बनारस (वाराणसी) में गंगा नदी के किनारे शीतला घाट पर परंपरागत आरती के दौरान एक विस्फोट होने से अनेक दिनों से देश में अभी तक थम चुकी आतंकवादी गतिविधियों के पुनः सक्रिय होने की पुष्टि होती है। स्पष्टतः इस तरह के विस्फोट पेशेवर आतंकवादी अपने आकाओं के कहने पर करते हैं। ऐसे विस्फोटों में आम इंसान घायल होने के साथ ही मरते भी हैं। यह देखकर कितना भी आदमी कड़ा क्यों न हो उसका दिल बैठ ही जाता है।
वैसे तो आतंकवादी संगठनों के मसीहा अपने अभियान के लिये बहुत बड़ी बड़ी बातें करते हैं। अपनी जाति, भाषा, धर्म या वर्ग के लिये बड़े बड़े दुश्मनों का नाम लेते हैं। आरोप लगाते हैं कि उनके विरोधी समूहों के बड़े लोग उनके समूह के साथ अन्याय करते हैं पर जब आक्रमण करते हैं तो वह उन आम इंसानों पर हमला करते हैं जो स्वयं ही लाचार तथा कमजोर होते हैं। अपने काम में व्यस्त या राह चलने पर असावधान होते हैं। उनको लगता नहीं है कि कोई उन पर हमला करेगा। मगर प्रतीकात्मक रूप से प्रचार के लिये ऐसे विस्फोटों में वही आम आदमी निशाना बनता है जिनसे आंतकवादियों को प्रत्यक्ष कुछ प्राप्त नहीं होता, अलबत्ता अप्रत्यक्ष रूप से वह अपने प्रायोजकों को प्रसन्न करते हैं।
इन विस्फोटों का क्या मतलब हो सकता है? यह अभी पता नहीं। कुछ दिन बाद जांच एजेंसियां इसके बारे में बतायेंगी। फिर कभी कभी अपराधियों के पकड़े जाने की जानकारी भी आ सकती है। उनका भी जाति, धर्म, भाषा या वर्ग देखकर प्रचार माध्यम बतायेंगे कि शायद जल्दबाजी में सुरक्षा कर्मियों ने अपने ऊपर आये दबाव को कम करने के लिये किसी मासूम को पकड़ा है।
एक बात निश्चित है कि इस तरह के बमविस्फोटों से किसी को कुछ हासिल नहीं होता, उल्टे करने वालों के समूह बदनाम होते हैं। तब वह ऐसा क्या करते हैं?
सीधी बात यह है कि इसके पीछे कोई अर्थशास्त्र होना चाहिए। धर्म, जाति, भाषा या वर्ग के नाम पर ऐसे हमले करने का तर्क समझ में नहीं आता। अपराध विशेषज्ञ मानते हैं कि जड़, जमीन तथा जोरू के लिये ही अपराध होता है। यह जज़्बात या आस्था की बात हमारे देश में अब जोड़े जाने लगी है। आतंकवादी हमलों में बार बार आर्थिक प्रबंधकों के होने की बात कही जाती है पर आज तक कोई ऐसा आदमी पकड़ा नहीं गया जो पैसा देता है। यह पैसा कहीं न कहीं प्रशासन तथा सुरक्षा एजेंसियों का ध्यान भटकाकर अपने धंधा चलाने के लिये इन आतंकवादियों को दिया जाता है। एक बात समझ लेना चाहिए कि एक शहर में एक स्थान पर हुए विस्फोट से पूरे देश के प्रशासन को सतर्कता बरतनी पड़ती है। ऐसे में उसका ध्यान केवल सुरक्षा पर ही चला जाता है तब संभव है दूसरे धंधेबाज अपना काम कर लेते हों।
फिर आज के अर्थयुग में तो यह संभव ही नहीं है कि बिना पैसा लिये आतंकवादी अपना धंधा करते हों। अपनी जाति, धर्म, समाज, भाषा तथा वर्ग के उद्धार की बात करते हुए जो हथियार चलाने या विस्फोट करने की बात करते हैं वह सरासर झूठे हैं। उनकी मक्कारी को हम तभी समझ सकते हैं जब आत्ममंथन करें। क्या हम में से कोई ऐसा है जो बिना पैसे लिये अपने धर्म, जाति, भाषा, तथा समाज के लिये काम करे। संभव है हम किसी कला में शौक रखते हों तो भी मुफ्त में अपने दायरों के रहकर उसमें काम करते हैं। अगर कहीं उससे समाज को लाभ देने की बात आये तो धन की चाहत हम छोड़ नहीं सकते।
जब इस तरह की घटनाओं पर आम आदमी घायल होता या मरता है तो दुःख होता है। वैसे भी आजकल आम इंसान बहुत सारी परेशानियों से जूझता है। ऐसे में कुछ लोग अपने मन को नयापन देने के लिये धार्मिक तथा सार्वजनिक स्थानों पर जाते हैं। इसके लिये अपनी सामर्थ्य से पैसा भी खर्च करते हैं जो कि उन्होंने बड़ी मेहनत से जुटाया होता है। तब उनके साथ ऐसे हादसे दिल को बड़ी तकलीफ देते हैं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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