Wednesday, January 29, 2014

दूसरे की बजाय अपने पर ध्यान रखें-हिन्दी अध्यात्मिक चिंत्तन(doosre ke bajay apnee taraf dhyan den-hindi adhyatmik chinntan)



      मनुष्य के लिये मनोरंजन एक आवश्यक विषय है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार प्रतिदिन का समय चार भागों में बांटा गया है। प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सांयकाल मनोरंजन तथा रात्रि मोक्ष के लिये माना गया है। प्रकृत्ति ने अनेक रस और रंग चारों ओर बिखेर रखे हैं। अपनी दिनचर्या में अगर भारतीय दर्शन के अनुसार वैज्ञानिक ढंग से समय बिताया जाये तो यकीनन न केवल जीवन जिया जा सकता है पर वरन् उसे समझा भी जा सकता है।
      एक बात निश्चित है कि जो मनुष्य दिन के चारों भागों को नियम के अनुसार समय व्यतीत करता  है वह अधिक आनंद उठाता है। इस चक्र के बाहर रहना, अनियमित होना या विपरीत चलना अंततः मानसिक तनाव का कारण बनता है। देखा तो यह गया है कि लोग प्रातःकाल ही योग, ध्यान या पूजा करने की बजाय मनोरंजन या व्यसन में लग जाते हैं।  अनेक लोग घर से बाहर निकलकर सड़क या पार्क में सिगरेट या बीड़ी पीने लगते हैं। अनेक लोग प्रातः ही टीवी से चिपक जाते हैं।  दोपहर अर्थ का समय है। इसका आशय है कि उचित ढंग से धनोपार्जन किया जाये पर आजकल तो अनर्थ अर्थात गलत तरीके से धन कमाने की कोशिश अधिक होती दिखती है।  सांयकाल मनोंरजन के नाम पर ऐसे विषयों में मन लगाया जाता है जो बाद में तनाव का कारण बनता है।  उनका मनोरंजन अर्द्धरात्रि तक चलता है।  जब सोते हैं तो प्रातःकाल निकल चुका होता है और सूर्यनारायण अपनी पूर्ण शक्ति से संसार में विचरते दिखते हैं। 
      हमने कहीं एक विद्वान का कथन पढ़ा  जिसमें कहा गया था कि अगर आपको रात्रि में देखे गये सपने सुबह याद रहें तो इसका मतलब यह है कि आप ढंग से सोये नहीं है।  हम यह भी देखते हैं कि रात के सपनों को लोग यादकर दूसरों को सुनाते हैं।
      उस दिन एक व्यक्ति इन इस लेखक से कहा कि‘‘मैं रात को एक सपना देख रहा था। वह सपना देखना मुझे अच्छा लग रहा था पर सुबह सब भूल गया।’’
      इस लेखक ने जवाब दिया कि ‘‘इसका मतलब यह है कि तुम रात को ढंग से सोये हो इस पर तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए।’’
      वह व्यक्ति बोला-‘‘पर मुझे इससे पहले वाली रातों के सपने याद रहते आये हैं।
      इस लेखक ने कहा-‘‘इसका मतलब यह है कि तुम बहुत दिनों से सोये नहीं थे।’’
      वह बोला-‘‘यार, में वह सपना याद करना चाहता हूं क्योंकि अच्छा लग रहा था।
      इस लेखक ने कहा-‘‘अफसोस है! तुम रात को अच्छी तरह सोने के बाद दिन में व्यर्थ का तनाव मोल ले रहे हो।’’
      हम देख रहे हैं कि समाज में स्वास्थ्य का सूचकांक एकदम नीचे की तरफ बढ़ता जा रहा है।  इसका मुख्य कारण अप्राकृतिक जीवन शैली है।  खान पान में मिलावट की समस्या तो है साथ में अपच भोजन की बढ़ती प्रवृत्ति ने एक बहुत बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। छोटी उम्र के लोगो को ऐसी बीमारियों से ग्रसित देखा जा रहा है जो आमतौर से बड़े लोगों को होती है।  खासतौर से श्रमसाध्य कार्यों के प्रति लोगों की अरुचि ने उनको न केवल दैहिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी कमजोर किया है।  हमारा अनुभव तो यह कहता है कि जितना देह को चलाया जाये उतनी ही वह ठीक रहती है। सबसे बड़ी बात तो यह कि मन में एक आत्मविश्वास रहता है।
      मुख्य बात यह है कि हर व्यक्ति को स्वयं ही अपनी तरफ ध्यान देना चाहिये। किसी को इस बात पर परेशान नहीं होना चाहिये कि दूसरा क्या कर रहा है? वह क्या खाता है? वह क्या पहनता है? इन प्रश्नों से जूझने की बजाय हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि हम किस तरह सुविधापूर्वक अपनी देह का संचालन कर सकते हैं। इसी से ही मनोबल बढ़ता है।



दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Friday, January 24, 2014

छवि का इनाम-हिन्दी व्यंग्य कविता(chhavi ka inam-hindi vyangya kavita)



जोर जोर की आवाजों में
सामूहिक शोर मचाकर
उन्होंने  शक्तिशाली होने की छवि बनाई,
बैठ गये तख्त पर
जमाने के भले की नीयत उनके दिल में ही है
सारे जहान में अपनी ईमानदारी जताई।
कहें दीपक बापू
कौन बच पाया
दौलत शौहरत और ओहदे की लालच के शिकार से,
फर्ज से मुंह फेर लेना आसान है
रिश्ता रह जाता सभी का अधिकार से,
जब तक खुद बदहाल है आदमी
दूसरे के दर्द का बखान करता है,
मिलता है हमदर्द होने पर इनाम
फिर केवल अपने घर भरता है,
धरती पर जन्नत लाने का वादा कर
बहुत लोगों ने अपनी बड़ी इमारते बनायी,
जिन्होंने लिखी खून से इतिहास में इबारत
कभी उन्होंने अपनी व्यथा नहीं जताई।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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Thursday, January 16, 2014

नौकर का स्वामी बन जाना-हिन्दी व्यंग्य लेख(naukar ka swami ban jaana-hindi vyangya lekh,hindi satire article))



      गुजरात में एक संतानहीन सेठ ने अपनी सारी संपत्ति अपने नौकर के नाम कर दी।  उसकी वसीयत की चर्चा का समाचार सार्वजनिक होने पर अनेक लोग आहें भर रहे हैं कि काश, हमें कहीं से ऐसी संपत्ति मिल जाती।  वैसे हमारे देश में हजारों लोग ऐसे हैं जो कहीं  से छिपा खजाना मिल जाने के लिये अनेक तांत्रिकों के पास चक्कर लगाते हैं। कई तो इस आशा में भी रहते हैं कि कोई रिश्तेदार उनके नाम संपत्ति कर दे भले ही उसे अपनी संतान हो। अनेक अमीरों के संतान से रुष्ट होने पर उसके रिश्तेदार यह उम्मीद करते हैं कि शायद कुछ माल उनके हाथ लग जायें।
      मरे हुए आदमी का माल हड़पने की इच्छा अनेक लोगों को होती है।  उससे ज्यादा प्रबल इच्छा दूसरे के अधिकार में जा सकने वाला माल अपने हाथ में आये, यह होती है। इससे दो प्रकार सुख होता है, एक तो मुफ्त का माल मिला दूसरी जिसके हाथ से गयी वह दुःखी हुआ।  हां, हमारे देश के आदमी को सबसे ज्यादा सुख दूसरे के दुःख से होता है।  संपत्ति और सामान के विवाद हमारे देश में बहुत हैं और कोई धनी आदमी मर जाये तो अन्य रिश्तेदार इस बात के लिये उत्सुक रहते हैं कि उसकी संतान शायद कुछ माल हमारे हिस्से में भी दे।  किसी के मरने का दुःख दिखाया जरूर जाता है पर शोक में आयी भीड़ में कुछ लोग इस बात की चर्चा अवश्य करते हैं कि मृतक अपनी औलाद के लिये कितना माल छोड़कर मरा।
      उच्च और मध्यम वर्ग के परिवारों में कुछ स्थानो पर  मृतात्मा की शांति के लिये तेरह दिन की अवधि के दौरान ही अनेक नाटकबाजी होती है। ऐसे में गुजरात का वह सेठ अपने नौकर  के लिये करोड़ों की संपत्ति छोड़कर मरा तो उसकी खबर से अनेक लोगों का आहें भरना स्वाभाविक है।
      हमारे यहां सेवा और दान का बहुत महत्व है।  सर्वशक्तिमान के सच्चे बंदे दोनों ही काम बिना किसी हील हुज्जत के करते हैं पर उनकी संख्या विशाल समाज को देखकर नगण्य ही कही जा सकती है।  अधिकतर लोग तो सेवा और दान लेना चाहते हैं।  किसी को कितना माल मिला इस पर आंखें लगाते हैं पर उसने कितनी सेवा की यह कोई नहीं देखता। नौकर को माल मिला उसके भाग्य पर ईर्ष्या करने वाले बहुत मिल जायेंगे पर उसने अपनी सेवा से मालिक का दिल किस तरह जीता होगा यह जानने का प्रयास करता कोई नहीं मिलेगा।
      धर्म और संस्कार के नाम पर पूरे विश्व समुदाय में नाटकबाजी बहुत होती है।  सभी कहते हैं कि परमात्मा एक ही है पर सभी अपने इष्ट का प्रचार कर इठलाते हैं। दूसरे के इष्ट को फर्जी या कम फल देने वाला प्रचारित करते हैं।  उसी तरह सभी को मालुम है कि यह देह बिना आत्मा के मिट्टी हो जाती है पर फिर भी मरे हुए आदमी की लाश पर रोने की नाटकबाजी सभी करते हैं। दाह संस्कार के लिये भीड़ जुटती है और पैसा भी खर्च किया जाता है। समाज में नाटकीयता को संस्कार कहा जाता है और लालच की कोशिशों को  संस्कृति माना जाता है।  अध्यात्मिक ज्ञान का अभ्यास कर उस पर चलने वाले विरले ही होते हैं पर उसका रट्टा लगाने वाले बहुत मिल जायेंग। दूसरे के दस दोष गिनाने के बात कहेंगे कि हमारा क्या काम, हम तो परनिंदा करने से बचते हैं।’’
      प्रचार माध्यम कभी कभी ऐसी खबरें देते हैं जिसमें समाज की मानसिकता का अध्ययन करने में मजा आता है।  कोई कह रहा है कि उस नौकर के भाग्य खुल गये’, कुछ लोग कह रहे हैं कि काश, हमें ऐसा ही स्वामी मिलताऔर कोई अपने ही लोगो को कोस रहा है कि अमुक मरा तो मैंने उसकी सेवा की पर मिला कुछ नहीं।
      कोई व्यक्ति उस नौकर की हार्दिक सेवा के बारे में जानने का प्रयास करता नहीं दिख रहा। मृतकों के शोक के अवसर पर नाटकबाजी पर लिखने बैठें तो अनेक लोग नाराज हो जायेंगे कि यह तो हमारी कहानी लिखी जा रही है। घर घर की कहानी है।  अपनी सेवा को मूल्यवान और दूसरे के दान को कमतर मानने वाले हमारे इस समाज में बहुत मिल जायेंगे जो विश्व का अध्यात्मिक गुरु होने का दावा करता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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Sunday, January 12, 2014

भ्रष्टाचार की जनक है अर्थनीति-हिन्दी चिंत्तन लेख (bhrashtachar ki janak hai arthaniti-hindi chinntan lekh)



      आजकल देश के प्रचार माध्यमों में बाबा रामदेव के देश की अर्थनीति में बदलाव को लेकर दिये गये सुझावों पर बहस चल रही है।  एक बात निश्चित है कि बाबा रामदेव ने कभी स्वयं अर्थशास्त्र का अध्ययन नहीं किया इसलिये उन्हें अर्थनीति का ज्यादा ज्ञान नहीं हो सकता मगर उनके भक्तों में अनेक ऐसे लोग हैं जो इस विषय पर अपना दखल रखते हैं और उनकी राय पर ही वह अपनी राय रख रहे हैं।  दूसरी बात यह है कि कोई सामान्य अर्थशास्त्री ऐसी राय रखे तो उस पर कोई ध्यान न दे पर जब बाबा रामदेव रख रह हों तब यकीनन देश का ध्यान उसकी तरफ जाता ही है। बाबा रामदेव अपने राजनीतिक अभियान पर हैं हमें उनके इस अभियान पर  कुछ नहीं कहना पर उन्होंने अर्थनीति पर अपनी राय रखी उसमें हमारी दिलचस्पी है।
      शैक्षणिक काल में  अर्थशास्त्री के छात्र होने के कारण हमें अनेक ऐसे सूत्रों की जानकारी है जिनके आधार पर अर्थनीति तय होती है।  अर्थशास्त्र में पागल तथा सन्यासियों को छोड़कर सभी का अध्ययन किया जाये। सीधी बात कहें तो मनोविज्ञान तथा दर्शनशास्त्र का अध्ययन नहीं किया जाता  लेकिन बाकी शास्त्रों का अध्ययन करना आवश्यक है। हमने देखा है कि भारतीय अर्थशास्त्री कभी अमेरिका, कभी कनाडा, कभी चीन, कभी सोवियत तो कभी किसी दूसरे देश का उदाहरण देकर भारतीय अर्थनीति के बारे में अपनी राय रखते है। तय बात है कि वह राजनीति और इतिहास पर अधिक ध्यान देते हैं और समाज शास्त्र को भूल जाते हे।
      एक बात याद रखने लायक है कि भारत की भूगौलिक, सामाजिक, धाार्मिक तथा मानवीय स्वभाव की स्थिति किसी भी देश से मेल नहीं खाती। हमारे अर्थ, राजनीति, धार्मिक तथा सामाजिक शास्त्रों के विद्वान अन्य देशों के उद्धरण देकर यहां भ्रम फैलाते है। हमारा मानना है कि विदेशी विचाराधाराओं को हमेशा भारतीय परिप्रेक्ष्य में अध्ययन कर उनकी नीतियां लागू करना चाहिये।  यह हो नहीं रहा इसलिये ही देश में विकास को लेकर विरोधाभासी स्थिति देखने को मिलती है। देश के सरकारी अर्थशास्त्री न तो भारतीय इतिहास का अध्ययन करते हैं न ही उनको भारतीय समाज की स्थिति का पता है जो विश्व में प्रथक है। उनकी राय पर चल रहा देश आजादी के बाद  66 साल भी विकसित नहीं हो पाया।
      इसमें कोई दूसरा तर्क नहीं हो सकता कि बाबा रामदेव प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध लोगों में अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो भारतीय समाज के निकट हैं। वह साधु, हैं, वह योगी हैं, सबसे बड़ी बात यह कि वह आजादी के बाद देश में उभरे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने कृत्य से आमजनों के हृदय को सर्वाधिक प्रभावित किया। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार के लिये जिन सुझावों को प्रस्तुत किया उनमें यकीनन कोई सार्थकता होगी।  उन पर विचार करना चाहिए।
      दरअसल यह लेख लिखते समय लेखक ने सोचा था कि देश की कर प्रणाली पर कुछ लिखा जाये पर लगता नहीं है कि टंकण प्रक्रिया उस तरफ बढ़ रही है।  भारत में करप्रणाली मेें मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है इससे हम सहमत हैं।  बाबा रामदेव ने आयकल समाप्त कर बैंकों में व्यवहार कर लगाने का जो विचार हुआ है उसका कुछ विद्वान समर्थन कर रहे हैं तो कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं।  इधर उधर की बहस से पता चला कि यह भी किसी विदेशी देश की अर्थनीति की ही हमारे देश में पुनरावृत्ति करने का प्रयास है।  हम अभी तक बहस ही देख रहे हैं। इस पर कोई निष्कर्ष अभी तक नहीं निकाला।   हां, बाबा रामदेव की एक बात से सहमत हैं कि करप्रणाली सरल होना चाहिये। करों के रूप कम होना चाहिये। हम जब भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो कहीं न कहीं हमारी अर्थनीति भी है।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Tuesday, December 31, 2013

मुफ्त का मजा-हिन्दी व्यंग्य(mufta ka maza-hindi vyangya)



           
            हमारे देश में गरीब तो छोड़िये अमीर आदमी भी मुफ्त वस्तु की चाहत छोड़ नहीं चाहता।  अगर कहीं मुफ्त खाने की चीज बंट रही है तो उस पर टूटने वाले सभी लोग भूख के मारे परेशान हों, यह जरूरी नहीं है।  कहीं भजन हो रहा है तो श्रद्धा पूर्वक जाने वाले लोग कम ही मिलेंगे पर अंगर लंगर होने का समाचार मिले तो उसी स्थान पर भारी भीड़ जाती मिल जायेगी। हालांकि कहा जाता है कि हम तो प्रसाद खाने जा रहे हैं। 
            हमारे देश में लोकतंत्र है इसलिये लोगों में वही नेता लोकप्रिय होता है जो चुनाव के समय वस्तुऐं मुफ्त देने की घोषणा करता है।  सच बात तो यह है कि लोकतंत्र में मतदाता का मत बहुत कीमती होता है पर लोग उसे भी सस्ता समझते हैं। यहां तक मतदान केंद्र तक जाने के कष्ट को कुछ लोग मुफ्त की क्रिया समझते है। वैसे हमारे देश के अधिकतर लोग समझदार हैं पर कुछ लोगों पर यह नियम लागू नहीं होता कि वह इस लोकतंत्र में मतदाता और उसके मत की कीमत का धन के पैमाने से अंाकलन न करें।
            पानी मुफ्त मिलता है ले लो। लेपटॉप मिलता है तो भी बुरा नहीं है पर मुश्किल यह है कि यही मतदाता एक नागरिक के रूप में सारी सुविधायें मुफ्त चाहता है और अपनी जिम्मेदारी का उसे अहसास नहीं है।  जब प्रचार माध्यमों में आम इंसान की भलाई की कोई बात करता है तब हमारा ध्यान कुछ ऐसी बातों पर जाता है जहां खास लोग कोई समस्या पैदा नहीं करते वरन् आम इंसान के संकट का कारण आम इंसान ही निर्माण करता है।
            कहीं किसी जगह राशनकार्ड बनवाने, बिजली या पानी का बिल जमा करने, रेलवे स्टेशन पर टिकट खरीदने  अथवा कहीं किसी सुविधा के लिये आवेदन जमा होना हो वहां पंक्तिबद्ध खड़े होने पर ही अनेक आम इंसानों को परेशानी होती है। अनेक लोग पंक्तिबद्ध होना शर्म की बात समझते हैं। ऐसी पंक्तियों में कुछ लोग बीच में घुसना शान समझते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि दूसरों पर इसकी क्या प्रतिकिया होगी?
            जब हम समाज के आम इंसानों को अव्यवस्था पैदा करते हुए देखते हैं तब सोचते हैं कि आखिर कौनसे आम इंसान की भलाई के नारे हमारे देश में बरसों से लगाये जा रहे हैं। यह नज़ारा आप उद्यानों तथा पर्यटन स्थानों पर देख सकते हैं जहां घूमने वाले खाने पीने के लिये गये प्लास्टिक के लिफाफे तथा बोतलें बीच में छोड़कर चले जाते हैं। वह अपना ही कचड़ा कहीं समुचित स्थान पर पहुंचाने की अपनी जिम्मेदाीर मुफ्त में निभाने से बचते हैं।  उन्हें लगता है कि यह उद्यान तथा पर्यटन स्थान उनके लिये हर तरह से मुफ्त हैं और वहां कचर्ड़ा  स्वचालित होकर हवा में उड़ जायेगा या फिर जो यहां से कमाता है वही इसकी जिम्मेदारी लेगा।
             हमारे एक मित्र को प्रातः उद्यान घूमने की आदत है।  वह कभी दूसरे शहर जाते हैं वहां भी वह मेजबान के घर पहुंचते ही सबसे पहले निकटवती उद्यान का पता लगाते हैं।  जब उनसे आम इंसान के कल्याण की बात की जाये तो कहते हैं कि खास इंसानों को कोसना सहज है पर आम इंसानों की तरफ भी देखो।  उनमें कितने  मु्फ्तखोर और मक्कार है यह भी देखना पड़ेगा। मैं अनेक शहरों के उद्यानों में जा चुका हूं वहां जब आये आम इंसानों के हाथ से  फैलाया कचड़ा देखता हूं तब गुस्सा बहुत आता है।
            वह यह भी कहते हैं कि धार्मिक स्थानों पर जहां अनेक श्रद्धालु एकत्रित होते हैं वह निकटवर्ती व्यवसायी एकदम अधर्मी व्यवहार करते हैं। सामान्य समय में जो भाव हैं वहां भीड़ होते ही दुगुने हो जाते हैं। उस समय खास इंसानों को कोसने की बजाय मैं सोचता हूं कि आम इंसाना भी अवसर पाते ही पूरा लाभ उठाता है। भीड़ होने पर पर्यटन तथा धार्मिक स्थानों पान खाने पीने का सामान मिलावटी मिलने लगता है।  इतना ही नहीं धार्मिक स्थानों पर मुफ्त लंगर या प्रसाद खाने वाले हमेशा इस तरह टूट पड़ते दिखते हैं जैसे कि बरसों के भूखे हों जबकि उनको दान या भोजन देने वाले स्वतः ही चलकर आते हैं। हर जगह भिखारी अपना हाथ फैलाकर पैसा मांगते हैं। देश को बदनाम करते हैं। अरे, कोई विदेशी इन भुक्कडों देखने पर  यही कहेगा कि यहां भगवान को इतना लोग  मानते हैं उसकी दरबार के बाहर ही अपने भूख का हवाला देकर मांगने वाले इतने भिखारी मिलते हैं तब उनके विश्वास को कैसे प्रेरक माना जाये।  वह इतनी सारी निराशाजनक घटनायें बताते हैं कि लिखने बैठें तो पूरा उपन्यास बन जाये।
            ऐसा नहीं है कि हम इस तरह के अनुभव नहीं कर पाये हैं या कभी लिखा नहीं है पर इधर जब आम आदमी की भलाई की बात ज्यादा हो रही है तो लगा कि उन सज्जन से उनकी बात पर इंटरनेट पर लिखने का वादा क्यों न पूरा किया जाये। हम जैसे लेखक इसी तरह मुफ्त लिखकर मुफ्त का मजा उठाते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Sunday, December 22, 2013

पत्थरों की सितारों जैसी शान है-हिन्दी व्यंग्य कविता(pattharon ki sitaron jaisee shaan hai-hindi vyangya kavita-hindi vyangya kavita)

ऊंचे सपने बेचना आसान है,
बाज़ार में खरीददारों की भीड़ लग जाती
बदहाल हर आम इंसान है।
कहें दीपक बापू
जितनी महंगाई बढ़ेगी
सस्ते सामान दिलाने के भाषण पर
भीड़ जुट जायेगी,
मिले न अन्न का दाना
शब्दों पर ही वाह वाह गायेगी,
बेईमानी पर सुनाओ ढेर सारी कथायें,
इसी तरह अपनी ईमानदारी बतायें,
प्यासे पर पानी की बरसात का करें वादा,
लूट लें तारीफ मुफ्त
न हो भले एक बूंद देने का इरादा,
भगवान भरोसे चला है देश हमेशा
पत्थरों पर पोता गया सौंदर्य प्रसाधन
सितारों जैसी बनी गयी उनकी शान है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Monday, December 2, 2013

इज्जत-तीन क्षणिकायें (izzat-three short hindi poem)



इज्जत के मायने अब बदल गये हैं,

अनमोल कहने के दिन ढल गये हैं।

कहें दीपक बापू ऊंचे दाम नहीं लगाये

ऐसे कई लोगों के हाथ जल गये हैं।

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खुला बाज़ार है इज्जत भी मिल जाती है,

महंगी बिकने की बात सभी को भाती है,

कहें दीपक बापू सस्ती खरीदने के फेर में

किसी की इज्जत मिट्टी में भी मिल जाती है।

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इज्जत न करो तो किसी पर गाली भी न बरसाओ,

अपनी अदाओं पर रखो नजर फिर न पछताओ,

कहें दीपक बापू सभी की इज्जत अनमोल है

सभी को  सलाम कर अपने को बचाओ।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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