हमने की थी फरियाद
अपने हालातों की
वह सुधारने वादा देकर चल दिये,
उनके कान और आंख ढूंढ रहे थे कोई कहानी
सोचते हैं हमने क्यों न अपने होंठ सिल लिये।
कहें दीपक बापू
मांगी थी हमने अपने दर्द की दवा
जगह जगह हमारी कहानी सुनाकर
बनाने लगे वह अपनी हवा,
अपना दर्द अकेले झेलना आसान था,
उनके इशारे पर भीड़ बहुत आयी
हमारे दरवाजे पर तमाशा देखने
न उसमें कोई हमदर्द मेहमान था,
हैरान हैं हम
लफ्जों के सौदगरों की बाज़ीगरी देखकर
भला करने का वादा करते
पर पूरा कभी किया नहीं
फिर भी लोग जला रहे हैं
उनके सामने धी के दीये।
अपने हालातों की
वह सुधारने वादा देकर चल दिये,
उनके कान और आंख ढूंढ रहे थे कोई कहानी
सोचते हैं हमने क्यों न अपने होंठ सिल लिये।
कहें दीपक बापू
मांगी थी हमने अपने दर्द की दवा
जगह जगह हमारी कहानी सुनाकर
बनाने लगे वह अपनी हवा,
अपना दर्द अकेले झेलना आसान था,
उनके इशारे पर भीड़ बहुत आयी
हमारे दरवाजे पर तमाशा देखने
न उसमें कोई हमदर्द मेहमान था,
हैरान हैं हम
लफ्जों के सौदगरों की बाज़ीगरी देखकर
भला करने का वादा करते
पर पूरा कभी किया नहीं
फिर भी लोग जला रहे हैं
उनके सामने धी के दीये।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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