Saturday, November 2, 2013

दिवाली और धनतेरस की बधाईःदूसरे को प्रसन्न देखकर खुश होने की कला सीखो-हिन्दी चिंत्तन लेख(diwali aur dhanteras ki badhai:dusre ko prasanna dekhkar khush hone ki kala seekho-hindi chinttan lekh,hindi thought article



                        भारत में अन्य त्यौहारों की तरह दिपावली भी अत्यंत उल्लास से मनायी जाती है।  हालांकि भारत पर्वों का देश माना जाता है पर यहां दिवाली सबसे अधिक दिन तक मनाया जाता है। एक दिपावली का पर्व तीन से पांच दिन तक अपने उल्लस का प्रभाव बनाये रखता है।  कल धनतेरस का दिलन था। बाज़ार में जमकर खरीददारी हुई।  छोटे व्यापारियों के लिये दिवाली का त्यौहार वर्ष भर तक आय देने वाला पर्व माना जाता रहा है यह अलग बात है कि अब मॉल सस्ंकृति के आ जाने से पंरपरागत व्यवसायियों के लिये अपने कार्य में आय का आकर्षण कम हुआ है।
                        हालांकि महंगाई ने भारतीय उपभोक्ता के समक्ष भारी संकट पैदा कर रखा है इसके बावजूद  बाज़ार में लोगों की भीड़ बहुत रहती है पर बहुत कम लोग खरीददारी कर पाते है। अनेक तो भाव पूछकर ही त्यौहार मना लेते हैं। दुकानदार जब किसी वस्तु का भाव बताता है तो बहुत कम ग्राहक अपनी प्रसन्नता या उल्लास बरकरार रख पाते है। अनेक लोग तो छोटे सामान खरीदकर ही औपचारिकता निभाते हैं तो कुछ बाज़ार में खापीकर ही धनतेरस मनाकर अगले वर्ष अच्छी संभावनाओं का विचार कर लौट आते है।
                        सभी के पास पैसा अधिक नहीं है पर जिनके पास है उन्हें तो कीमत की परवाह ही नहीं होती।  हम जैसे चिंत्तक बाज़ार में घूमकर ऐसे विरोधाभासी समाज को देखते हैं जिनकी कल्पना आर्थिक रणनीतिकार तक नहीं कर सकते।  एक ही दुकान पर एक औरत छोटे से छोटा सामान ढूंढ रही है तो दूसरी तरफ दूसरी औरत बिना भाव पूछे बड़ा सामान अपनी कार में रखवाती जा रही है।  कोई औरत मध्यम दर्जे के सामान पर भाव के लिये बहस कर रही है।
                        कल हमारा स्वास्थ्य खराब था। फिर भी बाज़ार गयें  एक व्यवसायिक परिवार का सदस्य होने के नाते हमारे लिये धनतेरस खरीदने नहीं बल्कि वस्तु बेचने की परंपरा रही है।  बाद में नौकरी में आ गये तो श्रीमतीजी और हमने वस्तु खरीदने की परंपरा निभाई।  यह सब दूसरों की देखा देखी शुरु  किया। यह अलग बात है कि इस अवसर पर लिये गये अनेक सामान अभी भी अलमारी  में बंद पड़े है। कुछ का इस्तेमाल थोड़े  समय तक किया तो कुछ को भूल ही गये। कभी कभी अलमारी खोलने पर याद आता है कि यह सामान तो हमने धनतेरस पर खरीदा था।  तांबे का पानी पानी पीने के लिये हमने दो जग खरीदे थे। एक ढक्कन और एक बिना ढक्कन वाला।  कहा जाता है कि इस जग का पानी पीने वाले को वायु विकार नहीं होता।  कुछ समय तक उसका उपयोग किया फिर अलमारी में बंद कर दिये।  इसका कारण यह था कि हमने योग साधना प्रारंभ की तो बीमारियों पर एक स्वतः नियंत्रण हो गया।  हमे लगने लगा कि बीमारियां तो होने के साथ ठीक भी होती  रहेंगी,  औषधियां केवल थोड़े समय के लिये उपयोगी है।  रोज रात को तांबे का जग भरना एक बुरी आदत लगती थी। फिर पानी के लिये आरोह भी लगा लिया तो अब वह जग अंदर ही रखे रखे रहते है।  धनतेरस के अवसर  पर सफर के लिये एक अटैची हमने खरीदी थी।  हमें  दिवाली के अगले दिन सांई बाबा जाना था। टिकट आरक्षित था।  अचानक रिश्तेदारी में गमी हो गयी जिसकी वजह से वह कार्यक्रम रद्द करना पड़ा।  उसके बाद हम अनेक बार बाहर गये पर उस अटैची का उपयोग नहीं कर पाये। श्रीमतीजी का कहना है कि अटैची कुछ ज्यादा बड़ी है और उसका उपयोग सर्दी में कंबल आदि लेने पर ही करना अच्छा रहेगा।  चूंकि हमने उसके बाद अधिकतर यात्रायें गर्मी में की हैं इसलिये वह अटैची अब घरेलू उपयोग के लिये काम आती है।
                        कल हम बाज़ार में  एक बर्तन की दुकान पर गये तो एक थाली ऐसी देखी जिसमें कटोरियां साथ लगी थीं।  श्रीमतीजी ने उसका भाव पूछा तो दुकानदार ने एक सौ बीस रुपया बताया।  वहीं एक दूसरी भद्र महिला भी खड़ी थी उसने श्रीमतीजी से कहा-‘‘आप इससे कहें कि हम लोग 12 थालियां खरीद लेंगे इसलिये सौ रुपये थाली का भाव लगा दे।’’
                        वह थाली खरीदने की हमारी योजना नहीं थी पर उस भद्र महिला के जीवन साथी पुरुष ने हमसे कहा कि ‘‘आप भाव ताव कर लें तो छह आप और छह थालियां हम लेंगे।’’
                        वह थालियां खरीदने में पहले दिलचस्पी न होने पर भी  उस भद्र दंपत्ति का प्रस्ताव  खारिज करने योग्य नहीं था।  श्रीमतीजी ने दुकानदार को ललकार भरे अंदाज में संदेश देते हुए कहा‘‘भईया, अगर सौ रुपये प्रति थाली का भाव लगाओ तो अभी बारह खरीद लेेते हैं।
                        थोड़ी बहस के बाद मामला तय हो गया। वह भी तब जब हमने उस दुकानदार बारह थाली के तेरह सौ रुपये लगाने पर अड़ गया और हमने उसकी दुकान  से परे हटने का स्वांग किया।  उस समय उस भद्र महिला ने धीरे से श्रीमतीजी से कहा भी कि‘‘चलो पचास रुपये छह थाली पर ज्यादा देना बुरी बात नहीं है।’’
                        इसी बीच हमारी सख्ती से दुकानदार झुक गया। अंततः सौदा हो गया। श्रीमतीजी और उस भद्र महिला ने अपने अपने हिसाब से छह छह थालियां छांट ली।  जब वह महिला थालियां छांट रही थी तब श्रीमती जी थोड़ा दूर हटकर ने कहा-‘‘देखा कितने मनोयोग से वह थालियां छांट रही है।’’
                        उसके चेहरे पर सौम्यता और एकाग्रता के भाव से भरी प्रसन्नता  देखकर एक सुखद अनुभूति हुई।  उसका साथी भद्र पुरुष हमारी तरह थोड़ा परे हटकर खड़ा रहा।  बहरहाल उस भद्र दंपति के चेहरे पर चमक देखकर हमें एक सुख मिला।  सामान खरीदने की बनस्पित  हम दोनों  के लिये यही अनुभूति अधिक सुखद थी। हम दोनों  के अधरों पर एक मुस्कराहट थी। वह भद्र दंपति इसे नहीं समझ पाये यह अलग बात है। अपने मन में आयी बात हम उनको बताने से वैसे भी रहे।
                        अपनी प्रसन्नता के लिये सभी दिन रात एक किये रहते हैं। फिर भी कोई खुश नहीं है।  इसका कारण यह है कि कोई भी दूसरे को खुश देखकर खुद खुश नहीं होता।  भौतिक सामान कुछ बोलते नहीं है मगर उसे लेने वाला एक संवेदनशील प्राणाी होता है और उसे भावों से ही सुख दुःख का निर्माण होता है। इंसानों को पढ़ो, उनके भावों को पढ़ो।  संसार में सामान बहुत है पर प्रसन्न लोगों की कमी है।  इस संसार में अनेक प्रकार के जीव हैं। कुछ बेजुबान है तो कुछ जुबान वाले। हम तो केवल इंसानों की भाषा समझते है। हां, इतना तय है कि बेजुबान जीव भी प्रसन्न होते हैं यह अलग बात है कि उनमें अनेक के चेहरे पर हंसी नहीं देखी जा सकती।
                        प्रातःकाल योग साधना करते समय गाय को रोटी देने पर जब वह खाती है तो वह कुछ कहती नहीं है। उसके भाव बताते हैं कि वह अपने अंदर एक सुकून अनुभव कर रही है। उसके बाद छत पर जब दाना डालते हैं तब चिड़ियाओं तथा गिलहरियों का झुड एकदम आता है तब वह दृश्य एक सुखद अनुभूति देता है। आखिरी बात यह कि पाने से कोई सुखी नहीं हुआ देने से ही कोई घटा नहीं है। हमारे पर्वों में अध्यत्मिक दर्शन की प्रधानता है। इसे पढ़ने से अधिक समझने की आवश्यकता है।
                        इस दिवाली, धनतेरस और भाई दौज के अवसर पर सभी पाठकों और ब्लॉग लेखक मित्रों को बधाई।



कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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