Wednesday, May 5, 2010

आशिक, माशुका, इश्क और शादी-हिन्दी हास्य व्यंग्य (ashiq,mashuka,ishq aur shadi-hindi hasya vyanya

अपने पल्ले आज तक एक बात नहीं पड़ी कि इश्कवादी और नारीवादी बुद्धिजीवी अभी तक बिना विवाह साथ रहने के न्यायालयीन फैसले पर जश्न मना रहे थे फिर अचानक किसी प्रेम के विवाह में परिवर्तित न होने पर समाज को क्यों कोस रहे हैं?
देश में ऐसे अनेक किस्से होते हैं कि लड़कियां और लड़के भाग कर शादी कर लेते हैं, और समाज उनका पीछा करता है तो उनके बचाव में नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवी आगे आते रहे हैं। आगे क्या आते हैं! समाज की असामाजिक स्थिति पर सवाल उठते हैं-जवाब तो वह खैर क्या ढूंढेंगे? जमकर भारतीय धर्म पर उंगली उठायेंगे। जातिवाद को कोसेंगे। संविधान के प्रावधानों की दुहाई देते हुए बतायेंगे कि उसके अनुसार किसी को किसी से भी विवाह करने से रोकना गलत है।
जब एक माननीय अदालत ने यह निर्णय दिया कि अगर कोई व्यस्क जोड़ा बिना विवाह के लिये साथ रहना चाह तो रह सकता है तब लगा कि इश्कबाजी में समाज से विद्रोह करने वाले इसका लाभ उठायेंगे और शादी वादी के चक्कर से बचेंगे। इससे समाज के साथ ही आशिक और माशुकाओं को राहत मिलेगी। अलबत्ता नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवियों के बौद्धिक अभ्यास में कमी आने की आशंका थी पर लगता है उसकी संभावना नहीं के बराबर है। इसका कारण यह है कि हमारे देश के युवक युवतियां बाह्य रूप से पश्चात्य चालचलन और आंतरिक रूप से प्राचीन संस्कारों में चलते हुए ऐसे अंतद्वंद्ध में पड़े हैं जिसके चलते उनको यह समझ में नहंी आता कि करना क्या है?
असामयिक जवान मौत चाहे वह लड़की की हो या लड़के की पीड़ादायक है। पीड़ादायक तो हर मौत होती है पर बड़ी उम्र में हुई मौत पर केवल रिश्तेदार और परिवार ही शोकाकुल होता है जबकि जवान मौत पर पूरा समाज ही दुःखी हो जाता है। जन्म और मृत्यु कभी स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करती पर जीवन करता है। जीवन यानि जन्म से मृत्यु के बीच का सफर! भले ही कोई आदमी कितना भी कहे कि स्त्री और पुरुष एक समान है पर वह प्रकृति के द्वारा किये भेद और उसकी सच्चाईयों को बदल नहीं सकता। सबसे बड़ा सच यह है कि स्त्री की इज्जत कांच की तरह होंती है-एक बार टूटी तो जूड़ती नहीं, जबकि आदमी की इज्जत पीतल के लोटे की तरह है-एक बार गंदी हो गयी तो फिर पानी से धोकर साफ हो जाती है।
अपने देश के बुद्धिजीवी इस सच को बदलना चाहते हैं, पर पाश्चात्य विचारधाराओं की धारा में बह रहे यह लोग ऐसा कर नहीं सकते।
पाश्चात्य विचाराधाराओं के समर्थक सवाल करते हैं, पर जवाब नहीं ढूंढते। यह ऐसा क्यों है? इसे ऐसा होना चाहिये! यह पहले ऐसा था पर अब इसे समय के अनुसार बदलना चाहिये-ऐसा वह हर विषय पर करते हैं। गनीमत है कि सर्वशक्तिमान को नहीं मानते। वरना इनमें एकाध तपस्वी निकल पड़ता तो उसे भी हैरान कर देता। उसकी तपस्या से मान लीजिये सर्वशक्तिमान प्रकट होते तो उसे वरदान मांगने को कहते तो वही यही कहता कि ‘यहां स्त्री पुरुष का भेद खत्म करो और सभी को एक जैसा बनाओ। सभी लोगों को अपनी शक्ति से प्रकट करो। आखिर यह औरत ही इंसान को जन्म देने का बोझ क्यों उठाये?’
मान लीजिये सर्वशक्तिमान एक से अधिक वरदान मांगने को कहते तो जाने क्या हाल होता। ऐसे तपस्वी उनसे कहते कि ‘यहां सभी को पैदा किया है तो उनको खाना भी उम्र भर का खाना साथ भेजो ताकि यहां आदमी मजदूर यह पूंजीपति जैसे वर्ग न बने।’
तीसरा वरदान मांगने को मिलता तो कहते कि ‘भारत के अलावा विश्व में जितने भी महान लोग हुए हैं सभी को यहीं भेज दो ताकि हम अपने पुराने नायकों को भुला सकें क्योंकि वह सभी कल्पित हैं। यहां का धर्म एक धोखा है और बाकी दुनियां के सही है इसलिये उनकी स्थापना करनी है।’
ऐसे बुद्धिजीवियों का क्या कहा जाये? उनकी कहानी फिल्मी की तरह शादी से आगे नहीं जाती। इश्क की आजादी के नाम पर सभी स्वीकार्य है फिर कोई दुर्घटना हो जाये-कहीं लड़की तो कहीं लड़के के परिवार वालों से व्यवधान होने पर-तो समाज को कोसो। कहीं कोई मर जाये तो उसे इश्क की जंग का शहीद बताओ। समाज का अंधा बताओ। माता पिता को पिछड़ी विचारधारा का प्रचारित करो। मतलब यह कि माता पिता अपने पुत्र और पुत्री के लिये योग्य वधु या वर अपने विवेक से ढूंढते हैं तो वह अंधापन है।
इनको इश्क और शादी का अंतर पता नहंी है। दरअसल इनको कौन समझाये कि इश्क का शादी में तब्दील होना ही शहीद होना है। इश्क में तो होटल और पार्क में काम चल जाता है पर जब गृहस्थी की बात आती है तो उसके लिये घर ही मोर्चे की तरह हो जाता है जहां पैसे के बिना आदमी गरीब भी कहलाता है।
देश में रोजगार की कमी है। पढ़ने लिखने के अलावा व्यवहारिक चालाकियों में दक्ष ही लोग आजकल व्यवसायों और नौकरियों में चल पाते हैं। जिनके पास बहुत काम है उनके पास इश्क में इधर उधर घूमने की फुरसत नहीं है और उनकी कमाई इतनी होती है कि उनके पास अच्छे रिश्ते स्वयं ही आते हैं। जिनके पास कम काम है या नकारा हैं वह इधर उधर हाथ पंाव मारकर ऐसी प्रेयसी ढूंढते हैं जो शादी के बाद भी उनका खाना भी बनाये और कमाये भी!
पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कारों के बीच चल रहा यह अंतहीन संघर्ष बहुत गहरा है इसके लिये जरूरी है कि केवल किताबी बातों को पढ़कर उस पर अभिव्यक्ति देने की बजाय समाज में अलग अलग स्थानों और समूहों में बैठकर वहां की दैनिक गतिविधियों को अवलोकन किया जाये। तभी बात समझी जा सकती है।
पिछले एक वर्ष से तो ऐसा लग रहा है कि इश्क का राजनीतिकरण हो गया है। कहंी आशिक तो कहीं माशुका बलिदान हो जाती है। इसके साथ ही हो जाता है व्यक्ति की आजादी की अभिव्यक्ति रोकने के विरोध का अभियान! इतना ही नहीं जिस तरह देश में राजनीतिक धारायें प्रवाहित हैं उसी के अनुसार टिप्पणियां भी आती है। कलकत्ता में इश्क पर संकट आया तो उस पर एक विचारधारा विशेष के लोग बोलेंगे तो कश्मीर में दूसरे विचाराधारा के लोग अभिव्यक्ति देंगे। ऐसे में हम जैसे लोग संकट में फंस जाते हैं कि इधर बोले तो यह समझें जायें उधर बोलें तो वह समझें जायें। खामोश रहो तो लगता है कि अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन किया। साथ ही लगता है कि यह कथित संघर्ष तो तयशुदा है-हिन्दी में बोलें तो  फिक्सिंग-जो शायद इसलिये जारी रखा जाता है कि कोई आजाद चिंतक उभरकर नाम न कमा ले-इनाम वगैरह तो क्या ले पायेंगे क्योंकि बांटने वाले तो विचाराधाराओं के अनुसार ही चलते हैं। सो कभी कभार बिना नाम लिये दिये अपनी बात कह जाते हैं। विचार वीरों से बचने तथा अपने अभिव्यक्ति के अधिकार में सामंजस्य बिठाने का यह एक अच्छा मार्ग दिखता है। अलबत्ता आशिक और माशुका के इश्क के बाद शादी न होने या होकर मिलन न होने के प्रसंग अब जिस तरह सार्वजनिक चर्चा का विषय बन रहे हैं उससे तो यही लगता है कि जिस तरह कोई फिल्म बिना प्रेम कहानी के पूरी नहीं होती उसी तरह संगठित प्रचार माध्यमों में बहसें भी इसके बिना रुचिकर नहीं  बनती। इसलिये हर आठवें दिन कोई न कोई प्रेम प्रसंग चर्चा का विषय बन ही जाता है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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