Saturday, December 13, 2014

21 जून को योग दिवस मनाने की निर्णय प्रशंसा योग्य-हिन्दी चिंत्तन लेख(21 june ko yoga diwas manane ka nirnay prashansa yogya-hindi thought article)



            अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 21 जून को योग दिवस का निर्णय कर लेना अच्छी बात है। अब यह देखना है कि विदेशी विचारधाराओं से निर्मित विशिष्ट दिवस मनाने वाले-यथा वैलेंटाईन, फै्रंड्स तथा लव दिवस-हमारे समाज के नवीन सदस्य इसे कैसे मनाते हैं।  मनाते हैं तो समझते कितना है? हम यह बता दें कि योग साधना के सूत्र बताने वाले हमारे दो प्राचीन ग्रंथ हैं-श्रीमद्भागवत गीता तथा पतंजलि योग साहित्य-जिनमें इसका विशद वर्णन है।  श्रीमद्भागवत गीता में योग सूत्र ज्ञान के साथ विज्ञान के भी सिद्धांत हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि भौतिक विज्ञान को समझना योग विज्ञान से अधिक सहज है। भौतिक विज्ञान के अध्ययन में इंद्रियां बाहर सक्रिय होती हैं जो मनुष्य के लिये सहज है जबकि योग विज्ञान में अंतदृष्टि का कार्य करना जरूरी है जो सहज नहीं होता।  भौतिक विज्ञान से सृजित विषय का  विस्तार तथा सीमायें बाह्य चक्षुओं से दिखती हैं जो हमें प्रकृति से प्रदत्त हैं पर योग विज्ञान के प्रयोगों के परिणाम समझने के लिये जिस अंतदृष्टि की आवश्यकता है वह केवल अभ्यास से ही प्राप्त होती है।
            पतंजलि योग साहित्य के योग सूत्र योग साधना की विस्तृत व्याख्या करते हैं मगर उनका संबंध केवल देह से ही प्रतीत होता है। उसमें संसार से जुड़कर योग साधना करने की प्रेरणा का अभाव दिखता है मगर उस कमी को श्रीमद्भागवत गीता पूरा कर देती है।  पतंजलि योग सूत्र के मार्ग पर चलने पर कोई भी साधक पूर्ण योगी बनता है  पर उसमें संसार के विषयों से जुड़ने के सूत्र उसमें नहीं हैं इसलिये साधक में  कर्मों से विरक्ति आने की संभावना भी रहती है।  यही कारण है कि श्रीमद्भागवत गीता में सहज योग का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया जिसमें पतंजलि के सूत्र स्वतः शामिल हैं।  इसलिये पतंजलि योग के आधार पर योग साधना करने वालों को श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन अवश्य करना चाहिये।
            भारत में समय समय पर अनेक विशारद योग साधना के प्रचार में नये नये आसन जोड़ते रहे हैं।  कुछ ने आसन तो कुछ ने ध्यान का प्रचार किया पर आष्टांग योग साधना के प्राणायाम भाग के महत्व पर अभी भी अनुसंधान की आवश्यकता है क्योंकि यहीं से साधना का वह दौर प्रांरभ होता है जो समाधि तक पहुंचाता है।
            अंतिम बात यह कि योग दिवस से योग साधना का महत्व बढ़ेगा तक एक नियमित  पाठ्य सामग्री की आवश्यकता होगी।  जहां यह संभावना बनती है कि विश्व में अनेक संस्थायें इसके लिये निष्काम भाव से आगे आकर इसका प्रचार करेंगी वहीं व्यवसायिक संस्थाओं तथा पेशेवर गुरुओं के अपने लाभार्थ कथित नये प्रयोगोें से लाभ उठाने के लिये योग के नाम पर भ्रम फैलाने की आशंका भी रहेगी।  ऐसे में कहीं योग के मूलतत्व कहीं खा न जायें।  इसलिये योग साधना की कोई भी पाठ्य सामग्री का सृजन पतंजलि योग साहित्य, श्रीमद्भागवत गीता तथा प्रतिष्ठत योगाचार्यों की रचित नवीन सामग्री के आधार पर होना चाहिये। अभी हम जो योग का सार्वजनिक प्रचार देख रहे हैं उसमें देह के विकारों को दूर रखने तक की सीमा तय लगती है। इतना ही नहीं अनेक योग शिक्षक तो बीमारों को ही अपने यहां आमंत्रण देते हैं।  योग के नाम पर रोग निवारण शिविर आयोजित होते हैं।  जबाकि सत्य यह है कि योग सहज जीवन जीने की एक पूर्ण कला है।  इसके अभ्यास दैहिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक रूप से परिपक्वता आती है। इसके अभ्यास से कोई बीमारी दूर नही होती वरन् साधक स्वास्थ्य के मार्ग का पथिक  हो जाता है।  यही सकारात्मक सोच है जो योग साधक को सिद्ध बना देती है।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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