Monday, April 21, 2014

कृत्रिम क्रोध-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं(kratrim krodh-hindi vyangya kavitaen)



मतलब नहीं समझते वह बोलने की आजादी का,
सभी लगे हैं कीर्तिमान बनाने में शब्दों की बर्बादी का।
कहें दीपक बापू शिक्षित विद्वान समाजों में एकता की
 कोशिश करने का जताते दावा,
बहुत जल्दी दिख जाता है उनका छलावा,
जब दौलत के बंटवारे में अपना हिस्सा मांगते
सामने चेहरा रखते अपने समाज की आबादी का।
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पहले अपने इलाके के लोगों को समाजो में बांटते हैं,
फिर झंगड़ा करने वालों को अपनी महान छवि
बनाने के लिये कृत्रिम क्रोध में  जमकर डांटते हैं।
कहें दीपक बापू भद्र लोग उनके लिये भीड़ की भेड़ हैं
अपने एकता अभियान के लिये वह दबंगों को छांटते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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