत्रकारिता का अनुभव है वह जानते हैं कि सभी अखबारों में खबरें एक जैसी होती हैं पर उनके क्रम में एकरूपता नहंी होती। कई बार तो प्रमुख खबरों में ही अंतर हो जाता है। इसका कारण यह है कि हर अखबार के संपादक का अपना अपना नजरिया होता है और यह संभव नहीं है कि सभी का एक जैसा हो जाये।
         इन हिन्दी समाचार टीवी चैनलों की व्यवसायिक चालाकियों का भी एक ही तरीका है और संभव है कि एक दूसरे की नकल पर आधारित हो, पर जिस तरह देश के दर्शकों को नादान तथा चेतनाविहीन इन लोगों ने समझा है वह शक पैदा करता है कि ऐसा करने के लिये कोई उनको प्रेरित करता है। वैसे तारीफ करना चाहिए इन लोगों की व्यवसायिक चालाकी की पर मुश्किल यह है कि वह ऐसा कर यह संदेश देते हैं कि उनका अस्तित्व स्वतंत्र नहीं है और वह दृश्यव्य तथा अदृश्व्य धनदाताओं के आधीन ही वह कार्य करते हैं।
क्रिकेट खिलाड़ी का जन्म दिन पड़ा तो धार्मिक संत ने भी उसी दिन देह त्यागी। बताया गया कि क्रिकेट के भगवान उन धार्मिक संत के बहुत बड़े भक्त हैं। वह आज क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में अपना मैच नहीं खेलना चाहते। वह अपना जन्म दिन नहीं मना रहे। बताया तो यह गया कि क्रिकेट के भगवान ने अपने को कमरे में बंद कर लिया है। इस तरह क्लब स्तरीय प्रतियोगिता का प्रचार हुआ। क्रिकेट खिलाड़ी के जन्म दिन पर कसीदे भी पढ़ते हुए बताया गया कि वह तो सत्य साई के भक्त हैं। क्रिकेट के भगवान के साईं शीर्षक के कार्यक्रम प्रसारित हुए। फिर यह बताना भी नहीं भूले कि उस क्रिकेट के भगवान को लोगों ने जन्मदिन की बधाई दी।
        पुट्टापर्थी के धार्मिक संत सत्य साईं बाबा के निधन पर उनके भक्त दुःखी हैं। उन्होंने अपने क्षेत्र मेें बहुत काम किया। इस पर विवाद नहीं है पर उनके निधन पर घड़ियाली आंसु बहाता हुऐ हिन्दी समाचार चैनल अन्य लोगों के लिये हास्य का भाव पैदा कर रहे हैं। सच कहें तो एक तरह से वह शोक मना रहे हैं जिसमें क्रिकेट खिलाड़ी का जन्म दिन भी शामिल कर लिया तो क्लब स्तरीय क्रिकेट भी शामिल होना ही था। सारी दुनियां जानती हैं कि प्रचार माध्यम किसी के मरने पर कितना दुःखी होते हैं। सत्य साईं के निधन पर दुःख व्यक्त करना यकीनन प्रचार प्रबंधकों की व्यवसायिक मज़बूरी है। उनकी संपत्ति चालीस हजार करोड़ की बताई गयी है जो कि मामूली नहीं है। यकीनन उनके संगठन की पकड़ कहीं न कहीं न वर्तमान बाज़ार पर रही होगी। इसलिये उनके भावी उत्तराधिकारियों  को प्रसन्न करने के लिये यह प्रसारण होते रहे। बाज़ार के सौदागरों ने स्पष्ट रूप से प्रचार प्रबंधकों को इशारा किया होगा कि यह सब होना है। अगर ऐसा नहीं होता तो शोक जैसा माहौल बना रहे इन समाचार चैनलों ने विज्ञापन कतई प्रसारित नहीं किये होते।
              अगर ऐसा नहीं भी हो रहा है तो यह मानना पड़ेगा कि हिन्दी टीवी चैनलों के संगठनों के पास समाचार, विश्लेषण तथा चर्चाओं के लिये विद्वान नहीं है इसलिये वह क्रिकेट, फिल्म और मनोरंजन चैनलों की कतरनों के सहारे चल रहे हैं। इनके मालिक कमा खूब रहे हैं पर अपने चैनल पर खर्च कतई नहंी कर रहे। भले ही देश में ढेर सारे समाचार चैनल हैं पर प्रतियोगिता इसलिये नहीं है क्योंकि उनको विज्ञापन मिलने ही है चाहे जैसे भी कार्यक्रम प्रसारित करें। उनको बड़ी कंपनियां कार्यक्रमों या अपने उत्पाद के प्रचार के लिये प्रचार माध्यमों को विज्ञापन नहीं देती बल्कि उनके दोष सार्वजनिक रूप से लोगों के सामने नहीं आयें इसलिये देती है। यही कारण है कि प्रयोक्ताओं की पसंद नापसंद की परवाह नहीं है और थोपने वाले समाचार और विश्लेषण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। अर्थशास्त्र पढ़ने वाले जानते हैं कि भारत में धन की कमी नहीं पर फिर भी लोग गरीब हैं क्योंकि यहां प्रबंध कौशल का अभाव है। पहले यह सरकारी क्षेत्र के बारे में कहा जाता था पर निजी क्षेत्र भी उससे अलग नहीं दिखता यह सब प्रमाणित हो रहा है।
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Sunday, April 17, 2011

anna hazare ka anti corruption movemnt -a specila hindi article अन्ना हजारे के आंदोलन पर विशेष लेख-अब रहेगी अगली बैठक पर नज़र

            लिखते लिखते हमने अन्ना हजारे साहिब पर तीन लेख लिख डाले। सभी फ्लाप हो गये। अब तो अपनी समझ पर ही संदेह होने लगा है। इसका कारण यह है कि जब भीड़ किसी विषय पर नहीं सोच रही हो उस पर आप सोचने लगें या भीड़ किसी विषय पर सोच रही हो और आप न सोचें तो अपनी अक्ल पर संदेह करना बुरा काम नहीं है। अपनी अक्ल पर संदेह आत्ममंथन के लिये प्रेरित करता है जो कि भविष्य के लिये लाभदायी होता है।
          कल जनलोकपाल कानून बनाने के मसले पर प्रारूप समिति की बैठक हुई। इसमें पांच नागरिक प्रतिनिधियों के शामिल होने की चर्चा बहुत हुई थी पर ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं कुछ रह गया है जो सामने नहीं आया। एक तरफ तो यह बात आ रही है कि नागरिक प्रतिनिधियों ने जनलोकपाल कानून के लिये तैयार अपने प्रारूप से कुछ ऐसे प्रावधान हटा लिये हैं जिनका विरोध यथास्थितिवादी कर रहे हैं। दूसरी तरफ एक केजरीवाल महोदय कह रहे हैं कि वहां कुछ नहीं हुआ केवल प्रारंभिक बातचीत हुई है। जिन वकील साहब ने प्रारूप बनाने में महत्वपूर्ण अदा की थी उनका बयान नहीं आया। अलबत्ता पूर्व न्यायाधीश जो कि अब नागरिक प्रतिनिधि हैं ने बताया कि वह विवादास्पद प्रसंग प्रारूप में नहीं था। तब यह सवाल उठता है कि फिर किसलिये इतनी जद्दोजेहद हुई? अगर प्रचार माध्यमों के प्रसारणों तथा प्रकाशनों का अवलोकन करें तो नागरिक प्रतिनिधियों के कथित प्रारूप की उन्हीं विवादास्पद धाराओं पर मतभेद था जिनको हटा दिया गया है। अन्ना जी ने दम के साथ अपने प्रारूप पर डटे रहने की बात की थी पर ऐसा लगता है कि कानूनी साथी कुछ दूसरा ही सोचते रहे थे। पता नहीं अन्ना हजारे जी इस बारे में क्या सोच रहे हैं?

                 जब प्रचार माध्यमों में श्रीअन्ना हजारे जी की आरती गाने का क्रम जारी है तब अनेक बुद्धिजीवियों का ध्यान केवल नागरिक प्रतिनिधियों के जनलोकपाल के प्रारूप में प्रस्तुत उन्हीं धाराओं की तरफ ध्यान जा रहा है जिनको नागरिक प्रतिनिधियों ने हटा दिया। ऐसे में लगता है कि हम ही कहीं पढ़ने और समझने में गलती कर रहे हैं। अलबत्ता अखबार बता रहा है कि अन्ना जी की टीम कुछ पीछे हटी है। कितना, हमें पता नहीं है। इधर हमारे मन में हास्य कविताओं का कीड़ा कुलबुला रहा है पर जब तक मामला समझ लें उससे बचना ही ठीक है। वैसे अन्ना जी की दहाड़ अभी भी सुनाई दे रही है पर उसका असर कम हो सकता है क्योंकि लोग जैसे जैसे इस बैठक के बारे में जानेंगे उनके दिमाग में प्रश्न उठते जायेंगे और यह पीछे हटने टाईप की खबरें उन्हें श्री अन्ना हजारे के आंदोलन से विरक्त कर सकती हैं। वैसे भी उनके बयानों से एक बात झलकती है कि वह भी प्रचार माध्यमों के प्रसारण से प्रभावित होकर बयान देते हैं पर फिर पीछे हट जाते हैं।
             नागरिक प्रतिनिधियों में केजरीवाल ही ऐसे लगते हैं जो वर्तमान व्यवस्था से कभी नहीं जुड़े होंगे। अन्ना साहब भी नहीं जुड़े पर बाकी तीन के बारे में यह तो कहा जा सकता है कि वर्तमान व्यवस्था में वह कहीं न कहीं कार्यरत रहे हैं। ऐसे में कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा है कि कमरे के अंदर की राजनीति और बाहर सड़क की राजनीति के अलग अलग होने का सिद्धांत काम कर रहा है। केजरीवाल साहब कहते हैं कि वहां ऐसा कुछ नहीं हुआ पर उनके साथी और पूर्वजज का कहना है कि विवादास्पर धाराऐं तो उनके प्रारूप में शामिल ही नहीं थी। कहीं ऐसा तो नहीं केजरीवाल साहब केवल शोपीस की तरह मान लिये गये हों और उनसे बगैर ही ऐसी बातें भी हुई हों जिसकी जानकारी उनको न हो। बहरहाल हमारे पास स्तोत्र के नाम यही प्रचार माध्यम हैं और एक आम लेखक की तरह हम भी उसी आधार पर ही बात लिखते हैं। अब हमारी नज़र दो मई की बैठक पर है जहां अन्ना जी की टीम आगे बढ़ेगी या फिर कुछ पीछे खिसकेगी यह देखना होगा। एक बात निश्चित है कि इस देश में सुधार लाने की बात सभी लोगों के दिमाग में है, उन लोगों के दिमाग में भी जो वर्तमान व्यवस्था में फलफूल रहे हैं पर जब देश के हालत देखते हैं तो उनका शिखर पर चुप बैठे रहना भी उनको स्वयं को भी अखरता है। सवाल यह है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन?
बहरहाल फ्लाप लेख एक साथ प्रस्तुत हैं

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anna hazare,moovment against corruption,bharashtachar ke khilaf andolan

Saturday, April 16, 2011

कागज के पदों वाले शेर-हिन्दी व्यंग्य कविता (kagaj ke sher-hindi vyangya kavita

अपना रास्ता यूं भटक गये,
नैतिकता और आदर्श की बातें
रखी जुबान तक
हाथ और पांव
सामान समेटने में अटक गये।
बढ़ाते रहे बैंक खाते में रकम,
नहीं रहा अपने गरीब होने का गम,
खुश हो रहे रोज अखबार में छपता नाम,
प्रचार के बन गये गुलाम,
सड़कों पर चलना कर दिया बंद,
पैट्रोल फूंकने को हो गये पाबंद,
कागज के पदों वाले शेर बहुत हैं
मगर पहरों से सजे महल में भटक गये
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Tuesday, April 5, 2011

योग शिक्षक को क्रिकेट में रत्न दिखा-हिन्दी लेख (yoga teachar and ratna in cricket-hindi article)

   विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक ने क्रिकेट के भगवान को देश का रत्न सम्मान देने की मांग का समर्थन किया है-इस खबर ने हमें हैरान कर दिया और अंदर ढेर सारे विचार उठे। इनके क्रम का तारतम्य मिलना ही कठिन लगा रहा हैं।
   तत्वज्ञानी आम लोगों पर हंसते हैं। हमारे देश के अनेक संतों और मनीषियों ने अपनी देह में स्थित आत्मा रूपी रत्नकी परख करने की बजाय पत्थर के टुकड़े को रत्न मानने पर बहुत सारे कटाक्ष किये हैं। वैसे आम लोगों को तत्वज्ञानियों का संसार बहुत सीमित दिखता है पर वह वह उसमें असीमित सुख भोगते हैं। जबकि आम इंसान मायावी लोगों के प्रचार में आकर पत्थर के टुकड़े रत्न और हीरे पर मोहित हेाकर जिंदगी गुजारते हैं। संकट में काम ने के लिये सोने का संग्रह करते हैं जो चंद कागज के टुकड़े दिलवाने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर सकता। माया के चक्कर में पड़े लोगों को हमेशा भय लगा रहता है कि पता नहंी कब वह विदा हो जाये तब सोना, चांदी हीरा जवाहरात और रत्न का उसके विकल्प का काम करेगा। जिस ज्ञान के साथ रहने पर संकट आ ही नहीं सकता- और आये तो असहनीय पीड़ा नहीं दे सकता-उसके संचय से आदमी दूर रहता है। शायद यही कारण है कि इस संसार में दुःख अधिक देखे जाते हैं। मजे की बात है कि लोग सुख भोगना भी नहीं जानते क्योंकि उनका पूरा जीवन ही संकट की सोच को लेकर धन संग्रह की चिंताओं में बीतता है। इस संग्रह में पत्थर के टुकड़ों में रत्न सर्वोच्च माना जाता है। जिसे रत्न मिल गया समझ लो वह इस मायावी संसार हमेशा के लिए तर गया।

    इंसानों में एक प्रवृत्ति यह भी है कि वह इंसान से अधिक कुछ दिखना चाहता है। अगर किसी शिखर पुरुष की चाटुकारिता करनी हो तो उससे यह कहने से काम नहीं चलता कि ‘आप वाकई इंसान है,’ बल्कि कहना पड़ता है कि ‘आप तो देवतुल्य हैं’, या अधिक ही चाटुकारिता करनी हो तो कहना चाहिए कि ‘आप तो हमारे लिये भगवान हैं।’
वैसे ऐसी बातें आम तौर से निरीह लोग बलिष्ठ, धनवान और पदारूढ़ लोगों से कहते हैं। जहां स्तर में अधिक अंतर न हो वहां कहा जाता है कि ‘आप तो शेर जैसे हैं’, ‘आप तो सोने की खान है’, या फिर ‘आप तो इस धरती पर रत्न हैं’।
    आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में चाटुकारिता को भव्य रूप मिला है। इसका कारण यह है कि अमीर और गरीब के बीच अंतर बढ़ गया है। धीरे धीरे दोनों के बीच पुल की तरह काम करने वाला मध्यम वर्ग भी अब लुप्त हो रहा है। ऐसे में अमीर रत्न बनते जा रहे हैं और उनके मातहत जो उनको प्रिय हैं वह भी रत्न से कम नहंी रह जाते। फिर पश्चिम की तर्ज पर नोबल, बूकर और सर जैसे सम्मानों की नकल भारतीय नामों से कर ली गयी है। उनमें रत्न नामधारी पदवियां भी हैं।
     स्थिति यह है कि जिन लोगों ने मनोरंजन का व्यवसाय कर अपने लिये कमाई की उनकी लोकप्रियता को भुनाने के लिये उनका रत्न सम्मान देने की मांग उठती है। हमारे देश में लोकतंत्र है और जनता से सीधे चुनकर आये लोग स्वयं ही रत्न होने चाहिए पर हर पांच साल बाद पब्लिक के बीच जाना पड़ता है। इसलिये अपना काम दिखाना पड़ता है। अब यह अलग बात है कि बढ़ती जनसंख्या की वजह से विकास का काम कम दिखता है या फिर भ्रष्टाचार की वजह से दिखता ही नहीं है। सो जनता को निरंतर अपने पक्ष में बनाये रखने के लियो किया क्या जाये? मनोरंजन के क्षेत्र में क्रिकेट और फिल्म का बोलबाला है। उसमें सक्रिय खिलाड़ियों और अभिनेताओं के बारे में यह माना जाता है कि वह तो लोगों के हृदय में रत्न की तरह हैं तो उनको ही वह सम्मान देकर लागों की वाहवाही लूटी जाये। इसलिये जब जनता से सामना करना होता है तो यह अपने उन्हें अपना मॉडल प्रचारक बना लेते हैं।
     किकेट के एक खिलाड़ी को तो भगवान मान लिया गया है। उसे देश का रत्न घोषित करने की मांग चल रही है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है। अभी विश्व कप क्रिकेट फायनल में हमारी टीम की तब नैया डूबती नज़र आई जब बाज़ार के घोषित मास्टर और ब्लास्टर सस्ते में आउट होकर पैवेलियन चले गये। मास्टर यानि भगवान का विकेट गिरते ही मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में सन्नाटा छा गया। मगर विराट, गंभीर, और धोनी न भगवान बनकर लाज रख ली और श्रीलंका के 264 रन के स्कोर से आगे अपनी टीम को पार लगाया। बहरहाल बाज़ार की दम पर चला यह मेला अब समाप्त हो गया है मगर उसका खुमारी अभी बनी हुई है। अब किं्रकेटरों की आरती उतारने का काम चल रहा है।
     सब ठीक लगा पर विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक ने जब क्रिकेट के भगवान को देश का रत्न घोषित करने की मांग की तो थोड़ी हैरानी हुई। हम सच कहें तो योग शिक्षक ही अपने आप में एक रत्न हैं। भारतीय योग को जनप्रिय बनाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है-कम से कम जैसा अप्रतिबद्ध लेखक तो हमेशा ही उनके पक्ष में लिखता रहेगा मगर उनकी यह मांग कुछ नागवार गुजरी। इसके पीछे हमारी अपनी सोच गलत भी हो सकती है पर इतना तय है कि एक योगी से मायावी मेले के कल्पित भगवान को रत्न मानना हैरान करने वाला है। पहली बार हमें यह आभास हुआ कि योग के सूत्रों का प्रतिपादन महर्षि पतंजलि के माध्यम से हो जाने पर भी भगवान श्रीकृष्ण को श्रीमद्भागवत गीता के लिये महाभारत करवाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? वैसे जो योग साधना में निर्लिप्त भाव से अभ्यास करते हैं अंततः स्वतः ही श्रीगीता की तरफ जाते हैं पर जिनको योग का व्यवसाय केवल प्रचार प्रसार के लिये करना है उनको तत्वज्ञान की आवश्यकता नहंी होती। यह अलग बात है कि उसके बिना वह योग शिक्षक होकर रह जाते हैं। हमारे प्रसिद्ध योग शिक्षक योग साधना के आठ अंगों के दो ही अंगों प्राणायाम तथा योगासन में उतने ही सिद्ध हैं जितना एक व्यवसायी को होना चाहिए।
     क्रिकेट खेल इतना मायावी है कि इतने बड़े योगी और कहां उसके चक्कर में फंस गये। एक योगी को हर विषय में जानकारी होना चाहिए। वह न भी रखना चाहे तो उसकी देह विचार और मन में आई शुद्धता उसे सांसरिक जानकारी पाने के लिये प्रेरित करती है और यह बुरा भी नहीं है। जिनसे समाज का उद्धार होता है उन विषयों से योगी का सरोकार होना चाहिए। जहां तक क्रिकेट की बात करें तो वह समाज में समय पास करने या मनोरंजन पास करने के अलावा कुछ नहीं है। इसमें लोग पैसा खर्च करते हैं। टीवी पर इन मैचों के दौरान जो विज्ञापन आते हैं उसका भुगतान भी आम उपभोक्ता को करना पड़ता है। एक योग साधक के रूप में हम इतना तो कह सकते हैं कि क्रिकेट और योग परस्पर दो विरोधी विषय हैं। एक योग शिक्षक को तो लोगों से क्रिकेट में दूसरों की सक्रियता देखकर खुश होने की बजाय योग में अपनी सक्रियता देखने की प्रेरणा देना चाहिए।
     ऐसे में योग शिक्षक ने अपने अभियान को स्वतंत्र होने के आभास को समाप्त ही किया है। उनके आलोचक उन पर उसी बाज़ार से प्रभावित होने का आरोप लगाते हैं जो क्रिकेट का भी प्रायोजक है। ऐसे में योग शिक्षक के समर्थकों के लिये विरोधियों के तर्कों का प्रतिवाद कठिन हो जायेगा। आखिरी बात यह है कि योग साधना एक गंभीर विषय है और यह मनुष्य के अंदर ही आनंद प्राप्त के ऐसे मार्ग खोलती है कि बाह्य विषयों से उसका वास्ता सीमित रह जाता है। क्रिकेट तो एक व्यसन की तरह है जिससे बचना आवश्यक है। यह अलग बात है कि एक योग साधक के नाते समाज में इसके प्रभावों का अवलोकन करते हुए हमने भी क्रिकेट भी देखी। आनंद भी लिया जिसकी कृत्रिमता का आभास हमें बाद में हुआ पर हम अभी योग में इतने प्रवीण नहीं हुए कि उससे बच सकें। अपनी सीमाऐं जानते हैं इसलिये यह नहीं कहते कि योग शिक्षक को ऐसा करना नहीं चाहिए था। बस यह ख्याल आया और इसलिये कि कहंी न कहंी उनके प्रति हमारे मन में सद्भाव है।
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