अंतर्जाल पर लिखते हुए तीन वर्ष का समय हो गया। कहना कठिन है कि अपना उद्देश्य कहां तक प्राप्त किया। वैसे ही लिखने को लेकर अपनी सफलता या असफलता का विचार नहीं किया। न ही इस बात पर विचार किया कितने लोगों ने पढ़ा? अलबत्ता अपने जीवन में लिखना शुरु करने से आज तक एक बात का अनुभव किया कि इस संसार में ऐसे मित्र लेखन के क्षेत्र में ही मिलते हैं जो आपके प्रशंसक और आलोचक होने के साथ ही व्यक्तिगत रूप से हितैषी होते हैं। अंतर्जाल पर छद्म नामों को लेकर समस्या न हो तो यह कहना सरल है कि यहां भी इस लेखक को बहुत अच्छे मित्र अधिक संख्या में मिले। कम से कम एक बात में उन्होंने निभाया कि ‘जबरन सफल’ बनाने का कोई प्रयास न कर नये प्रयोगों के लिये प्रेरणा तो दी।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि अभी अपनी सफलता के दावे करना मूर्खता होगी तो अपनी असफलता को लेकर कुंठा पालना उससे भी अधिक मूर्खता! इस लेखक के पांच ब्लाग गूगल की पैज रैंक में चार अंक ले चुके हैं।
1.शब्द लेख सारथी पत्रिका
2.दीपक बापू कहिन
3.ई-पत्रिका
4.शब्द पत्रिका
5.शब्द लेख पत्रिका
कुल बीस ब्लाग/पत्रिका में 12 अन्य तीन अंक लिये हुए हैं। पांच ब्लाग का चार अंक में होना शायद इतना अधिक सफल होना न लगे-क्योंकि अंतर्जाल पर हिन्दी लिखने को लेकर अनेक भ्रम है-मगर अपने लेखकीय कर्म से एक बात अनुभव कर ली है कि अंग्रेजी पर बहुत कुछ समाग्री इस अंतर्जाल पर है पर इसका मतलब यह नहीं है कि उसके ब्लाग या वेबसाईटें हिन्दी से अधिक पाठक जुटाती हैं। ब्लाग/वेबसाईटें की रैंक बताने वाली एक वेबसाईट पर इस लेखक का एक ब्लाग साहित्य श्रेणी में है जो कल चतुर्थ वरीयता तक पहुंचा था और उसके पीछे 106 ब्लागों में बहुत सारे अंग्रेजी के थे। हिन्दी की एक व्यवसायिक वेबसाईट भी उसके बहुत पीछे थी। इस रैंकिंग वाली साईट पर अपने ब्लाग पंजीकृत करने पड़ते हैं इसलिये जो पंजीकृत नहीं है उनसे मुकाबला करना ठीक नहीं हैं पर इतना जरूर है कि हिन्दी के ब्लाग को अंग्रेजी से बढ़त नहीं मिलेगी यह सोचना भी गलत है-इससे यह बात समझ में आती है। इसी वेबसाईट पर अन्य श्रेणियों में भी इस लेखक के ब्लाग पंजीकृत हैं और उन्होंने अंग्रेजी ब्लागों पर बढ़त बनायी है।
2.दीपक बापू कहिन
3.ई-पत्रिका
4.शब्द पत्रिका
5.शब्द लेख पत्रिका
कुल बीस ब्लाग/पत्रिका में 12 अन्य तीन अंक लिये हुए हैं। पांच ब्लाग का चार अंक में होना शायद इतना अधिक सफल होना न लगे-क्योंकि अंतर्जाल पर हिन्दी लिखने को लेकर अनेक भ्रम है-मगर अपने लेखकीय कर्म से एक बात अनुभव कर ली है कि अंग्रेजी पर बहुत कुछ समाग्री इस अंतर्जाल पर है पर इसका मतलब यह नहीं है कि उसके ब्लाग या वेबसाईटें हिन्दी से अधिक पाठक जुटाती हैं। ब्लाग/वेबसाईटें की रैंक बताने वाली एक वेबसाईट पर इस लेखक का एक ब्लाग साहित्य श्रेणी में है जो कल चतुर्थ वरीयता तक पहुंचा था और उसके पीछे 106 ब्लागों में बहुत सारे अंग्रेजी के थे। हिन्दी की एक व्यवसायिक वेबसाईट भी उसके बहुत पीछे थी। इस रैंकिंग वाली साईट पर अपने ब्लाग पंजीकृत करने पड़ते हैं इसलिये जो पंजीकृत नहीं है उनसे मुकाबला करना ठीक नहीं हैं पर इतना जरूर है कि हिन्दी के ब्लाग को अंग्रेजी से बढ़त नहीं मिलेगी यह सोचना भी गलत है-इससे यह बात समझ में आती है। इसी वेबसाईट पर अन्य श्रेणियों में भी इस लेखक के ब्लाग पंजीकृत हैं और उन्होंने अंग्रेजी ब्लागों पर बढ़त बनायी है।
अगर देश के हिन्दी विद्वान या संगठित क्षेत्रों की संस्थायें हिन्दी ब्लाग लेखक को अदना समझ रही हैं तो यह उनका अल्पज्ञान है। आधुनिक काल के लेखकों को लेकर भले ही संगठित प्रकाशन संस्थायें अभी भी आशावादी बनी हुईं हैं पर उनको यह जानकर निराशा होगी कि वैश्विक काल में दाखिल हो चुकी हिन्दी के लिये अब भी स्वर्ण काल या भक्ति काल की रचनायें ऊर्जा प्रदान करेंगी और आधुनिक काल के लेखकों की रचनायें यहां अधिक सफल नहंी होती दिख रही बल्कि अंतर्जाल पर ‘गागर में सागर’ भरने वाले नये लेखक ही अब उसे आगे ले जायेंगे और यकीनन वह उनके नियंत्रण से बाहर होंगे।
एक रोचक किस्सा है जिसका संबंध अंतर्जाल पर लिखने को लेकर ही है। एक अखबार अक्सर इस लेखक के अध्यात्मिक ब्लाग से रचनायें उठाकर अपने यहां बिना नाम के छाप रहा था। यह अखबार लेखक के घर भी आता था। एक दिन लेखक की नज़र अध्यात्मिक स्तंभ की तरफ गयी तो यह देखकर दंग रह गया था कि वह जस की तस इस लेखक के ब्लाग से उठायी गयी थी। तब इस लेखक ने अन्य दिनों अंक भी चेक किये। उसी अखबार में प्रकाशित एक लेख में उसके स्तंभकार ने ओबामा और गांधी जी पर नोबल पुरस्कार पर लिखे गये इस लेखक के तीन लेखों के अनेक अंशों को जस की तस नहीं छापा तो शब्दों का हेरफेर भी अधिक नहीं थी। दो अक्टूबर गांधी जयंती को लेकर भी इस लेखक के लेख केे अंशों का उसमें उपयोग किया गया था।
इस लेखक ने उसके संपादक को फोन किया। संपादक ने अध्यात्मिक विषयों को लेकर कहा-‘यह तो अच्छी बात है कि आपके संदेशों का प्रसारण सभी जगह हो रहा है।’
इस लेखक ने कहा-‘उससे हम नहीं रोक रहे, मगर लेखक का नाम तो दें।’
उसने बड़ी मासूमियत से कहा-‘उसे वैसे के वैसे नहीं लिया होगा। कुछ तो शब्दों में हेरफेर होगा।’
इस लेखक को हंसी आ गयी। उसने कहा-‘नहीं, वैसे के वैसे ही उठाये गये हैं।
संपादक ने कहा-‘ठीक है! हमने अपने संबंधित संपादक को मना कर देंगे कि वह आपके लेख न ले। ले तो नाम छापे। वैसे हम उसे मना ही कर देंगे कि आपके लेख की कापी न करे।’
उसके बोलने से किसी को दुःख होता पर इस लेखक को हंसी आयी। उस मासूम संपादक ने प्रकाशन माध्यमों में ब्लाग लेखकों की सोच का ज्ञान दिया था और इस मामले में उसे गुरु कहना ठीक रहेगा।
उसकी ईमानदारी पर तारीफ करना चाहिये कि फिर उसने अभी तक ऐसा नहीं किया। अलबत्ता इस लेखक ने उस स्तंभकार की शिकायत नहीं की क्योंकि यह उस संपादक की या अखबार की जिम्मेदारी नहीं थी। फिर स्तंभकार का नाम तो याद रहेगा। अब इस समस्या पर संपादक या स्तंभकार को दोष देना भी गलत लगता है क्योंकि मानवीय प्रवृत्तियों पर भी विचार करना चाहिये। वह संपादक और स्तंभकार मेरी तरह ही सामान्य वर्ग के होंगे। अपने रोजगार से जुड़े होने के कारण शायद वह अंतर्जाल के बारे में इतना नहीं जानते होंगे। जैसा प्रचार माध्यम प्रचारित कर रहे हैं वैसे ही लोग अपने विचार बनाते हैं। यह स्वतंत्र दिखने वाले प्रचार माध्यम क्या हैं, इस पर बहस इस लेख में नहीं करना है पर उनके प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता। आजादी के बाद बड़े बड़े लेखक हुए हैं पर बताईये किसने कोई अमरकृति दी है और दी है तो भला वह इनसे जुड़ा रहा है? अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का नियम है कि उतना ही पढ़ो जितना रोजगार के काम आये। जितना पढ़ो उतना ही सोचो वरना कहीं के नहीं रहोगे। कहने का तात्पर्य यह है कि एक तयशुदा प्रारूप है जिस पर सभी चले रहे हैं और नये प्रयोगों से हर कोई घबड़ाता है। दूसरी बात यह है कि जिसके पास भी थोड़ी बहुत शक्ति है वह उसका उपयोग करना चाहता है। किसी दूसरे को बढ़ाने की मनोवृत्ति अब नहीं रही जिस तरह तीन साल इस लेखक को लगे हैं उतने शायद ही अन्य कोई बर्बाद करना चाहे-क्योंकि इसके लिये यह जरूरी है कि आपका नियमित रोजगार होना चाहिये।
फिल्म, टीवी चैनल और पत्रकारिता में मौलिक लेखकों का अभाव है तो चिंतक के नाम शून्य। चिंतक कौन हैं? जो पुराने विचारों को ही आगे बढ़ा रहे हैं पर नये संदर्भों में व्याख्या करने के लिये जिस बौद्धिक क्षमता की जरूरत है वह कितनों में है? दरअसल हिन्दी में तत्काल कमाने की चाहत ने इसे आर्थिक संरक्षण से परे कर दिया है और जो मिल रहा है वह कोई नया प्रयोग करने की इजाजत नहीं देगा पर अंतर्जाल पर इसकी गुंजायश है अगर आप धन कमाने की इच्छा की बजाय लिखने में अधिक रुचि रखते हैं। वैसे भी समाचार पत्र पत्रिकाओं में लिफाफा भेजकर थक जाने से अच्छा है कि यहां टंकित कर थका जाये। इसके अलावा एक बाद दूसरी भी है कि अगर आप किसी पद, पैसे और प्रतिष्ठा के शिखर पर हैं तो आपको समाचार पत्र पत्रिकाओं में स्थान नियमित रूप से मिल सकता है वरना तो एकाध बार छपे फिर भूल जाओ। समाचार पत्र पत्रिकाओं में पत्रकार के रूप में कार्यरत लोगों को कितना संघर्ष करना पड़ रहा है यह बात अंतर्जाल पर ही उनके लेखों से पता लगता है पर क्या कोई अन्य प्रकाशन उनको अपने यहां स्थान देगा? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर आप शिखर पुरुष नहीं हैं तो हिन्दी में लिखकर ही आप लोकप्रिय न हों यह जाने अनजाने पूंजी बाजार ने तय कर लिया है। अंतर्जाल इस चक्र को तोड़ने जा रहा है। एक आम ब्लाग लेखक को कब तक अदना समझेंगे? नयी पीढ़ी के लेखक इधर आयेंगे तब क्या होगा? संभव है कि आगे चलकर लिखने वाले अंतर्जाल पर ही वैसे लिखना प्रारंभ करें जैसे कि पुराने लेखक अपने शैक्षणिक कागजों पर करते थे।
उस स्तंभकार को गुरु मानना चाहिये जिसने इस लेखक के अंश लेकर यही प्रमाणित किया कि ऐसा चिंतन वह नहीं कर सकता था भले ही उसका नाम चमक रहा हो। पाठक इसे अतिश्योक्ति न समझें। गांधीजी, नोबल और ओबामा पर लिखे गये लेख देखें तो यह बात समझ में आ जायेगी कि उसमें लिखी गयी बातें पहले किसी ने नहीं लिखी थी। देश का विभाजन और उसके बाद हुई हिंसा पर बहुत लिखा गया पर यह किसने लिखा कि अंग्रेज और उनके पिट्ठुओं की यह योजना थी कि गांधी के देश में हिंसा हो ताकि लोगों को बतायें कि इसका संदेश एक धोखा है। उनको डर था कि वह उनके इष्ट देव की जगह गांधी जी पूरे विश्व में पुजने लगेंगे और इसलिये वह इस देश को हानि पहुंचाकर गांधी जी को महत्वहीन करना चाहते थे।
अखबारों में छपने का मोह वैसे ही नहीं रहा। इतना छप चुके पर यहां लिखने का मतलब यह था कि समझदार लोगों को अपने मन की बात बतायें ताकि उनका विस्तार होता रहे। चिंतन के बारे में क्या कहें? लिखता और सोचता कोई और है हम टाईप करते हैं। एक दृष्टा की तरह जीने की आदत होती जा रही है। हमारे एक निजी मित्र एल.एन. त्रिवेदी ने -जिन्होंने बाद में अनुरक्ति के नाम से ब्लाग बनाया-कहा था कि ‘तुम तो चिंतन लिखा करो कविताओं में मजा नहीं आता।’
सबसे पहले ब्लाग का नाम ही रखा था ‘चिंतन’। उस दिन अंतर्जाल के एक मित्र श्री रवीद्र प्रभात ने भी ‘गंभीर चिंतन’ में हमें विशिष्ट ब्लागर मान लिया तो डर गये। जल्दी अपने को संभाल लिया क्योंकि हम दृष्टा की तरह देखने लगे थे। त्रिवेदी जी और प्रभात जी के बीच में जो था हम उसे देख रहे थे। प्रसंगवश समय पास करने तथा ब्लाग/पत्रिका को अपडेट करने के लिये लिखी गयी कविताओं ने भी कम रंग नहीं जमाया। ऊपर वर्णित पांच ब्लाग में से आखिरी चार वर्डप्रेस के हैं और उनको ऊंचाई पर पहुंचाने में अध्यात्मिक लेखन और इन्हीं कविताओं ने पहुंचाया है। किसी से कोई शिकायत नहीं है। प्रचार माध्यमों में काम रहे पत्रकारों से बस यह आशा करता हूं कि मेरे लेखक को प्रोत्साहित करें तो अच्छा ही है। एक दो अखबार ने अध्यात्मिक ब्लाग छापा है। इसलिये सभी पत्रकार, लेखक, तथा पाठक मित्रों आभार व्यक्त करता हूं। तीन वर्ष पूरे होने पर बस इतना ही।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीपयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका
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