Tuesday, April 5, 2011

योग शिक्षक को क्रिकेट में रत्न दिखा-हिन्दी लेख (yoga teachar and ratna in cricket-hindi article)

   विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक ने क्रिकेट के भगवान को देश का रत्न सम्मान देने की मांग का समर्थन किया है-इस खबर ने हमें हैरान कर दिया और अंदर ढेर सारे विचार उठे। इनके क्रम का तारतम्य मिलना ही कठिन लगा रहा हैं।
   तत्वज्ञानी आम लोगों पर हंसते हैं। हमारे देश के अनेक संतों और मनीषियों ने अपनी देह में स्थित आत्मा रूपी रत्नकी परख करने की बजाय पत्थर के टुकड़े को रत्न मानने पर बहुत सारे कटाक्ष किये हैं। वैसे आम लोगों को तत्वज्ञानियों का संसार बहुत सीमित दिखता है पर वह वह उसमें असीमित सुख भोगते हैं। जबकि आम इंसान मायावी लोगों के प्रचार में आकर पत्थर के टुकड़े रत्न और हीरे पर मोहित हेाकर जिंदगी गुजारते हैं। संकट में काम ने के लिये सोने का संग्रह करते हैं जो चंद कागज के टुकड़े दिलवाने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर सकता। माया के चक्कर में पड़े लोगों को हमेशा भय लगा रहता है कि पता नहंी कब वह विदा हो जाये तब सोना, चांदी हीरा जवाहरात और रत्न का उसके विकल्प का काम करेगा। जिस ज्ञान के साथ रहने पर संकट आ ही नहीं सकता- और आये तो असहनीय पीड़ा नहीं दे सकता-उसके संचय से आदमी दूर रहता है। शायद यही कारण है कि इस संसार में दुःख अधिक देखे जाते हैं। मजे की बात है कि लोग सुख भोगना भी नहीं जानते क्योंकि उनका पूरा जीवन ही संकट की सोच को लेकर धन संग्रह की चिंताओं में बीतता है। इस संग्रह में पत्थर के टुकड़ों में रत्न सर्वोच्च माना जाता है। जिसे रत्न मिल गया समझ लो वह इस मायावी संसार हमेशा के लिए तर गया।

    इंसानों में एक प्रवृत्ति यह भी है कि वह इंसान से अधिक कुछ दिखना चाहता है। अगर किसी शिखर पुरुष की चाटुकारिता करनी हो तो उससे यह कहने से काम नहीं चलता कि ‘आप वाकई इंसान है,’ बल्कि कहना पड़ता है कि ‘आप तो देवतुल्य हैं’, या अधिक ही चाटुकारिता करनी हो तो कहना चाहिए कि ‘आप तो हमारे लिये भगवान हैं।’
वैसे ऐसी बातें आम तौर से निरीह लोग बलिष्ठ, धनवान और पदारूढ़ लोगों से कहते हैं। जहां स्तर में अधिक अंतर न हो वहां कहा जाता है कि ‘आप तो शेर जैसे हैं’, ‘आप तो सोने की खान है’, या फिर ‘आप तो इस धरती पर रत्न हैं’।
    आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में चाटुकारिता को भव्य रूप मिला है। इसका कारण यह है कि अमीर और गरीब के बीच अंतर बढ़ गया है। धीरे धीरे दोनों के बीच पुल की तरह काम करने वाला मध्यम वर्ग भी अब लुप्त हो रहा है। ऐसे में अमीर रत्न बनते जा रहे हैं और उनके मातहत जो उनको प्रिय हैं वह भी रत्न से कम नहंी रह जाते। फिर पश्चिम की तर्ज पर नोबल, बूकर और सर जैसे सम्मानों की नकल भारतीय नामों से कर ली गयी है। उनमें रत्न नामधारी पदवियां भी हैं।
     स्थिति यह है कि जिन लोगों ने मनोरंजन का व्यवसाय कर अपने लिये कमाई की उनकी लोकप्रियता को भुनाने के लिये उनका रत्न सम्मान देने की मांग उठती है। हमारे देश में लोकतंत्र है और जनता से सीधे चुनकर आये लोग स्वयं ही रत्न होने चाहिए पर हर पांच साल बाद पब्लिक के बीच जाना पड़ता है। इसलिये अपना काम दिखाना पड़ता है। अब यह अलग बात है कि बढ़ती जनसंख्या की वजह से विकास का काम कम दिखता है या फिर भ्रष्टाचार की वजह से दिखता ही नहीं है। सो जनता को निरंतर अपने पक्ष में बनाये रखने के लियो किया क्या जाये? मनोरंजन के क्षेत्र में क्रिकेट और फिल्म का बोलबाला है। उसमें सक्रिय खिलाड़ियों और अभिनेताओं के बारे में यह माना जाता है कि वह तो लोगों के हृदय में रत्न की तरह हैं तो उनको ही वह सम्मान देकर लागों की वाहवाही लूटी जाये। इसलिये जब जनता से सामना करना होता है तो यह अपने उन्हें अपना मॉडल प्रचारक बना लेते हैं।
     किकेट के एक खिलाड़ी को तो भगवान मान लिया गया है। उसे देश का रत्न घोषित करने की मांग चल रही है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है। अभी विश्व कप क्रिकेट फायनल में हमारी टीम की तब नैया डूबती नज़र आई जब बाज़ार के घोषित मास्टर और ब्लास्टर सस्ते में आउट होकर पैवेलियन चले गये। मास्टर यानि भगवान का विकेट गिरते ही मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में सन्नाटा छा गया। मगर विराट, गंभीर, और धोनी न भगवान बनकर लाज रख ली और श्रीलंका के 264 रन के स्कोर से आगे अपनी टीम को पार लगाया। बहरहाल बाज़ार की दम पर चला यह मेला अब समाप्त हो गया है मगर उसका खुमारी अभी बनी हुई है। अब किं्रकेटरों की आरती उतारने का काम चल रहा है।
     सब ठीक लगा पर विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक ने जब क्रिकेट के भगवान को देश का रत्न घोषित करने की मांग की तो थोड़ी हैरानी हुई। हम सच कहें तो योग शिक्षक ही अपने आप में एक रत्न हैं। भारतीय योग को जनप्रिय बनाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है-कम से कम जैसा अप्रतिबद्ध लेखक तो हमेशा ही उनके पक्ष में लिखता रहेगा मगर उनकी यह मांग कुछ नागवार गुजरी। इसके पीछे हमारी अपनी सोच गलत भी हो सकती है पर इतना तय है कि एक योगी से मायावी मेले के कल्पित भगवान को रत्न मानना हैरान करने वाला है। पहली बार हमें यह आभास हुआ कि योग के सूत्रों का प्रतिपादन महर्षि पतंजलि के माध्यम से हो जाने पर भी भगवान श्रीकृष्ण को श्रीमद्भागवत गीता के लिये महाभारत करवाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? वैसे जो योग साधना में निर्लिप्त भाव से अभ्यास करते हैं अंततः स्वतः ही श्रीगीता की तरफ जाते हैं पर जिनको योग का व्यवसाय केवल प्रचार प्रसार के लिये करना है उनको तत्वज्ञान की आवश्यकता नहंी होती। यह अलग बात है कि उसके बिना वह योग शिक्षक होकर रह जाते हैं। हमारे प्रसिद्ध योग शिक्षक योग साधना के आठ अंगों के दो ही अंगों प्राणायाम तथा योगासन में उतने ही सिद्ध हैं जितना एक व्यवसायी को होना चाहिए।
     क्रिकेट खेल इतना मायावी है कि इतने बड़े योगी और कहां उसके चक्कर में फंस गये। एक योगी को हर विषय में जानकारी होना चाहिए। वह न भी रखना चाहे तो उसकी देह विचार और मन में आई शुद्धता उसे सांसरिक जानकारी पाने के लिये प्रेरित करती है और यह बुरा भी नहीं है। जिनसे समाज का उद्धार होता है उन विषयों से योगी का सरोकार होना चाहिए। जहां तक क्रिकेट की बात करें तो वह समाज में समय पास करने या मनोरंजन पास करने के अलावा कुछ नहीं है। इसमें लोग पैसा खर्च करते हैं। टीवी पर इन मैचों के दौरान जो विज्ञापन आते हैं उसका भुगतान भी आम उपभोक्ता को करना पड़ता है। एक योग साधक के रूप में हम इतना तो कह सकते हैं कि क्रिकेट और योग परस्पर दो विरोधी विषय हैं। एक योग शिक्षक को तो लोगों से क्रिकेट में दूसरों की सक्रियता देखकर खुश होने की बजाय योग में अपनी सक्रियता देखने की प्रेरणा देना चाहिए।
     ऐसे में योग शिक्षक ने अपने अभियान को स्वतंत्र होने के आभास को समाप्त ही किया है। उनके आलोचक उन पर उसी बाज़ार से प्रभावित होने का आरोप लगाते हैं जो क्रिकेट का भी प्रायोजक है। ऐसे में योग शिक्षक के समर्थकों के लिये विरोधियों के तर्कों का प्रतिवाद कठिन हो जायेगा। आखिरी बात यह है कि योग साधना एक गंभीर विषय है और यह मनुष्य के अंदर ही आनंद प्राप्त के ऐसे मार्ग खोलती है कि बाह्य विषयों से उसका वास्ता सीमित रह जाता है। क्रिकेट तो एक व्यसन की तरह है जिससे बचना आवश्यक है। यह अलग बात है कि एक योग साधक के नाते समाज में इसके प्रभावों का अवलोकन करते हुए हमने भी क्रिकेट भी देखी। आनंद भी लिया जिसकी कृत्रिमता का आभास हमें बाद में हुआ पर हम अभी योग में इतने प्रवीण नहीं हुए कि उससे बच सकें। अपनी सीमाऐं जानते हैं इसलिये यह नहीं कहते कि योग शिक्षक को ऐसा करना नहीं चाहिए था। बस यह ख्याल आया और इसलिये कि कहंी न कहंी उनके प्रति हमारे मन में सद्भाव है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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