शहर की गंदगी ढोने वाले
नालों पर तरक्की की
इमारतें खड़ी हैं।
वर्षा ऋतु में उत्साहित जल
ढूंढता सड़क पर
अपनी सहचरिणी रेत
जो
पत्थरों में जड़ी है।
कहें
दीपक बापू हवा और जल
हमेशा चहलकदमी नहीं करते
अपने पथों का कर भी नहीं भरते
विकास के बांध खेलने के लिये
उनके सामने
बन जाते खिलौना
इंसान के कायदों से
प्रकृत्ति की हस्ती बड़ी है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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