अपना रास्ता यूं भटक गये,
नैतिकता और आदर्श की बातें
रखी जुबान तक
हाथ और पांव
सामान समेटने में अटक गये।
बढ़ाते रहे बैंक खाते में रकम,
नहीं रहा अपने गरीब होने का गम,
खुश हो रहे रोज अखबार में छपता नाम,
प्रचार के बन गये गुलाम,
सड़कों पर चलना कर दिया बंद,
पैट्रोल फूंकने को हो गये पाबंद,
कागज के पदों वाले शेर बहुत हैं
मगर पहरों से सजे महल में भटक गये
नैतिकता और आदर्श की बातें
रखी जुबान तक
हाथ और पांव
सामान समेटने में अटक गये।
बढ़ाते रहे बैंक खाते में रकम,
नहीं रहा अपने गरीब होने का गम,
खुश हो रहे रोज अखबार में छपता नाम,
प्रचार के बन गये गुलाम,
सड़कों पर चलना कर दिया बंद,
पैट्रोल फूंकने को हो गये पाबंद,
कागज के पदों वाले शेर बहुत हैं
मगर पहरों से सजे महल में भटक गये
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
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5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका
८.हिन्दी सरिता पत्रिका
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