Friday, February 14, 2014

हुकुमत का खेल-हिन्दी व्यंग्य कविता(hukumat ka khel-hindi vyangya kavita)



जनता की भलाई करने के लिये ढेर सारे सेवक आ जाते है,

शासक होकर करते ऐश बांटते कम ज्यादा मेवा खुद खा जाते हैं।

पहले जिनके चेहरे मुरझाये थे  सेवक बनकर खिल गये,

अंधेरों में काटी थी जिंदगी रौशन महल उनको मिल गये,

तख्त पर बैठे तो  रुतवा और रौब जमायें,

पद छोड़ते हुए अपने नाम के साथ शहीद लगायें,

कोई खास तो कोई आम दरबार लगाता है,

अहसान बांट रहा मुफ्त में हर बादशाह जताता है,

कहें दीपक बापू इंसान का आसरा हमेशा रहा भगवान,

हुकुमतों का खेल तो चालाक ही समझ पाते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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