Saturday, October 16, 2010

बिज़ली कटौती होते होते आपूर्ति जीरो रह जायेगी-हिन्दी हास्य कविता (bijali katauti se aapoorti zero-hindi hasya kavita)

दादा ने पोते से कहा
‘यह रोज बिज़ली चली जाती है,
तुम निकल जाते हो बाहर खेलने
किताबें और कापियां यहां खुली रह जाती हैं।
ले आया हूं तुम्हारे लिये माटी के चिराग,
जो रौशनी करने के लिये लेते थोड़ी तेल और आग,
तुम्हारे परदादा इसी के सहारे पढ़े थे,
शिक्षा के कीर्तिमान उन्होंने गढ़े थे
मेरे और अपने पिताजी की राह
अब तुम्हारे लिए चलना संभव नहीं,
बिज़ली कटौती के घंटे बढ़ते जा रहे हैं
आपूर्ति जीरो पर न आयें कहंी,
इसलिये तुम तेल के दीपक की रौशनी में
पढ़ना सीख लो तो ही तुम्हारी भलाई है,
वरना आगे कॉलिज की भी लड़ाई है
देश की विकास भले ही बढ़ती जाये
पर बिज़ली कटौती होते होते आपूर्ति जीरो हो जायेगी
अखबारों में रोज खबर पढ़कर
स्थिति यही नज़र आती है।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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महंगाई और बिज़ली कटौती-हिन्दी क्षणिकायें (mahangai aur bijli katauti-hindi vyangya kavitaen)

महंगाई पर लिखें या
बिज़ली कटौती पर
कभी समझ में नहीं आता है,
अखबार में पढ़ते हैं विकास दर
बढ़ने के आसार
शायद महंगाई बढ़ाती होगी उसके आंकड़ें
मगर घटती बिज़ली देखकर
पुराने अंधेरों की तरफ
बढ़ता यह देश नज़र आता है।
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सर्वशक्तिमान को भूलकर
बिज़ली के सामानों में मन लगाया,
बिज़ली कटौती बन रही परंपरा
इसलिये अंधेरों से लड़ने के लिये
सर्वशक्तिमान का नाम याद आया।
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पेट्रोल रोज महंगा हो जाता,
फिर भी आदमी पैदल नहीं नज़र आता है,
लगता है
साफ कुदरती सांसों की शायद जरूरत नहीं किसी को
आरामों में इंसान शायद धरती पर जन्नत पाता है।
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भलाई की दुकानें-हिन्दी शायरी (bhalai ki dukane-hindi shayri)

देश में बढ़ रहा है खज़ाना
मगर फिर भी अमीरों की भूख
मिटती नज़र नहीं आती।

देश में अन्न भंडार बढ़ा है
पर सो जाते हैं कई लोग भूखे
उनकी भूख मिटती नज़र नहीं आती।

सभी बेच रहे हैं सर्वशक्तिमान के दलाल
शांति, अहिंसा और गरीबों का ख्याल रखने का संदेश
मगर इंसानों पर असर होता हो
ऐसी स्थिति नहीं बन पाती।

फरिश्ते टपका रहे आसमान से तोहफे
लूटने के लिये आ जाते लुटेरे,
धरती मां बन देती खाने के दाने,
मगर रुपया बनकर
चले जाते हैं वह अमीरों के खातों में,
दिन की रौशनी चुराकर
महफिल सज़ाते वह रातों में,
भलाई करने की दुकानें बहुत खुल गयीं हैं
पर वह बिना कमीशन के कहीं बंटती नज़र नहीं आती।
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Sunday, October 3, 2010

अभी इंतजार करो-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (intazar-hindi vyangya kavitaen)

खड़े हैं गरीब
खाली पेट लिये हुक्मत की रसोई के बाहर
जब भी मांगते हैं रोटी
तो जवाब देते हैं रसोईघर के रसोईये
‘अभी इंतजार करो
अभी तुम्हारी थाली में रोटी सजा रहे हैं,
उसमें समय लगेगा
क्योंकि रोटी के साथ
आज़ादी की खीर भी होगी,
खेल तमाशों का अचार भी होगा,
उससे भी पहले
विज्ञापन करना है ज़माने में,
समय लगेगा उसको पापड़ की तरह सज़ाने में,
तुम्हारी भूख मिटाने से पहले
हम अपने मालिकों की छबि
फरिश्तों की तरह बनाने के लिये
अपनी रसोई सजा रहे हैं।
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देश की भूख मिटाना
बन कर रह गया है सपना
मुश्किल यह है कि
रोटी बनाने के नये फैशन आ रहे हैं,
खर्च हो जाता है
नये बर्तन खरीदने में पैसा
पुरानों में रोटी परोसने से लगेगा
नये बज़ट हाल पुराने जैसा,
इधर ज़माने में
गरीब की थाली सजने से पहले ही
नये व्यंजन फैशन में आ रहे हैं,
काम में नयापन जरूरी है

फिर देश की तरक्की देश में अकेले नहीं दिखाना,
ताकतवर देशों में भी नाम है लिखाना,
समय नहीं मिलता
इधर गरीबों और भूखों की पहचान भी बदली है
उनके नये चेहरे फैशन में आ रहे हैं।
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