बेबसों के हमदर्द बहुत है, देखो महल में भी सभी बेचैन हैं।
धवल वस्त्र पहने स्वर्ण रथ के सवार आंसुओ से सजे नैन है।
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चाहते सभी संसार में मिले प्यार, करते सभी भावना का व्यापार।
‘दीपकबापू’ लहरों से लड़ें नही,ं कौन जाना चाहे स्वार्थ के पार।।
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आंखों में कोई वहम नहीं है, समाज सेवकों में दम नही है।
‘दीपकबापू’ मलाई के लालची हैं, चंदा लूटने में कम नहीं है।।
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रुपये का तिलिस्म करे बेहाल, आंकड़े से ज्यादा चमकाये माल।
‘दीपकबापू’ दिखायें खेल शून्य का, बेजान होकर बुने मायाजाल।।
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अभाव के अंधेरे से सभी डरते हैं, वैभव की रौशनी पर सभी मरते हैं।
‘दीपकबापू’ घर के हिसाब में लगे, बाहर कूड़ा हटाने से सभी डरते हैं।।
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अपनी रेखा कोई बड़ी करता नहीं, गैर की छोटी करने से डरता नहीं।
‘दीपकबापू’ भंडारा खाने के महारथी, स्वाद से किसी का मन भरता नहीं।।
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गर्मी के मौसम में ठंडे पदार्थ खाते, सर्दी में गर्म पानी से नहाते।
‘दीपकबापू’ मौसम के जाल में फंसे, विरले जोगी मन में रम पाते।।
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