स्वयं पर नहीं
आती हंसी जिनको
दूसरों को
चिढाकर
परम आंनद
पाते हैं।
स्वयं घर से
निकलते
पहनकर धवल कपड़े
दूसरे पर कीचड़
उछालकर
रुदन मचाते हैं।
जिन्होंने अपना
पूरा जीवन
पेशेवर हमदर्द
बनकर बिताया
ज़माने के जख्म
पर
नारों का नमक
वही छिड़क जाते हैं।
बंद सुविधायुक्त
कमरों में
विलासिता के साथ
गुजारते
रात के अंधेरे
दिन में चौराहे
पर आकर
वही समाज सुधार
के लिये
हल्ला मचाते
हैं।
कहें दीपक बापू
बचना
ऐसे कागजी नायकों
से
नाव डुबाने की
कोशिश से पहले
उसे दिखावे के
लिये बचाते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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