एक उड़ते हुए पत्थर से
फूटता सिर किसी का
पूरे शहर में
दंगल शुरु हो जाता है।
शांति के
शत्रु
मौन से रहते बेचैन
जलते घर और कराहते लोग
सपनों में देखना उनको पसंद है
जब उड़ाते हैं नींद ज़माने की
करते अपना हृदय तृप्त
शहर में अमंगल गुरु हो जाता है।
कहें दीपक बापू मनुष्य देह में
पशु भी जन्म लेते हैं
रक्त की धारा बहाने पर रहते आमादा
जब लग जाता दांव उनका
चहकता शहर भी
जगल हो जाता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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