Tuesday, June 1, 2010

'कामरेड' शब्द को अलविदा-हिन्दी लेख

आखिर कामरेड शब्द का तिलिस्म टूट गया। कहना कठिन है कि चीन में साम्यवादी व्यवस्था एकदम खत्म हो जायेगी पर इतना तय कि कामरेड शब्द से पीछा छुड़ाना इसकी एक शुरुआत है। मार्क्सवाद पर आधारित विचारधाराओं का आधार केवल नारे और वाद हैं और कामरेड संबोधन उनकी पहचान है। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार चीन में अब बसों तथा होटलों में काम करने वालों को इस बात का प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि वह अपने ग्राहकों को ‘कामरेड’ की बजाय ‘सर’ या ‘मैडम’ कहकर संबोधित करें।
भारत की आधुनिक संस्कृति में भी यह शब्द बहुत प्रचलित है और यह कहना कठिन है कि इसे पूर्व सोवियत संघ से आयात किया गया या चीन से। कामरेड शब्द जनवादी सस्थाओं से जुड़े कार्यकताओं के लिये उपयेाग में किया जाता है। यही कार्यकर्ता अपने साथ व्यवहार करने वालों को ‘कामरेड’ कहकर संबोधित करते हैं।
विपरीत धारा का लेखक होने के बावजूद अनेक ‘कामरेड’ हमारे मित्र रहे हैं। एक समय था जब इन ‘कामरेडों’ की बैठक चाय तथा कहवाघरों पर हुआ करती थी। अनेक पत्र पत्रिकाओं में ऐसे लेख छपते थे जिसमें लेखक इन बातों का जिक्र करते थे कि चाय तथा कहवाघरों में उनकी जनवादी लेखकों के साथ मुलाकत होती है। कई लोग तो चाय तथा कहवाघरों पर ही कविता लिख देते थे। इसके अलावा मजदूर तथा कर्मचारी संगठनों में लंबे समय तक वामपंथी विचाराधारा के लोगों का वर्चस्व रहा है इसलिये ‘कामरेड’ शब्द का संबोधन आम हो गया है।
हमारी साहित्यक यात्रा भी प्रगतिशील और जनवादी लेखकों के साथ चलते हुए निकली है। सबसे पहला कविता पाठ जनवादियों के बीच में किया था तो व्यंग्य प्रगतिशीलों के मध्य प्रस्तुत किया । समय के साथ उनसे संपर्क टूटा पर मित्र आज भी मिलते हैं तो मन गद्गद् कर उठता है।
एक कामरेड की याद आती है। अपने जीवन की अपने पैरों पर शुरुआत एक कामरेड के साथ ही की थी। दरअसल एक अखबार में फोटो कंपोजिंग आपरेटर के रूप में हमारा चयन हुआ-यह समय वह था जब भारत में कंप्यूटर की शुरुआत हो रही थी और हम चार लड़के ग्वालियर से भोपाल प्रशिक्षु के रूप में गये। उसमें एक वासुदेव शर्मा हुआ करता था। शुद्ध रूप से जनवादी। साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद का धुर विरोधी। प्रशिक्षण के लिये वह हमारे साथ चला। उस समय हम अखबार में संपादक के नाम पत्र लिखते थे। विचारधारा वही थी जो आज दिखती है। वासुदेव शर्मा कोई लेखक नहीं था पर कार्यकर्ता की दृष्टि से उसमें बहुत सारी संभावना मौजूद थी। उससे बहस होती थी। उससे बहस में जनवाद और प्रगतिशील का पूरा स्वरूप समझ में आया। जहां तक व्यवहार का सवाल था वह एकदम स्वार्थी था और अन्य दो से एकदम चालाक! पैसे खर्च करने के नाम पर एकदम कोरा। उसकी बातें जोरदार थी पर लच्छेदार भाषण के बाद भी हमें एक बात पर यकीन था कि वह किसी का भला नहीं कर सकता। उसने एक बार कहा था कि ‘मैं खा सकता हूं पर खिला नहीं सकता।’
समय के साथ हम बिछड़ गये। वासुदेव शर्म से आखिरी मुलाकात 1984 में हुई थी। उसने बताया कि वह वामपंथियों एक प्रसिद्ध अखबार-उसका नाम याद नहीं आ रहा-में काम करता है। अब पता नहीं कहां है। वैसे इस बात की संभावना है कि वह कहीं न कहीं जनवादी संस्था के लिये काम करता होगा।
1984 में हुई उस मुलाकात के समय भी उसका रवैया वैसा ही था इसलिये एक बात समझ में आ गयी कि ‘कामरेड’ नुमा लेखकों या कार्यकर्ताओं से कभी अपनी बनेगी नहीं। मगर यह बात गलत निकली क्योंकि समय के साथ अनेक ‘कामरेड’ संपर्क में आये। एक मजदूर नेता तो हमारे व्यंग्यों की प्रशंसा भी करते थे। एक दिन तो उन्होंने हमारे एक चिंतन की सराहना की जो शुद्ध रूप से भारतीय अध्यात्म पर आधारित था।
इन कामरेडों ने हमेशा ही हमारे लिखे की तारीफ की जहां विचारधारा की बात आई तो वह रटी रटी बातें करते रहे। अमेरिका का धुर विरोध करना धर्म तथा पहले सोवियत संध और अब चीन का विकास उनके लिये एक आदर्श रहा है। एक ‘कामरेड’ मित्र तो हमसे मिलते तो ‘कामरेड’ शब्द से ही संबोधित करते थे अलबत्ता हम उनके उपनाम से ही बुलाते क्योंकि हमें ‘कामरेड’ शब्द का उपयेाग कभी सुविधाजनक नहीं लगा।
चूंकि विचाराधाराओं के लेखकों की धारा उनके राजनीतिक पैतृक संगठनों के अनुसार प्रवाहित होती है और इसलिये उनके उतार चढ़ाव के अनुसार वह हिचकौले खाते हैं। इस समय अपने देश के सभी प्रकार के विचाराधारा लेखक एक अंधियारे गलियारे में पहुंच गये हैं। इसका कारण यह है कि पैतृक संगठनों के अनुयायी है उनसे अपेक्षित परिणाम या जन कल्याण की अपेक्षा अब वह नहीं करते।
वैसे अंतर्जाल पर ब्लाग लेखन में यह अनुभव हो रहा है कि विचारधारा के लेखक भले ही अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप लिखने का प्रयास कर रहे हैं पर अपने पैतृक संगठनों की स्थिति से निराश होने के कारण जन कल्याण, भाषाई विकास तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मुद्दे पर सभी एक हो रहे हैं। कई बार ‘कामरेड’ और ‘जी’-कुछ संगठनों मे नाम के साथ जी लगाकर संबोधित किया जाता है-अनेक मुद्दों पर एकमत हो जाते हैं मगर यह सभी इंटरनेट की वजह से है। परंपरागत प्रचार प्रसार माध्यमों-टीवी चैनल, समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं-में बुद्धिजीवियों का रवैया यथावत क्योंकि वह इसीके लिये प्रायोजित हैं।
बात ‘कामरेड’ के तिलिस्म टूटने की है तो एक हमारी स्मृति के कुछ दिलचस्प बातें हैं। सबसे बड़ी बात यह कि जितने भी ‘कामरेड’ मिले उनमें से अधिकतर जातीय दृष्टि ये उच्च और प्रबुद्ध थे। जिस जाति पर पूरे धर्म पर बौद्धिक मार्गदर्शन का जिम्मा माना जाता है उनमें से ही कुछ ‘कामरेड’ थे। स्थिति यह कि उनके विरोधी विचारधारा वाले भी स्वजातीय। यहां यह बता दें कि इस लेखक के पूर्वज अविभाजित भारत के उस हिस्से से आये जो पाकिस्तान में शामिल है। परंपरागत जातीय प्रतिस्पर्धा से दूर होने के कारण इस लेखक को हर जाति, धर्म, भाषा, प्रदेश तथा समूह में ढेर सारे दोस्त मिले-दिल्ली, कश्मीर, बिहार, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडू, पंजाब और हरियाणा तथा अन्य प्रदेश तो पंजाबी, गुजराती, मलयालम, तमिल, मराठी, उड़ियाई तथा मैथिली तथा अन्य भाषाओं से जुड़े मित्रों का मिलना अपने आप में गौरव पूर्ण बात लगती है। उनसे प्रेम मिलने का कारण व्यवहार रहा तो सम्मान का कारण केवल लेखन रहा। इस पर श्रीमद्भागवत्गीता ने समदर्शी बना दिया तो भेद करना अपराध जैसा लगता है।
आखिरी मजे की बात यह है कि एक प्रबुद्ध जातीय ब्लाग लेखक ने ही चीन पर लिखे गये एक पाठ पर लिखा था कि ‘चीन में भी साम्यवाद की आड़ में बड़ी जातियों का ही स्वामित्व कायम हुआ है। इसलिये वहां भी जातीय तनाव होते हैं और तय बात है कि निम्न जातियों को ही उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है।’
वह ब्लाग लेखक आज भी सक्रिय है और उसकी बात की अपने ढंग से व्याख्या करें तो चीन के ‘कामरेड’ भी शायद वहां की उच्च और प्रबुद्ध जातीय समूहों के सदस्य ही बने होंगे-नुमाइश के लिये उन्होंने भी निम्न जातियों से भी लोग लिये होंगे। अब भारत में समय बदल रहा है तो चीन भी उससे बच नहीं सकता। परंपरागत जातीय तनाव इस समय भारत में चरम पर हैं क्योंकि पाश्चात्य सभ्यता के सामने उनका अस्तित्व लगभग समाप्ति की तरफ है। अंतद्वंद्व में फंसा समाज है और बुद्धिजीवी परंपरागत रूप से बहसें किये जा रहे हैं। अलबत्ता समाजों का बनना बिगड़ना प्रकृति की स्वाभाविक प्रक्रिया है और बुद्धिजीवियों को लगता है कि वह इसमें कोई भूमिका निभा सकते हैं जो कि सरासर भ्रम है। यही शायद चीन में हो रहा है और ‘कामरेड’ का भ्रम शायद इसलिये टूटता नज़र आ रहा है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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1 comment:

Anonymous said...

चीन के लोग सुधर रहे है । बहुत खुब ,दिपक भाई कभी मेरे ब्लागर पर भी आयेँ ।
etips-blog.blogspot.com

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