Sunday, August 15, 2010

आज़ादी पर का झंडा वंदन-व्यंग्य कविता कविता (one day of indepandent-hidi satire poem)

अपने ही गुलामों की
भीड़ एकत्रित कर आज़ादी पर
शिखर पुरुष करते हैं झंडा वंदन।
अपने खून को पसीना करने वाले
मेहनतकशों के लिये हमदर्दी के
कुछ औपचारिक शब्द बोल देते हैं
उसके हाथ भी खोल देते हैं
बस! एक दिन
फिर उसके पसीने का तेल बनाने के लिए
डाल देते हैं पांव में बंधन।।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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