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Thursday, October 5, 2017

सफेदपोशों की पूंछ कातिलों ने पकड़ी है-दीपकबापूवाणी (Safedposhon ki poonch katiolon ne pakdi ha9i-DeepakBapuWani)

मन के गुलाम पर स्वामित्व का बोध करें, लाचारी में फंसे पराये दर्द पर शोध करें।
‘दीपकबापू’ दरियादिली का रचाते स्वांग, अक्ल के दावेदार चुनौती पर क्रोध करें।।
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बाज़ार के सामान में दिल कहीं खो गये, संपन्न अर्थी पर प्रेम के भाव सो गये।
‘दीपकबापू’ ढूंढे नहीं मिले जज़्बाती रिश्ते, लालची ख्याल चिंता के बीज बो गये।।
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सफेदपोशों की पूंछ कातिलों ने पकड़ी है, चेहरे सजे सामने नीयत पाप ने पकड़ी है।
‘दीपकबापू’ नहीं जानते शब्दों का सौंदर्य, जुबान खड़ी ऐसी जैसे बांस की लकड़ी है।।

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घडी की सुई के साथ हाल बदलते,
दरबारी नर्तक आम मंच पर ताल बदलते।
‘दीपकबापू’ चौराहे पर खड़े देखें
राहों के साथ लोग कदम चाल बदलते।
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प्रचार के पर्द पर दिखने की
बीमारी ज़माने में छा गयी है।
पैसे से प्रसिद्धि का खेल जारी है
शब्दों में चीखें छा गयी हैं।
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नाटकीय खेल में न जीत न हार
फिर भी नतीजा पहले से तय है।
‘दीपकबापू’ ईमानदार भूमिकाओं में
अभिनेताओं की गजब बेईमान लय है।
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Wednesday, September 6, 2017

कभी दूर कभी पास रिश्तों का यही अफसाना है-दीपकबापूवाणी ((Kabhi door kabhi paas rishton ka yahi afasana hai-DeepakBapuwani)

दुनियां की भलाई का ठेका लिया
अपना नहीं कोई ठिकाना है।
बेईमानों से जंग में
हों नहीं पर ईमानदार दिखाना है।
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कभी दूर कभी पास
रिश्तों का यही अफसाना है।
कभी गम कभी आस
ज़िंदगी किश्तों में जाना है।
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इंसानों के अरमानों की
कदम कदम पर गिरी लाश है।
फिर भी सभी को
ख्वाबी जन्नत की तलाश है।
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शहर की भीड़ में
अपनों की तलाश करते हैं।
रोज मिलती पीड़ में
सपनों की तलाश करते हैं।
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बस्तियां उजाड कर बड़े शहर बसाये,
हवा पानी की धारा में पत्थर फंसाये।
दीपकबापू पेड़ों की जगह महल देखते
लोहद्वारों पर बिछा सन्नाटा पांव पसराये।
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सिक्कों में बिके अच्छा हो या गंदा है।
धन मिले खरा वरना इंसान मंदा है।।
दीपकबापू भलाई का काम मिल जाये
या कत्ल का सब यहां धंधा है।।
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आओ उनके गले मिलने पर
जल्दी जल्दी जश्न मना लें।
पता नहीं फिर कब वह
अपने हाथों को तलवारें थमा दें।
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Wednesday, January 18, 2017

आंखों में कोई वहम नहीं है, समाज सेवकों में दम नही है-दीपकबापूवाणी (Ankhone mein vaham nahin hai-DeepakBapuWani)

बेबसों के हमदर्द बहुत है, देखो महल में भी सभी बेचैन हैं।
धवल वस्त्र पहने स्वर्ण रथ के सवार आंसुओ से सजे नैन है।
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चाहते सभी संसार में मिले प्यार, करते सभी भावना का व्यापार।
‘दीपकबापू’ लहरों से लड़ें नही,ं कौन जाना चाहे स्वार्थ के पार।।
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आंखों में कोई वहम नहीं है, समाज सेवकों में दम नही है।
‘दीपकबापू’ मलाई के लालची हैं, चंदा लूटने में कम नहीं है।।
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रुपये का तिलिस्म करे बेहाल, आंकड़े से ज्यादा चमकाये माल।
‘दीपकबापू’ दिखायें खेल शून्य का, बेजान होकर बुने मायाजाल।।
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अभाव के अंधेरे से सभी डरते हैं, वैभव की रौशनी पर सभी मरते हैं।
‘दीपकबापू’ घर के हिसाब में लगे, बाहर कूड़ा हटाने से सभी डरते हैं।।
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अपनी रेखा कोई बड़ी करता नहीं, गैर की छोटी करने से डरता नहीं।
‘दीपकबापू’ भंडारा खाने के महारथी, स्वाद से किसी का मन भरता नहीं।।
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गर्मी के मौसम में ठंडे पदार्थ खाते, सर्दी में गर्म पानी से नहाते।
‘दीपकबापू’  मौसम के जाल में फंसे, विरले जोगी मन में रम पाते।।
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