अब मेगी को खाने के लिये खतरनाक बताया जा रहा है।
हैरानी की बात है कि यह बात बहुत समय बाद तब सामने आयी है जब यह युवा पीढ़ी के जीवन
का हिस्सा बन चुकी है। युवा पीढ़ी ही क्या पुरानी पीढ़ी भी इसका उपयोग अपनी सुविधा
के लिये कर रही है। शादी विवाह में मैगी को एक पकवान की तरह परोसा जाता है। एक तरह
से मेगी ने खान पान में नये फैशन की तरह जगह बनाई है। हमारा सवाल तो यह है कि मान
लीजिये कि मेगी में खतरनाक तत्व नहीं भी है तो क्या उसका उपयोग घरेलू भोजन के
विकल्प में रूप में अपनाना चाहिये?
आज के दौर में भोजन केवल स्वाद के लिये अपनाने की
प्रवृत्ति बढ़ रही है। जिस भोज्य पदाथों से देह में रक्त तथा शक्ति का निर्माण होता
है उन्हें जीभ के स्वाद की वजह से ही कम उपयोग किया जाने लगा है। लौकी, तुरिया और करेला का उपयोग मधुमेह का रोग होने
पर ही करने का विचार आता है। सबसे बड़ी बात कि मेगी तथा बेकरी मे अनेक दिनों से बने
पदार्थों के उपयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है।
हमने तो यह सब स्थितियां बताई हैं जो वर्तमान समय में
परंपरागत भोजन के विकल्प के रूप में
खतरनाब पदार्थों का चयन हो रहा है। हमारा तो यह कहना है कि अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार भोजन के अनुसार ही
व्यक्ति की बाह्य श्रेणी भी निर्धारित होती है। भोजन केवल पेट भरने के लिये नहीं
होता वरन् उदरस्थ पदार्थ मनुष्य की मानसिकता पर भी प्रभाव डालते हैं। बासी भोजन
तामस प्रवृत्ति का परिचायक है। इसे हम यह भी कह सकते हैं कि बासी पदार्थों को खाने
वालों में तामसी प्रवृत्ति आ ही जाती है और वह आलस तथा प्रमाद की तरफ आकर्षित होते
हैं।
हर जीव के लिये भोजन अनिवार्य है। यह अलग बात है कि
पशु, पक्षी, तथा अन्य जीवों की अपेक्षा मनुष्य के पास
भोज्य पदार्थ के अधिक विकल्प रहे हैं पर इस सुविधा का उपयोग करने की कला उसे नहीं
आयी। हमारे अध्यात्मिक दर्शन में सात्विक भोजन करने का संदेश दिया जाता है क्योंकि
कहीं न कहीं मनुष्य की बाह्य सक्रियता आंतरिक विचार से प्रभावित होती है। इसलिये
भोज्य पदार्थों का चयन करते समय पेट भरने की बजाय हम जीवन में किस तरह की
प्रवृत्ति के साथ सक्रिय रहें इस पर विचार करना चाहिये।
खाने पर बहस-हिंदी कविता
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मांस खायें या मिश्री मावा
इस पर प्रचारवीर
अभियान चला रहे हैं।
महंगाई में दोनों ही महंगे
मिलावट के दौर में
शुद्धता लापता
फिर भी शोर मचाकर लोगों
के
कान जला रहे हैं।
कहें दीपक बापू भरे पेट वाले
नहीं करते बात
सड़क पानी और बिजली की
समाज की ऊर्जा
भोजन पकाने की बजाय
बहस में गला रहे हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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