जहां कद्र नहीं थी हमारी
वहां अपना बसाया आशियाना
हमने क्यों बसाया,
बेकद्रों के लिये बेकार बहाया पसीना,
मगर फिर भी उन्होंने बेरुखी दिखाई
आसरा देने का अहसान भी जताया।
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मालुम था भरोसा टूट जायेगा
फिर भी किया,
ख्वाब बिखरने का अंदेशा था
फिर भी उसे जिया,
धरती पर बहती जिंदगी की
यह नदिया
कितनी गहरी है यह किसने समझा
कभी हम डूबे
कभी तैरे
देखने की ख्वाहिश थी
इसलिये घाट घाट का पानी पिया।
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वहां अपना बसाया आशियाना
हमने क्यों बसाया,
बेकद्रों के लिये बेकार बहाया पसीना,
मगर फिर भी उन्होंने बेरुखी दिखाई
आसरा देने का अहसान भी जताया।
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मालुम था भरोसा टूट जायेगा
फिर भी किया,
ख्वाब बिखरने का अंदेशा था
फिर भी उसे जिया,
धरती पर बहती जिंदगी की
यह नदिया
कितनी गहरी है यह किसने समझा
कभी हम डूबे
कभी तैरे
देखने की ख्वाहिश थी
इसलिये घाट घाट का पानी पिया।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका
८.हिन्दी सरिता पत्रिका
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