Thursday, October 2, 2014

इंसानी मन के अंतर्द्वंद्व-हिन्दी कविता(iansani man ki antardwandwa-hindi poem)



बहते जल में लहरे
उठती हैं तेजी से
फिर थम जाती हैं।

पर्वत पर गर्मी में
बहती  नदी पानी लेकर कलकल
सर्दी में सफेद चादर
जम जाती है।

कहें दीपक इंसान का मन
कोलाहल के बीच ढूंढता
अपने लक्ष्य के लिये साथी
दिल बहलाने के लिये
भीड़ जुटती
फिर छोड़ देती अकेला
हमदर्द बने या हमसफर
यह सोच लोगों में
कम ही आती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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