Wednesday, August 24, 2011

जिसको मिली साहबी-भ्रष्टाचार पर दो हिन्दी क्षणिकाएँ (sahab aur gulam-two short poem-bhrashtachar or corruption

गोश्त बनता है जिनके रसोईघर में
टेबल पर बैठकर उसे चबते हुए
वही भूखों को रोटी दिलाने के
दावे किया करते हैं,
यकीन करो
भूख से पैदा होने वाले दर्द को वह नहीं जानते
शब्दों की चालाकी से अपने बयानों में
भले हमदर्दी भरते हैं।
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भूख से तड़पता
भ्रष्टाचार से भड़कता
अपराध से सहमता
आम आदमी कोई औकात नहीं रखता
उससे देश कहीं ज्यादा बड़ा है,
इसलिए जिसको मिली साहबी
अपनी कुर्सी पर बैठकर इतराता है
लगता है देश को बचाने के नाम पर
अपनी औकात बचाने के लिए अड़ा है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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