Thursday, January 16, 2014

नौकर का स्वामी बन जाना-हिन्दी व्यंग्य लेख(naukar ka swami ban jaana-hindi vyangya lekh,hindi satire article))



      गुजरात में एक संतानहीन सेठ ने अपनी सारी संपत्ति अपने नौकर के नाम कर दी।  उसकी वसीयत की चर्चा का समाचार सार्वजनिक होने पर अनेक लोग आहें भर रहे हैं कि काश, हमें कहीं से ऐसी संपत्ति मिल जाती।  वैसे हमारे देश में हजारों लोग ऐसे हैं जो कहीं  से छिपा खजाना मिल जाने के लिये अनेक तांत्रिकों के पास चक्कर लगाते हैं। कई तो इस आशा में भी रहते हैं कि कोई रिश्तेदार उनके नाम संपत्ति कर दे भले ही उसे अपनी संतान हो। अनेक अमीरों के संतान से रुष्ट होने पर उसके रिश्तेदार यह उम्मीद करते हैं कि शायद कुछ माल उनके हाथ लग जायें।
      मरे हुए आदमी का माल हड़पने की इच्छा अनेक लोगों को होती है।  उससे ज्यादा प्रबल इच्छा दूसरे के अधिकार में जा सकने वाला माल अपने हाथ में आये, यह होती है। इससे दो प्रकार सुख होता है, एक तो मुफ्त का माल मिला दूसरी जिसके हाथ से गयी वह दुःखी हुआ।  हां, हमारे देश के आदमी को सबसे ज्यादा सुख दूसरे के दुःख से होता है।  संपत्ति और सामान के विवाद हमारे देश में बहुत हैं और कोई धनी आदमी मर जाये तो अन्य रिश्तेदार इस बात के लिये उत्सुक रहते हैं कि उसकी संतान शायद कुछ माल हमारे हिस्से में भी दे।  किसी के मरने का दुःख दिखाया जरूर जाता है पर शोक में आयी भीड़ में कुछ लोग इस बात की चर्चा अवश्य करते हैं कि मृतक अपनी औलाद के लिये कितना माल छोड़कर मरा।
      उच्च और मध्यम वर्ग के परिवारों में कुछ स्थानो पर  मृतात्मा की शांति के लिये तेरह दिन की अवधि के दौरान ही अनेक नाटकबाजी होती है। ऐसे में गुजरात का वह सेठ अपने नौकर  के लिये करोड़ों की संपत्ति छोड़कर मरा तो उसकी खबर से अनेक लोगों का आहें भरना स्वाभाविक है।
      हमारे यहां सेवा और दान का बहुत महत्व है।  सर्वशक्तिमान के सच्चे बंदे दोनों ही काम बिना किसी हील हुज्जत के करते हैं पर उनकी संख्या विशाल समाज को देखकर नगण्य ही कही जा सकती है।  अधिकतर लोग तो सेवा और दान लेना चाहते हैं।  किसी को कितना माल मिला इस पर आंखें लगाते हैं पर उसने कितनी सेवा की यह कोई नहीं देखता। नौकर को माल मिला उसके भाग्य पर ईर्ष्या करने वाले बहुत मिल जायेंगे पर उसने अपनी सेवा से मालिक का दिल किस तरह जीता होगा यह जानने का प्रयास करता कोई नहीं मिलेगा।
      धर्म और संस्कार के नाम पर पूरे विश्व समुदाय में नाटकबाजी बहुत होती है।  सभी कहते हैं कि परमात्मा एक ही है पर सभी अपने इष्ट का प्रचार कर इठलाते हैं। दूसरे के इष्ट को फर्जी या कम फल देने वाला प्रचारित करते हैं।  उसी तरह सभी को मालुम है कि यह देह बिना आत्मा के मिट्टी हो जाती है पर फिर भी मरे हुए आदमी की लाश पर रोने की नाटकबाजी सभी करते हैं। दाह संस्कार के लिये भीड़ जुटती है और पैसा भी खर्च किया जाता है। समाज में नाटकीयता को संस्कार कहा जाता है और लालच की कोशिशों को  संस्कृति माना जाता है।  अध्यात्मिक ज्ञान का अभ्यास कर उस पर चलने वाले विरले ही होते हैं पर उसका रट्टा लगाने वाले बहुत मिल जायेंग। दूसरे के दस दोष गिनाने के बात कहेंगे कि हमारा क्या काम, हम तो परनिंदा करने से बचते हैं।’’
      प्रचार माध्यम कभी कभी ऐसी खबरें देते हैं जिसमें समाज की मानसिकता का अध्ययन करने में मजा आता है।  कोई कह रहा है कि उस नौकर के भाग्य खुल गये’, कुछ लोग कह रहे हैं कि काश, हमें ऐसा ही स्वामी मिलताऔर कोई अपने ही लोगो को कोस रहा है कि अमुक मरा तो मैंने उसकी सेवा की पर मिला कुछ नहीं।
      कोई व्यक्ति उस नौकर की हार्दिक सेवा के बारे में जानने का प्रयास करता नहीं दिख रहा। मृतकों के शोक के अवसर पर नाटकबाजी पर लिखने बैठें तो अनेक लोग नाराज हो जायेंगे कि यह तो हमारी कहानी लिखी जा रही है। घर घर की कहानी है।  अपनी सेवा को मूल्यवान और दूसरे के दान को कमतर मानने वाले हमारे इस समाज में बहुत मिल जायेंगे जो विश्व का अध्यात्मिक गुरु होने का दावा करता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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