सिंहासन के लिये चलती जंग, अमन कराना तो
बहाना है।
‘दीपकबापू’ रखें पुजने का ख्याल, सेवा से मेवा कमाना है।।
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भक्ति से बड़ी
भूख है, मुफ्त खाने वाले नहीं समझेंगे।
दीपकबापू आराम से रहते, पसीने को पानी
ही समझेंगे।।
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लाशों का झुंड शहर में, विज्ञापन दिलाने
वाली मशहूर है।
दीपकबापू जिंदगी समझे, क्या पता मरने
में भी शऊर है।।
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दंगे की प्रतीक्षा में खड़े, खून होते ही
विज्ञापन चलायेंगे।
दीपकबापू बहस में मस्त, अक्लमंद कीमती
आंसु बहायेंगे।।
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हृदय का भाव नापते नहीं, भय से धर्म सभी
निभा रहे हैं।
‘दीपकबापू’ मंत्र जापते नहीं, धनतंत्र की भक्ति सिखा रहे हैं।
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रात के अंधेरे में लगाते आग, दिन में बुझाने
का बजाते राग।
‘दीपकबापू’ भलाई के ठेकेदार, इंसान क्या छोड़ेंगे खायें नाग।।
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पांच तत्वों से बना संसार, संजोग होते
जीवों के मेल।
‘दीपकबापू’ तमाशा न करना, पल में बने बिगड़े यहां खेल।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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