Friday, February 21, 2014

चंदे का धंधा कभी नहीं होता मंदा-हिन्दी व्यंग्य कविता(chande ka dhandha kabhi nahin hota manda-hindi vyangya kavita)



समाज सेवा के लिये निकलते ही सेवक पहले मांगते चंदा,
हल्दी लगे न फिटकरी रंग देता है जोरदार यह धंधा।
बना लिये सेवकों ने महल  बेबस  जहां था वहीं रहा,
दावा यह कि नारे लगाने में उन्होंने भी बहुत दर्द सहा,
ज़माने की सेवा के लिये रोज स्वांग नये  रचते हैं,
चंदे का हिसाब मांगने वालों से सामना करने से बचते हैं,
न कोई शैक्षणिक योग्यता है कोई उपाधि पाई है,
बिना काम किये शोर मचाने से प्रसिद्धि सेवकों ने पाई है,
कहें दीपक बापू दो नंबर के अमीरों में भी दिल रहता है,
देवता बनने की उनकी इच्छा से सेवा कार्य नहीं होता मंदा।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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