Saturday, August 21, 2010

रौशनी चुराकर अंधेरों को सुलाने लगे-हिन्दी व्यंग्य कविता (vikas ka mukhauta-hindi satire poem)

दूसरों के घर की रौशनी चुराकर
अंधेरों को वहां सुलाने लगे,
नौनिहालों के दूध में जहर मिलाकर
अपनी दौलत से अपना कद
ज़माने को दिखाने के लिये
ऊंचा उठाने लगे।
इंसानों जैसे दिखते हैं वह शैतान
पेट से बड़ी है उनकी तिजोरी
जंगलों की हरियाली चुराकर
भरी है नोटों से उन्होंने अपनी बोरी,
अब गरीबी और बेबसी को
विकास का मुखौटा पहनाकर बुलाने लगे।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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