उत्तराखंड में हादसे के बाद हिन्दी समाचार चैनलों ने जो किया वह प्रशंसनीय
है। यकीनन अगर इन चैनलों ने सीधे जाकर
घटनाक्रम का जीवंत प्रसारण नहीं किया होता तो शायद देश के लोग इस आपदा से
जुड़ी अनेक घटनाओं के बारे में जान नहीं
पाते। इससे भी बड़ी बात यह कि जितनी सहायता भले ही वह अपर्याप्त अभी तक अपर्याप्त ाीर हो पर पीड़ितों
को मिल पायी, उसका श्रेय इन्ही समाचार चैनलों के माध्यम से मिल पाया। ऐसा लगता है कि उस समय
आपदा प्रबंध में लगी शासकीय तथा सामाजिक संस्थायें इन्हीं चैनलों की खबरों के आधार
पर पीड़ितों की सहायता को पहुंच रही होंगी।
उससे भी बड़ी बात यह कि लापता लोगों की जानकारी इन चैनलों ने एकत्रित की उसी
आधार पर ही मृतकों का आंकड़ा तय होगा यह बात तय है। अभी एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था
ने लापता लोगों की संख्या 16000 हजार से अधिक का जो आंकड़ा दिया है लगता वह इन्हीं चैनलों के समाचार के आधार से एकत्रित
किया गया होगा। कोई अन्य संस्था इसे
उपलब्ध करा पाये यह संभव नहीं है। अब यह खबर इन्हीं चैनलों ने उस संस्था के हवाले
से दी कि उत्तराखंड में मृतकों की संख्या बताई है वह उन्हीं के प्रयासों पर आधारित
लगती है। आजतक, इंडिया, आईबीएन, जी न्यूज, एनडीटीवी, एबीवीपी न्यूज, इंडिया टीवी तथा अन्य
चैनलों ने लापता लोगों की सूचनायें एकत्रित कीं।
अगर कोई व्यक्ति इनकी सूची के आधार पर काम करे तो संभवतः तो पूरी तरह
न सही पर कुछ हद तक एक अनुमानित संख्या
मिल सकती है।
हालांकि यह चैनल हमेशा ही फालतू खबरें देते हैं। कभी कभी एक खबर को इतना
लंबा खींच देते हैं कि बोरियत हो जाती है। मुख्य बात यह है कि खोजी पत्रकारिता का
इन चैनलों में पूरी तरह से अभाव दिखता है। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष रूप से इन पर उन्हीं पूंजीपतियों का हाथ है जिनका देश की
अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण है। इसलिये अपने
सेठों के अनुकूल प्रतिकूल खबरों का चयन इनको करना पड़ता होगा यह बात तय है। ऐसे में
खोजी पत्रकारिता के अपने जोखिम हैं। किसी बड़े
औद्योंगिक घराने की पोल खोले जाने की संभावना इसलिये बन भी नहीं सकती। जब कोई विशेष खबर न हो तो क्रिकेट और फिल्म की
खबरें चलाते हैं। विभिन्न चैनलों में
प्रसारित कॉमेडी और बोरियत भरे सामाजिक धारावाहिकों के अंश प्रसारित करते हैं। एक
तरह से वह पूंजीपतियों के विज्ञापन दिखाने वाले यह प्रचार माध्यम समाचारों की
सामगं्री इस तरह जुटाते हैं जैसे कि वह कोई सामाजिक दायित्व निभा रहे हों। वास्तविकता यह है कि आज भी भारत सरकार का
उपक्रम दूरदर्शन केवल समाचार सुनने वालों के लिये एक उपयुक्त माध्यम
हैं
हिन्दी
भाषी क्षेत्रों की जनंसख्या अधिक होने कारण इन चैनलों को विज्ञापन भी खूब मिलते
हैं। ऐसे में अब यह चैनल बहसें भी चलाने
लगे हैं। उसमें भी सभी के पर्दे पर दिल्ली और मुंबई में बैठे चंद विद्वान ही आते
हैं। क्रिकेट, फिल्म और राजनीति की छोटी छोटी
बातों पर बड़ी बड़ी बहस होती है। तय चेहरे
होने के कारण यह बात तो साफ पता लग ही जाती है कि यह ऐसे किसी नये व्यक्ति को ला
नहंी सकते जिससे किसी आक्रामक और विवादास्पद स्थिति पैदा हो। सामाजिक, राजनीतिक, फिल्म, क्रिकेट तथा अन्य जनाभिमुख
क्षेत्रों में कार्यरत शिखर पुरुषों के
ट्विटर, ब्लॉग, फेसबुक तथा बेवसाईटों पर कही गयी छोटी बात को भी यह चैनल उछालते हैं पर आम
ब्लॉग लेखक की बड़ी बात पर भी चर्चा नहीं करते।
दोष इनका नहीं समाज का है जो लेखक किसी को तभी मानता है जब उसके पास पद,
पैसे और प्रतिष्ठा
का शिखर हो। सच बात तो यह है कि हमें लगने
लगा है कि हम अंतर्जाल सक्रिय हिन्दी के अनेक ऐसे लेखकों को देख रहे हैं जो इन कथित
विद्वानों से अधिक तेजस्वी है। अनेक विषयों पर बहसें देखकर हमें लगता है कि अगर हम
अगर वहां होते तो शायद अपनी बात अपने ढंग से कहते और यकीन मानिए सुनने वाले हतप्रभ
रह जाते।
दरअसल
अंतर्जाल के आम लेखकों को पूंजीपतियों के वरतहस्त के कारण प्रचारकर्मी आम प्रयोक्ता
ही मानते हैं। यही कारण है कि अनेक लेखकों
की रचनायें बिना नाम दिये अखबार में छप रही हैं तथा उनके विचारों को बहसों में इस
तरह अनेक विद्वान शामिल करते हैं जैसे कि
वह उनके मौलिक हो। भारत में अंतर्जाल आये इतना समय हो गया पर एक भी हिन्दी लेखक को
यह प्रचार माध्यम प्रतिष्ठित नहीं कर पाये यह इनकी कमी है। यह कहना बेकार है कि हिन्दी में ब्लॉग पर लिखा
कम जा रहा है। अनेक बार हमारे मन में आता
है कि हमने इतना लिखा है पर किसी ने आज तक ध्यान नहीं दिया तो इसमें हमारी कमी
नहीं वरन् समाज की कमी है। हालांकि एक यह
भी है कि हम लिख रहे हें पर इससे कमा क्या रहे हैं? आज के भौतिक युग में किसी
क्षेत्र के अकमाऊ व्यक्तित्व को आदर्श बनाकर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
इधर केदारनाथ, गंगोत्री, बद्रीनाथ तथा यमुनोत्री पर विपदा आयी तो उनकी मदद के लिये दान मांगने का सिलसिला प्रारंभ हो गया। यह कहना कठिन है कि कितने लोग पीड़ितों के लिये
धन लेंगे और कितना अपने पास रखेंगे। संभव है कुछ वह अपने आगे वाले की तरफ बढ़ायें
और कुछ हिस्सा अपने पास रखें। एक बात तय है कि उत्तराखंड में मदद पहुंचाना आसान नहीं है। वहां सड़कें,
पुल और तमाम तरह
की इमारतें नष्ट हो गयीं हैं। बिजली का
संकट भी है। ऐसे में कोई वहां पहुंचकर
पहले की तरह सुविधाजनक स्थिति में नहीं रहेगा।
मदद देने के लिये बहुत चढ़ाई चढ़ने के साथ ही पैदल भी चलना होगा। अपनी देह भारी कष्ट देकर पीड़ितों की मदद करना
ही संभव है। ऐसे में यह भी देखना होगा कि
मदद के लिये योजना बना रहे लोगों का शरीर पुष्ट है भी कि नहीं, कहीं वह सुविधाओं के भोग
के कारण जर्जर तो नहीं हो गया। एक ज्ञान
तथा योग साधक होने के नाते हमारी दृष्टि इस पर गयी है। हम नियमित साइकिल चलाने वाले हैं। कभी कभी सप्ताह
भर साइकिल नहीं चलाते तो अगली बार उसको चलाने में ऐसा लगता है कि हमारी टांगे जवाब
दे रही हैं। अंतर्जाल के कारण लंबी दूरी
तक साइकिल नहीं चलाते। घर के आसपास दो तीन किलोमीटर की दूरी तय कर लेते हैं। सात आठ किलोमीटर साइकिल चलाने का विचार आता है
पर फिर छोड़ देते हैं। ऐसे में मदद की
घोषणा कर दूसरे से पैसा लेने वालों की फिटनेस का विचार हमारे मन में आता है।
टीवी
चैनल वाले जब उत्तराखंड की आपदा का जीवंत प्रसारण दे रहे थे तब उनको हांफता देखकर
हमें तरस आ रहा था। यह उनके लिये शायद पहला अवसर था जब उनको सामग्री स्वतः जुटानी
पड़ रही थी। अभी तक तो वह फिल्म, क्रिकेट, राजनीति और कला से जुड़े
शिखर पुरुषों की सनसनी पर उनके समाचार प्रसारण चलते रहे थे। बहरहाल इन समस्त
चैनलों को अपने प्रसारण के लिये हम इस मायने में आभार व्यक्त करते हैं कि उन्होंने
पीड़ितों की मदद के लिये बहुत काम किया।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर